मनोज तिवारी (Manoj Tiwari) ने दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Election Results 2020) में आगे बढ़ कर हार की जिम्मेदारी ले ली है - 8 फरवरी को आये Exit Poll के नतीजों को आखिर तक झुठलाते रहे दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने ऐसा क्यों किया होगा? सवाल का जवाब मनोज तिवारी के बयान में छिपे संदेश में ही हो सकता है. ये तो साफ है कि मनोज तिवारी ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह (Narendra Modi and Amit Shah) पर सवाल न उठे. दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी की लगातार दूसरी हार तो यही कह रही है कि पार्टी नेतृत्व ने पांच साल में जीत सुनिश्चित करने को लेकर कोई भी कारगर उपाय नहीं किया? दिल्ली में एक ऐसा नेता तक तैयार नहीं किया जो मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के मुकाबले खड़े होकर चैलेंज कर सके.
मनोज तिवारी पर BJP की जीत की जिम्मेदारी थी कहां?
अच्छा तो ये होता कि मनोज तिवारी दिल्ली में 2015 के मुकाबले बीजेपी के बेहतर प्रदर्शन की जिम्मेदारी ले लिये होते, लेकिन ऐसा नहीं किया. मनोज तिवारी के नाम ये तो दर्ज होगा ही कि वो 2020 में बीजेपी को पांच साल पहले के मुकाबले ज्यादा सीटें दिलाने में सफल रहे.
शुरुआती रुझानों में ही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की बढ़त को देखते हुए दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने हार स्वीकार करते हुए, दिल्ली में बीजेपी के प्रदर्शन की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है.
पूरे नतीजे आने से काफी पहले ही मनोज तिवारी ने कह दिया, 'दिल्ली में जो भी नतीजे आएंगे तो प्रदेश अध्यक्ष के नाते मेरी ही जिम्मेदारी होगी, लेकिन काम मिलकर सभी कार्यकर्ता करते हैं.'
दिल्ली चुनाव 2020 के नतीजे कैसे होंगे, Exit Poll में काफी हद तक संकेत मिल चुके थे. फिर भी मनोज तिवारी को पूरा भरोसा रहा कि दिल्ली में जीत तो बीजेपी की ही होगी - और डंके की चोट पर ट्विटर पर लिखा भी दिल है कि मानता नहीं - "मेरी ये ट्वीट सम्भाल के रखियेगा."
मनोज तिवारी ने सीटों की संख्या भी बतायी थी - 48. जैसे जैसे मतदान की तारीख नजदीक आती गयी, मनोज तिवारी बीजेपी की सीटों की संख्या भी बढ़ाते गये. पहले 42 सीटों का दावा किया था और जब प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव प्रचार की दूसरी पारी बीजेपी का आंतरिक सर्वे आया तो पांच जोड़ कर 47 बताने लगे - मतदान खत्म होने के बाद एक और जोड़ दिये.
वैसे मनोज तिवारी क्या, दावा तो अमित शाह ने भी किया था कि दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी चुनाव जीत कर सरकार बनाएगी. अमित शाह ने चाहे जो समझ कर ये कहा हो, लेकिन लोगों ने इसे अपने अपने तरीके से समझा होगा. ये तो साफ रहा कि बीजेपी नेतृत्व की नजर में कोई भी एक नेता ऐसा नहीं रहा जिसके नाम पर चुनाव लड़ा जा सके. ऐसे भी समझ सकते हैं कि बीजेपी को दिल्ली के सभी नेताओं से ज्यादा राष्ट्रवाद के अपने एजेंडे पर भरोसा रहा. तब भी जब वो लगातार तीन चुनावों में उसका नुकसान देख चुकी थी. महाराष्ट्र-हरियाणा में धारा 370 और झारखंड चुनाव में 'राम मंदिर' और 'नागरिकता संशोधन कानून' का मुद्दा. बार बार साबित हुआ कि बीजेपी को स्थानीय मुद्दों से परहेज की कीमत चुकानी पड़ रही है. दिल्ली तो खराब प्रदर्शन या हार की लिस्ट में एक और नाम भर है.
अब इसमें तो कोई शक नहीं कि बीजेपी दिल्ली विधानसभा का चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही लड़ी. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी कैंपेन में छाये रहे, लेकिन तीनों राज्यों में सरकार होने के चलते बीजेपी के पास मुख्यमंत्री के चेहरे का संकट नहीं था. महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी को जहां कम सीटें आने से मुश्किल हुई, वहीं झारखंड में तो सत्ता ही हाथ से निकल गयी. अब बीजेपी में झारखंड के चेहरा रहे रघुवर दास को पीछे कर नये नेता पर मंथन कर रही है - और पुराने साथी बाबूलाल मरांडी भी नये समीकरणों में बेसब्री से फिट होने की कोशिश कर रहे हैं.
दिल्ली चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी सामने थे तो फील्ड में चप्पे चप्पे पर अमित शाह की मौजूदगी महसूस की जा रही थी. टीवी बहसों में सवाल उठते थे कि सबसे बड़ी पार्टी का नेता नुक्कड़ सभायें क्यों कर रहा है तो बचाव में उतरे प्रवक्ताओं का जवाब होता - अमित शाह आज भी खुद को एक बूथ लेवल वर्कर ही मानते हैं. बहुत अच्छी बात है, लेकिन बूथ लेवल पर चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर कब तक जीते जा सकते हैं - क्या स्थानीय मुद्दों की कोई अहमियत नहीं. बीजेपी ने केजरीवाल सरकार को हर मामले में नाकाम साबित करने की कोशिश की थी, लेकिन मैनिफेस्टो में मुद्दों को नकार नहीं पायी.
