दिल्ली के आर्चबिशप की हैसियत से उनके द्वारा लिखी गई चिट्ठी पर खड़े हुए विवाद के बारे में मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं.
क्या आर्चबिशप की धर्मनिरपेक्षता के खतरे में होने की चिंता का कोई आधार है?
सैद्धांतिक रूप से और विशेषकर पश्चिमी शैली में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ चर्च-राज्य के बीच अलगाव से होता है. इसके द्वारा नागरिकों के निजी जीवन में धर्मों को शामिल किया जाता है. लेकिन दुर्भाग्यवश यह मॉडल हमारे यहां नहीं है. धर्मनिरपेक्षता का हमारे संस्करण में सभी धर्मों से एक समान की दूरी रखे जाने का प्रावधान है. ये तरीका सबसे आदर्शवादी लोकतंत्र में भी अव्यवहारिक है. खासकर यह देखते हुए कि लोकतंत्र नंबरों का खेल है और नंबर ही मायने रखते हैं. जिसे भी बहुमत मिलता है वही सत्ता पाता है और फिर उससे धर्मनिरपेक्ष होने की अपेक्षा की जाती है.
इसके अलावा भारत में धर्म और राजनीति के बीच की सीमाएं अलग-अलग उद्देश्यों से हमेशा लांघी जाती रही हैं.
उसके उल्लंघन का सबसे सटीक उदाहरण राम मंदिर मुद्दा है. भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य का नेतृत्व योगी आदित्यनाथ के हाथ में है. उन्होंने अपनी एक महंत की छवि का इस्तेमाल राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व देने के लिए साथ-साथ किया है. उनकी इस छवि को राष्ट्रीय आदर्श के रूप में पेश किया गया है, जो कि इस समय के हिसाब से सर्वाथा अनुचित है.
इसलिए, धर्मनिरपेक्षता के आधार पर भारतीय लोकतंत्र के खतरे में होने की चिंता सिर्फ आर्चबिशप तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये वास्तविक भी है और व्यापक भी. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों से लेकर सड़क पर चलता हुआ, आम आदमी भी अब इसके बारे में चिंतित है. कर्नाटक के चुनावों ने इसे और बढ़ा दिया.
क्या किसी धार्मिक अधिकार वाले व्यक्ति को अपने समुदाय के लोगों के साथ अपनी ये चिंता साझा करनी चाहिए और उन्हें प्रार्थना करने और खुद को शुद्ध करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए?
धर्म और...
दिल्ली के आर्चबिशप की हैसियत से उनके द्वारा लिखी गई चिट्ठी पर खड़े हुए विवाद के बारे में मैं अपना पक्ष रखना चाहता हूं.
क्या आर्चबिशप की धर्मनिरपेक्षता के खतरे में होने की चिंता का कोई आधार है?
सैद्धांतिक रूप से और विशेषकर पश्चिमी शैली में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ चर्च-राज्य के बीच अलगाव से होता है. इसके द्वारा नागरिकों के निजी जीवन में धर्मों को शामिल किया जाता है. लेकिन दुर्भाग्यवश यह मॉडल हमारे यहां नहीं है. धर्मनिरपेक्षता का हमारे संस्करण में सभी धर्मों से एक समान की दूरी रखे जाने का प्रावधान है. ये तरीका सबसे आदर्शवादी लोकतंत्र में भी अव्यवहारिक है. खासकर यह देखते हुए कि लोकतंत्र नंबरों का खेल है और नंबर ही मायने रखते हैं. जिसे भी बहुमत मिलता है वही सत्ता पाता है और फिर उससे धर्मनिरपेक्ष होने की अपेक्षा की जाती है.
इसके अलावा भारत में धर्म और राजनीति के बीच की सीमाएं अलग-अलग उद्देश्यों से हमेशा लांघी जाती रही हैं.
उसके उल्लंघन का सबसे सटीक उदाहरण राम मंदिर मुद्दा है. भारत के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य का नेतृत्व योगी आदित्यनाथ के हाथ में है. उन्होंने अपनी एक महंत की छवि का इस्तेमाल राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व देने के लिए साथ-साथ किया है. उनकी इस छवि को राष्ट्रीय आदर्श के रूप में पेश किया गया है, जो कि इस समय के हिसाब से सर्वाथा अनुचित है.
