दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सबको हैरान किया है. सबसे ज्यादा हैरानी में भाजपा है, क्योंकि उसने इस चुनाव को जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. 23 दिनों में भाजपा के करीब 100 बड़े नेताओं ने प्रचार किया. मोदी-शाह ने तो प्रचार किया ही, दिल्ली चुनाव में 6 मुख्यमंत्री, 3 पूर्व मुख्यमंत्री, 9 केंद्रीय मंत्रियों ने भी लोगों को लुभाने की कोशिश की. लेकिन अंत में मिली हार, वो भी शर्मनाक. अब कांग्रेस की ओर से इस बात की खुशी जताई जा रही है कि भाजपा हार गई, ये नहीं देख रहे कि वह खुद खाता तक नहीं खोल सके. ये हार भाजपा के लिए बेशक शर्मनाक है, लेकिन कांग्रेस के लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसी है. दो लोकसभा चुनाव और दो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई. जबकि उससे पहले इसी कांग्रेस ने 15 साल तक किसी पार्टी को दिल्ली की सत्ता के आस-पास भी फटकने नहीं दिया था. भाजपा का क्या है, दिल्ली के नाम पर तो उसकी किस्मत हमेशा से ही खराब रही है. पहले तीन बार कांग्रेस ने हराया और फिर अब तीन बार आम आदमी पार्टी के हाथों हार झेलनी पड़ी.
पहला चुनाव जीती भाजपा, लेकिन सब आपस में लड़ते रहे
दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव 1993 में हुआ था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने 70 में से 49 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस के हिस्से में 14 सीटें आई थीं और जनता दल ने 4 सीटें जीती थीं. दिल्ली की जनता ने उस समय कांग्रेस और भाजपा में चुनाव किया और दिल्ली की सत्ता भाजपा को सौंप दी, लेकिन भाजपा ने उनके साथ क्या किया ! 5 साल के इस कार्यकाल में दिल्ली ने 3 मुख्यमंत्री देखे. पहले मदन लाल खुराना आए, फिर साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया और अंत...
दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सबको हैरान किया है. सबसे ज्यादा हैरानी में भाजपा है, क्योंकि उसने इस चुनाव को जीतने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. 23 दिनों में भाजपा के करीब 100 बड़े नेताओं ने प्रचार किया. मोदी-शाह ने तो प्रचार किया ही, दिल्ली चुनाव में 6 मुख्यमंत्री, 3 पूर्व मुख्यमंत्री, 9 केंद्रीय मंत्रियों ने भी लोगों को लुभाने की कोशिश की. लेकिन अंत में मिली हार, वो भी शर्मनाक. अब कांग्रेस की ओर से इस बात की खुशी जताई जा रही है कि भाजपा हार गई, ये नहीं देख रहे कि वह खुद खाता तक नहीं खोल सके. ये हार भाजपा के लिए बेशक शर्मनाक है, लेकिन कांग्रेस के लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने जैसी है. दो लोकसभा चुनाव और दो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई. जबकि उससे पहले इसी कांग्रेस ने 15 साल तक किसी पार्टी को दिल्ली की सत्ता के आस-पास भी फटकने नहीं दिया था. भाजपा का क्या है, दिल्ली के नाम पर तो उसकी किस्मत हमेशा से ही खराब रही है. पहले तीन बार कांग्रेस ने हराया और फिर अब तीन बार आम आदमी पार्टी के हाथों हार झेलनी पड़ी.
पहला चुनाव जीती भाजपा, लेकिन सब आपस में लड़ते रहे
दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव 1993 में हुआ था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने 70 में से 49 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस के हिस्से में 14 सीटें आई थीं और जनता दल ने 4 सीटें जीती थीं. दिल्ली की जनता ने उस समय कांग्रेस और भाजपा में चुनाव किया और दिल्ली की सत्ता भाजपा को सौंप दी, लेकिन भाजपा ने उनके साथ क्या किया ! 5 साल के इस कार्यकाल में दिल्ली ने 3 मुख्यमंत्री देखे. पहले मदन लाल खुराना आए, फिर साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया और अंत में सुषमा स्वराज भी कुछ समय दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं. जिस दिल्ली ने पहली बार वोट किया, उसका इतना बुरा अनुभव ही कांग्रेस के सत्ता सुख पाने का जरिया बना.
कांग्रेस ने लगातार 3 बार भाजपा को हराया
1998 में जब दिल्ली विधानसभा का दूसरा चुनाव हुआ तो जनता ने अपने पुराने अनुभव से सबक लेते हुए दिल्ली की सत्ता कांग्रेस के हाथ सौंप दी. शीला दीक्षित को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया. इसके बाद शीला दीक्षित ने एक के बाद एक 3 बार जीत हासिल की. कांग्रेस ने लगातार 3 बार भाजपा को हराया. चाह कर भी भाजपा दिल्ली की सत्ता में वापसी नहीं कर पाई. इस तरह भाजपा की कांग्रेस से हार की हैट्रिक लगी.