क्या मनोज तिवारी का हार की जिम्मेदारी लेना - भविष्य सुरक्षित करना है?
अब अगर प्रधानमंत्री मोदी ही दिल्ली चुनाव में बीजेपी का चेहरा थे, अमित शाह फ्रंटफुट पर बल्लेबाजी कर रहे थे, प्रवेश वर्मा अपनी बयानबाजी से फायरब्रांड नेताओं की फेहरिस्त में ऊपर नजर आ ने लगे थे - तो मनोज तिवारी भला किस बात की जिम्मेदारी ले रहे हैं?
अपना ट्वीट संभाल कर रखने के लिए या फिर अरविंद केजरीवाल के मंदिर दर्शन को अशुद्धि से जोड़ने के लिए? या फिर 'दिल्ली के पसंद बाड़े रिंकिया के पापा...' वाले रीमिक्स तैयार करने के लिए?
2015 में भी बीजेपी के पास दिल्ली में नेता की कमी महसूस की गयी और किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश किया गया. नतीजे में हार ही मिली. ठीक उससे पहले 2013 के चुनाव में हर्षवर्धन के नेतृत्व में बीजेपी दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन 2015 तक हर्षवर्धन हाशिये पर भेज दिये गये - और वैसा ही हाल विजय गोयल का भी हुआ. मनोज तिवारी ने सबको पछाड़ कर दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी हासिल करने में कामयाब रहे.
सवाल ये है कि आखिर मनोज तिवारी ने हार की जिम्मेदारी लेने में इतनी जल्दबाजी क्यों दिखायी?
2018 में तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी के सत्ता गंवाने पर नितिन गडकरी ने पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाया था. नितिन गडकरी का कहना रहा, 'सफलता का श्रेय सभी लेते हैं असलफलता का कोई पिता नहीं होता.' ठीक वैसे ही 2015 में मार्गदर्शक मंडल से बीजेपी की हार पर सवाल किये गये थे.
क्या मनोज तिवारी के आगे बढ़ कर हार की जिम्मेदारी लेने की जल्दबाजी की यही वजह हो सकती है?
क्या मनोज तिवारी ने कुर्सी पर खतरे को भांप लिया है?
क्या मनोज तिवारी दिल्ली में अपने वर्चस्व पर खतरा महसूस करने लगे हैं? क्या मनोज तिवारी का ये बयान सिर्फ तात्कालिक तौर पर है, या इसमें उनके भविष्य का भी कोई संकेत समझा जा सकता है? आगे बढ़ कर हार की जिम्मेदारी लेने में मनोज तिवारी की जल्दबाजी ही ऐसे सवालों को जन्म दे रही है.
दिल्ली चुनाव में बीजेपी के पूरे कैंपेन में बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा कदम कदम पर मनोज तिवारी को टक्कर देते दिखे. आखिरी दौर में संसद में डॉक्टर हर्षवर्धन ने भी खुद को रेस में खड़ा करने का उपाय खोज लिया था - क्या मनोज तिवारी को अपनी कुर्सी पर ऐसे नेताओं से खतरा महसूस होने लगा है?
नैतिक तौर पर या फिर किसी और खास वजह से मनोज तिवारी अगर बीजेपी के हिस्से में आये नतीजों की जिम्मेदारी लेते हैं तो पार्टी का वोट शेयर बढ़ने का श्रेय भी उन्हीं के खाते में जाएगा. 2015 में बीजेपी को 32 फीसदी वोट मिले थे और इस बार ये 39 फीसदी होने का अनुमान है, फिर तो 7 फीसदी वोट शेयर बढ़ाने की जिम्मेदारी भी मनोज तिवारी ले ही सकते हैं.
2015 में जब किरण बेदी ने भगवा धारण किया तो मनोज तिवारी का कहना रहा कि पार्टी को दारोगा नहीं, नेता की जरूरत है. बाद में बवाल मचा तो वही 'तोड़-मरोड़' वाला बहाना बनाकर बचाव किया.
अब अगर बीजेपी को 2015 के मुकाबले ज्यादा सीटें मिलती हैं तो मनोज तिवारी को ही क्रेडिट मिलेगा. 2015 में बीजेपी को महज तीन सीटें मिली थी और 2020 में तो इसमें कई गुणा इजाफा महसूस किया जा रहा है.
सबसे बड़ी बात, मनोज तिवारी पूरे फख्र के साथ ये भी तो कह ही सकते हैं - दिल्ली को लगातार कांग्रेस मुक्त बनाये रखा है. पहले MCD चुनाव में, फिर आम चुनाव में और अब विधानसभा चुनाव में भी. है कि नहीं?
मनोज तिवारी की पूरी जमा-पूंजी यूपी-बिहार से आकर दिल्ली में बसे पूर्वांचली वोटर रहे हैं. दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष की कुर्सी भी मनोज तिवारी को उनकी इसी खासियत के नाते और बूते मिल पायी है - लेकिन अगर मनोज तिवारी वे वोट भी नहीं दिला पाते हैं तो किस बात के नेता हुए? मनोज तिवारी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है.
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