इसलिए, धर्मनिरपेक्षता के आधार पर भारतीय लोकतंत्र के खतरे में होने की चिंता सिर्फ आर्चबिशप तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये वास्तविक भी है और व्यापक भी. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों से लेकर सड़क पर चलता हुआ, आम आदमी भी अब इसके बारे में चिंतित है. कर्नाटक के चुनावों ने इसे और बढ़ा दिया.
क्या किसी धार्मिक अधिकार वाले व्यक्ति को अपने समुदाय के लोगों के साथ अपनी ये चिंता साझा करनी चाहिए और उन्हें प्रार्थना करने और खुद को शुद्ध करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए?
धर्म और आध्यात्मिकता के बीच भेदभाव किए बिना इस सवाल को संबोधित नहीं किया जा सकता है. धर्म मुद्दे से भटकाने वाला और उनसे आंखें चुराने वाला हो सकता है. लेकिन आध्यात्मिकता नहीं. आध्यात्मिकता वास्तविकताओं के साथ सार्वभौमिक मूल्यों के आधार पर परिवर्तन से जुड़ा है. धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर एक बिशप या आर्चबिशप को चर्च परिसर तक ही सीमित रहने की आवश्यकता होती है. प्लेटो ने अपने राजनीतिक दर्शन में जोर देकर कहा है कि जो लोग प्रबुद्ध हैं, उनका कर्तव्य है कि वो दूसरों को सच की राह दिखाएं और उनका मार्गदर्शन कर उन्हें अंधेरे से उजाले की तरफ लेकर आएं.
चलिए बिना किसी का पक्ष लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान दें:
1) अपने पत्र के पहले पैराग्राफ में आर्चबिशप द्वारा वर्तमान भारतीय परिदृश्य का निदान शब्दशः उधार लिया गया है. जिसके लिए मुझे उम्मीद है कि वो अपनी बढ़ाई नहीं करेंगे. इस बात को हाल ही में कई विचारकों, न्यायविदों और कई क्षेत्रों के नागरिकों द्वारा कहा है.
2) दूसरे पाराग्राफ में वो अपने लोगों को प्रार्थना करने का आग्रह कर रहे हैं. और एक विशेष पार्टी के लिए मतदान नहीं करने के लिए कहते हैं. आर्चबिशप का ये मूल कर्तव्य है कि वो लोगों को अपने धार्मिक जीवन को गंभीरता से लेने के लिए आग्रह करे, जिसमें प्रार्थना भी शामिल है. बाइबल कहती है, "बिना छोड़े प्रार्थना करें". पूरे भारत में हर चर्च में हर रविवार को प्रार्थना की जाती है. ये प्रार्थना भारत के राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, कैबिनेट और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन के लिए की जाती है. तो जिन लोगों ने आर्कबिशप के पत्र को सुना उन्हें कुछ भी असामान्य महसूस नहीं हुआ होगा.
3) पाराग्राफ तीन और चार में वह उपवास की बात करते हैं. 2019 के चुनावों की तैयारी के लिए ये एक आध्यात्मिक अनुशासन है.
पत्र के साथ मेरी समस्या
1) कांग्रेस की तरफ चर्चों के झुकाव के इतिहास को देखते हुए आर्चबिशप के इस पत्र को राजनीतिक रूप में देखा जा सकता है.
2) चर्च में सबसे ईमानदार और प्रतिष्ठित उम्मीदवार के लिए वोट देने की अपील करने की प्रथा नहीं रही है.
3) केरल के अलावा सभी अन्य राज्यों में ईसाई राजनीतिक रूप से निष्क्रिय और उदासीन ही रहते हैं. और ये सच सभी को पता है. इसलिए इस पत्र को एक राजनीतिक पार्टी के खिलाफ लोगों के ब्रेनवॉश के रुप में देखा जा सकता है.
