दिल्ली के चुनाव (Delhi Assembly Election) आज देश का सबसे चर्चित मुद्दा है. इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य कहें या लोकतंत्र का, कि चुनाव दर चुनाव राजनैतिक दलों द्वारा वोट हासिल करने के लिए वोटरों (Voters) को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देना तो जैसे चुनाव प्रचार का एक आवश्यक हिस्सा बन गया है. कुछ समय पहले तक चुनावों (Elelctions) के दौरान चोरी छुपे शराब और साड़ी अथवा कंबल जैसी वस्तुओं के दम पर अपने पक्ष में मतदान करवाने की दबी छुपी सी अपुष्ट खबरें सामने आती थीं लेकिन अब तो राजनीतिक दल खुल कर अपने संकल्प पत्रों में ही डंके की चोट पर इस काम को अंजाम दे रहे हैं. मुफ्त बिजली पानी की घोषणा के बल पर पिछले विधानसभा चुनावों में अपनी बम्पर जीत से उत्साहित आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) अपने उसी पुराने फॉर्मूले को इस बार फिर दोहरा रही है. मध्यप्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस (Congress) के कर्जमाफी की घोषणा के कारण सत्ता से बाहर हुई बीजेपी (BJP) भी इस बार कोई खतरा नहीं लेना चाहती. शायद इसलिए हर बार विकास की बात करने वाली भाजपा भी इस बार मुफ्त के नाम पर वोट मांगने की होड़ में शामिल हो गई है.
मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त स्कूटी, जैसी अनेक घोषणाओं के साथ साथ वो शाहीन बाग़ को भी मुद्दा बनाकर राष्ट्रवाद के साथ दिल्ली की जनता के सामने है. नतीजन जो चुनाव पहले लगभग एकतरफा दिख रहा था वो अब कांटे की टक्कर बनता जा रहा है. जो केजरीवाल चुनाव प्रचार के शुरुआत में अपने काम के आधार पर वोट मांगते हुए अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिखाई दे रहे थे उन्हें आज भाजपा ने अपनी पिच पर खेलने के लिए विवश कर दिया है. पांच साल तक...
दिल्ली के चुनाव (Delhi Assembly Election) आज देश का सबसे चर्चित मुद्दा है. इसे भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य कहें या लोकतंत्र का, कि चुनाव दर चुनाव राजनैतिक दलों द्वारा वोट हासिल करने के लिए वोटरों (Voters) को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देना तो जैसे चुनाव प्रचार का एक आवश्यक हिस्सा बन गया है. कुछ समय पहले तक चुनावों (Elelctions) के दौरान चोरी छुपे शराब और साड़ी अथवा कंबल जैसी वस्तुओं के दम पर अपने पक्ष में मतदान करवाने की दबी छुपी सी अपुष्ट खबरें सामने आती थीं लेकिन अब तो राजनीतिक दल खुल कर अपने संकल्प पत्रों में ही डंके की चोट पर इस काम को अंजाम दे रहे हैं. मुफ्त बिजली पानी की घोषणा के बल पर पिछले विधानसभा चुनावों में अपनी बम्पर जीत से उत्साहित आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) अपने उसी पुराने फॉर्मूले को इस बार फिर दोहरा रही है. मध्यप्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस (Congress) के कर्जमाफी की घोषणा के कारण सत्ता से बाहर हुई बीजेपी (BJP) भी इस बार कोई खतरा नहीं लेना चाहती. शायद इसलिए हर बार विकास की बात करने वाली भाजपा भी इस बार मुफ्त के नाम पर वोट मांगने की होड़ में शामिल हो गई है.
मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त स्कूटी, जैसी अनेक घोषणाओं के साथ साथ वो शाहीन बाग़ को भी मुद्दा बनाकर राष्ट्रवाद के साथ दिल्ली की जनता के सामने है. नतीजन जो चुनाव पहले लगभग एकतरफा दिख रहा था वो अब कांटे की टक्कर बनता जा रहा है. जो केजरीवाल चुनाव प्रचार के शुरुआत में अपने काम के आधार पर वोट मांगते हुए अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिखाई दे रहे थे उन्हें आज भाजपा ने अपनी पिच पर खेलने के लिए विवश कर दिया है. पांच साल तक मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले केजरीवाल आज हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे हैं.