आप से हारने में भी भाजपा की हैट्रिक
2013 में जब फिर से विधानसभा चुनाव हुए तो भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सकी. भाजपा की सत्ता की राह में रोड़ा बने अरविंद केजरीवाल. उन्होंने 2013 में ही राजनीति में एंट्री मारी. जन लोकपाल आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने की पार्टी आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार बनाई, लेकिन केजरीवाल ने महज 49 दिनों में ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही जन लोकपाल बिल की राह में रोड़ा बन रहे हैं. इसके बाद 2015 में फिर से चुनाव हुए और केजरीवाल को एकतरफा जीत मिली. कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई और भाजपा को भी महज 3 सीटें मिलीं. उस समय ये जीत बहुत ही बड़ी थी, क्योंकि तब मोदी लहर थी और केंद्र में मोदी प्रचंड बहुत से जीते थे. इस बार भी मोदी लहर थी, लेकिन एक बार फिर दिल्ली की जनता ने भाजपा को दिल्ली की सत्ता के लिए नाकाबिल माना.
भाजपा के लिए दिल्ली 'दीपक तले अंधेरा' जैसी
एक ओर मोदी शाह की जोड़ी, जो 2014 के बाद से ही एक के बाद एक चुनाव जीतती गई. एक वक्त तो ऐसा आ गया कि भारत का नक्शा लगभग भगवा ही दिखने लगा. यूं लगा मानो कुछ ही सालों में भाजपा का कांग्रेस मुक्त देश का सपना पूरा हो जाएगा. मोदी ने 2 लोकसभा चुनाव प्रचंड बहुमत से जीते, लेकिन दिल्ली चुनाव हार गए. पिछली बार तो दिल्ली में भाजपा ने सीएम पद के लिए किरन बेदी को उतारा था, लेकिन इस बार तो चुनाव पीएम मोदी के ही चेहरे पर लड़ा गया, फिर भी दिल्ली ने केजरीवाल को ही अपना नेता चुना. जो भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी पूरे देश में कमाल पर कमाल कर रही है, वह राजधानी दिल्ली में बेबस सी नजर आती है. जबकि दिल्ली ही वो जगह है, जहां पूरा केंद्र बैठता है यानी अपना अधिकतर समय वे लोग दिल्ली में ही बिताते हैं. दिल्ली की पुलिस भी केंद्र के पास है. इन सब के बावजूद बार-बार दिल्ली में भाजपा का हारना दीपक तले अंधेरा जैसा ही है. इस बार भाजपा दिल्ली में लगातार अपना छठा चुनाव हारी है.
क्यों बार-बार हार रही है भाजपा?
जब दिल्ली में भाजपा को बार-बार हारते देखते हैं तो पहला सवाल यही उठता है कि आखिर दिल्ली में भाजपा बार-बार क्यों हार रही है? इसकी वजह है भाजपा नेताओं का आपसी झगड़ा. जी हां, जिस अमित शाह ने पूरे देश में अपनी पार्टी के सभी नेताओं को अच्छे से मैनेज किया हुआ है, वह दिल्ली में नेताओं का मैनेजमेंट सही से नहीं कर पा रहे हैं. अगर इस बार के चुनाव को ही देखें तो पता चलता है कि विजय गोयल को मनोज तिवारी पसंद नहीं आते और विजय गोयल-हर्षवर्धन में भी पटरी नहीं खाती. इससे भी बड़ी बात है कि इसका कोई इलाज भी नहीं है, अगर होता तो इस बार भाजपा ने उसे लागू कर ही लिया होता. सख्त फैसलों के लिए जानी जाने वाली मोदी सरकार दिल्ली में अपने ही नेताओं को लेकर कोई सख्त फैसला नहीं ले पा रही है. इतनी हिम्मत नहीं दिखा पा रही है कि किसी एक शख्स को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर सके. वरना सोचिए, पिछली बार की शर्मनाक हार को 5 साल हो गए हैं और 5 साल में भी भाजपा को कोई ऐसा चेहरा नहीं मिला, जिसे वह मुख्यमंत्री कहकर प्रोजेक्ट कर सकें. मनोज तिवारी को दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिया, लेकिन मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी भी काबीलियत पर शक है, तभी तो भाजपा की इतनी हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें मुख्यमंत्री का चेहरा बता सके. शर्मिदंगी भरी हार के इस सिलसिले को रोकने का अब बस यही तरीका है कि भाजपा यानी मोदी सरकार एक सख्त फैसला ले और दिल्ली में अपने नेताओं के बीच का मन मुटाव दूर करते हुए दिल्ली की बागडोर किसी काबिल हाथों में सौंप दे. वरना अभी तो केजरीवाल ने हैट्रिक लगाई है, कहीं अगली बार चौक्का ना मार दें.
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