4) जहां तक मुझे पता है चर्च धर्मनिरपेक्षता में विश्वास नहीं करते. चर्च पदानुक्रम स्वाभाविक रूप से गैर-लोकतांत्रिक है. तो, आर्चबिशप की विश्वसनीयता और बौद्धिक अधिकार के स्तर पर अगर वो लोगों को धर्मनिरपेक्षता के संबंध प्रोत्साहित करते हैं तो इसमें कुछ तो संदिग्ध है. मैं व्यक्तिगत रूप से आर्कबिशप कुटो को जानता हूं और उनेके बारे में अच्छी राय रखता हूं. लेकिन यहां मैं चर्च पदानुक्रम पर टिप्पणी कर रहा हूं.
5) पत्र में प्रार्थना के जादुई विचार पर जोर दिया गया है. ये अंधविश्वास को ही बढ़ाने का तरीका है कि नैतिक स्तर खुद को सुधारे बिना और बगैर दृढ़ विश्वास के सिर्फ एक कोने में बैठकर और प्रार्थना करके किसी भी स्थिति को बदला जा सकता है या आने वाली आपदा को रोका जा सकता है. प्रार्थना में केवल दो कार्य होते हैं: (A) आत्म-शुद्धिकरण और (B) सच्चाई और न्याय के आधार पर स्वयं को क्रिया के लिए तैयार करना.
6) मैं तो प्रार्थनाओं को भी निर्धारित करने का विरोध करता हूं. आर्चबिशप अपने अनुयायियों के जरिए लोगों को "अपनी" प्रार्थना पढ़ाना चाहते हैं. यह लोगों द्वारा की जाने वाली प्रार्थना से अलग है. इसे टाला जा सकता था. लोगों की समझदारी और उनकी भावना पर भरोसा करने में कोई बुराई नहीं है.
मेरा निष्कर्ष
भले ही मुझे लगता है कि धर्मनिरपेक्षता के बारे में चर्च की कोई वैचारिक विश्वसनीयता नहीं है. लेकिन फिर भी सही विचारधारा वाले सभी लोग इसका स्वागत करेंगे. खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि पत्र का आधार- लोकतंत्र का संकट है. ये कड़वा मगर सच ही है. लेकिन ये संकट सिर्फ एक पार्टी की वजह से नहीं है जिनसे हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है.
लोगों की शुद्धता और राजनीतिक दायित्वों के बीच एक संबंध है जो पूरी तरह से और ऐतिहासिक रूप से सही है. समाज के नैतिक पतन खुद के लिए ही उत्पीड़न को आमंत्रित करता है. इसके बावजूद, आर्कबिशप इस सच्चाई से आंखें चुराते दिख रहे हैं कि लोगों को केवल कुछ खास मौकों पर और उपयुक्त उद्देश्यों के लिए ही शुद्ध होना चाहिए.
आप अपनी पसंद से शुद्ध और अशुद्ध होने के मौसम निर्धारित नहीं कर सकते हैं.
मुझे यकीन है कि आर्चबिशप मुझसे सहमत होंगे कि भारतीय ईसाई समुदाय आध्यात्मिक तौर पर अपनी सबसे बुरी स्थिति में है. वास्तव में उनकी ये आशंका गलत नहीं है कि आगे की चुनौतियों के लिए तैयार होना जरुरी है. मैं इस बात के लिए पूरी तरह से आश्वस्त हूं और बीजेपी में मेरे मित्र भी इस बात को मानते होंगे कि ऐसी प्रार्थना पूरी तरह से किसी भी आध्यात्मिक या ईश्वरीय शक्ति से वंचित है. हालांकि मैं समझ सकता हूं कि वे चिंतित हैं. खासकर चुनावी मौसम राजनीतिक तौर उन्हें नुकसान होने की संभावनाएं दिख रही होंगी.
मेरा यकीन करिए ये चिंता बेकार है और इसका कोई सिर पैर नहीं है. वो चुनाव क्षेत्र जहां ईसाई समुदाय निर्णायक भूमिका निभा सकता है, मुट्ठी भर हैं. बहुत ही कम. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ईसाई सबसे अधिक अविद्रोही और अलग-थलग रहने वाला समुदाय है. अगर वास्तव में उन्हें एक विशेष पार्टी के लिए वोट करने को कहा गया है, तो वे अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टी के लिए मतदान करना सुनिश्चित कर रहे हैं.
(DailyO से साभार)
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