इससे पहले सालों से वोट बैंक की राजनीति करने वाली कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को भी यह देश चुनावों के दौरान अपने जनेऊ का प्रदर्शन करता देख चुका है. राहुल गांधी से याद आया कि दिल्ली के इस दंगल में कांग्रेस कहीं दिखाई ही नहीं दे रही? यह कांग्रेस की हताशा है या फिर उसकी सुनियोजित रणनीति का हिस्सा? क्योंकि वो दिल्ली जो कांग्रेस का मजबूत गढ़ रही है अगर उस दिल्ली के चुनावों में चुनाव से महज चार दिन पहले राहुल गांधी अपनी पहली चुनावी रैली करते हैं तो इससे कांग्रेस क्या संदेश देना चाह रही है? यह कि दिल्ली उसके लिए महत्वपूर्ण नहीं है, या फिर यह कि वो दिल्ली में चुनाव से पहले ही अपनी हार स्वीकार कर चुकी है?
आखिर क्यों जिस दिल्ली में 1998 से 2013 तक पंद्रह वर्षों तक कांग्रेस ने शासन किया उस दिल्ली के पूरे चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस का कोई बड़ा चेहरा दिखाई नहीं दिया. यह भी अचरज का विषय है कि दिल्ली के चुनावों के लिए कांग्रेस के नेताओं के पास समय नही है लेकिन शाहीन बाग़ के धरने में भाषण देने के लिए कांग्रेस में नेताओं की कमी नहीं है. आश्चर्य इस बात का भी है कि कांग्रेस के इस आचरण से मतदाताओं के मन में कांग्रेस की कैसी छवि बन रही है कांग्रेस के नेताओं को शायद इस बात की भी परवाह नहीं है.
यह खेद का विषय है कि देश पर सत्तर सालों तक राज करने वाला एक राष्ट्रीय दल पिछली दो बार से लोकसभा चुनावों में एक मजबूत विपक्ष होने के लायक पर्याप्त संख्या बल भी नहीं जुटा पाया और अब वो दिल्ली विधानसभा चुनावों में सत्ता तो दूर की बात है, वहां भी विपक्ष के नाते अपना वजूद तक नहीं तलाश पा रहा.
लेकिन इन सभी बातों से परे अगर कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी जो कि देश की सबसे पुरानी पार्टी भी है, वो अगर किसी रणनीति के तहत दिल्ली के चुनावों को केवल रस्म अदायगी के लिए लड़ रही है और चुनाव प्रचार से उसी रणनीति के तहत "गायब" है तो यह वाकई में दुर्भाग्यपूर्ण है. अगर कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी से अघोषित गठबंधन कर लिया है और केवल भाजपा को नुकसान पहुंचाने की नीयत से दिल्ली के चुनाव को आम आदमी पार्टी और बीजेपी की आमने सामने की लड़ाई बना रही है तो निश्चित ही अब समय आ गया है कि अब कांग्रेस को अगर अपना अस्तित्व बचाना है तो अपने लिए ऐसे नए सलाहकार खोजने होंगे जो सकारात्मक सोचें आत्मघाती नहीं.
वैसे तो कांग्रेस के रणनीतिकारों की सकारत्मकता का कोई जवाब नहीं है जो गुजरात के विधानसभा चुनावों में लगातार चौथी बार भाजपा से पराजित होने में भी अपनी जीत का जश्न मनाते हों या फिर कर्नाटक में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए अपने से कम सीटें जीतने वाले दल का मुख्यमंत्री बनाने पर राजी हो जाते हैं या महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे विरोधी विचारधारा वाली पार्टी के साथ सरकार बना लेते हैं.
स्पष्ट है कि आज की कांग्रेस के लिए अपनी सत्ता से अधिक महत्वपूर्ण है भाजपा को सत्ता से दूर रखना. शायद इसलिए आज वो किसी विचारधारा पर चलने वाली पार्टी ना होकर येन केन प्रकारेण एक लक्ष्य को हासिल करने वाली पार्टी बनकर रह गई है. इसे क्या कहा जाए कि गांधी और नेहरू की विरासत के साथ आगे बढ़ते हुए जो दल आज एक घना विशालकाय वृक्ष बन सकता था आज परजीवी बन कर रह गया है.
यह देखना दुखद है कि भाजपा की हार में अपनी जीत तलाशते तलाशते आज कांग्रेस उस मोड़ पर आ गयी है जहां वो दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की जीत में अपनी सफलता तलाश रही है.अब यह सोच आत्मघाती कहें या समझदारी यह कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का विषय होना चाहिए. लेकिन समस्या यह है कि देश तो अभी भी कांग्रेस की ओर उम्मीद से देख रहा है लेकिन लगता है कि कांग्रेस खुद ही अपने से सभी उम्मीदें छोड़ चुकी है.
ये भी पढ़ें -
Delhi Election 2020 में BJP के कुछ संयोग और अनूठे प्रयोग
Delhi election में सत्ता की चाबी पूर्वांचलियों के हाथ
Shaheen Bagh वाली विधानसभा सीट से कौन जीतेगा?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.