मायावती (Mayawati) और प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) यूपी के प्री पोल सर्वे में अब तक आगे पीछे ही खड़ी दिखायी पड़ी हैं. अब तक ज्यादातर सर्वे में बीएसपी को कांग्रेस से थोड़े बेहतर पोजीशन में पाया गया है.
यूपी चुनाव 2022 (P Election 2022) को लेकर आये ज्यादातर सर्वे यही बता रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ के दम पर बीजेपी के सत्ता में वापसी के पूरे चांस हैं. अखिलेश यादव बीजेपी को चैलेंज कर समाजवादी पार्टी को बेहतर स्थिति में ला सकते हैं - और बीएसपी, कांग्रेस क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर ही रहने वाले हैं.
सर्वे की बात और है. ऐसे सर्वे अक्सर गलत भी साबित होते हैं - और कई बार सवालों के घेरे में भी रहे हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए ये देखना जरूरी हो जाता है कि फील्ड का फीडबैक क्या आ रहा है?
सर्वे में भले ही योगी आदित्यनाथ सत्ता में वापसी करते लगते हों, लेकिन जिस तरीके से बीजेपी नेता अमित शाह यूपी विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं - और प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े हैं या यूपी बीजेपी के बड़े नेताओं को भी चुनाव मैदान में उतारने की खबरें आ रही हैं - लगता तो नहीं कि बीजेपी को भी ऐसे सर्वे पर कोई भरोसा रह गया है.
मायावती तो ऐसे चुनाव पूर्व कराये जाने वाले सर्वे पर पाबंदी लगाने की ही मांग कर रही हैं, फिर भी बीएसपी नेता घर बैठे भरोसे की वजह समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. बीएसपी ने 2007 के अपने सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट पर फिर से भरोसा जताते हुए बगैर किसी राजनीतिक दल के साथ कोई गठबंधन किये चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है.
और अब तो प्रियंका गांधी वाड्रा भी ऐलान कर चुकी हैं कि कांग्रेस यूपी विधानसभा का चुनाव अकेले अपने बूते ही लड़ेगी. पहले कांग्रेस के समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के कयास लगाये जा रहे थे. ऐसे कयास लगाने की वजह भी प्रियंका गांधी का चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर बयान ही आधार बना था - और फिर अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के...
मायावती (Mayawati) और प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) यूपी के प्री पोल सर्वे में अब तक आगे पीछे ही खड़ी दिखायी पड़ी हैं. अब तक ज्यादातर सर्वे में बीएसपी को कांग्रेस से थोड़े बेहतर पोजीशन में पाया गया है.
यूपी चुनाव 2022 (P Election 2022) को लेकर आये ज्यादातर सर्वे यही बता रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ के दम पर बीजेपी के सत्ता में वापसी के पूरे चांस हैं. अखिलेश यादव बीजेपी को चैलेंज कर समाजवादी पार्टी को बेहतर स्थिति में ला सकते हैं - और बीएसपी, कांग्रेस क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर ही रहने वाले हैं.
सर्वे की बात और है. ऐसे सर्वे अक्सर गलत भी साबित होते हैं - और कई बार सवालों के घेरे में भी रहे हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों के लिए ये देखना जरूरी हो जाता है कि फील्ड का फीडबैक क्या आ रहा है?
सर्वे में भले ही योगी आदित्यनाथ सत्ता में वापसी करते लगते हों, लेकिन जिस तरीके से बीजेपी नेता अमित शाह यूपी विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं - और प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े हैं या यूपी बीजेपी के बड़े नेताओं को भी चुनाव मैदान में उतारने की खबरें आ रही हैं - लगता तो नहीं कि बीजेपी को भी ऐसे सर्वे पर कोई भरोसा रह गया है.
मायावती तो ऐसे चुनाव पूर्व कराये जाने वाले सर्वे पर पाबंदी लगाने की ही मांग कर रही हैं, फिर भी बीएसपी नेता घर बैठे भरोसे की वजह समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. बीएसपी ने 2007 के अपने सोशल इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेंट पर फिर से भरोसा जताते हुए बगैर किसी राजनीतिक दल के साथ कोई गठबंधन किये चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है.
और अब तो प्रियंका गांधी वाड्रा भी ऐलान कर चुकी हैं कि कांग्रेस यूपी विधानसभा का चुनाव अकेले अपने बूते ही लड़ेगी. पहले कांग्रेस के समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के कयास लगाये जा रहे थे. ऐसे कयास लगाने की वजह भी प्रियंका गांधी का चुनाव पूर्व गठबंधन को लेकर बयान ही आधार बना था - और फिर अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के साथ हुई आकस्मिक मुलाकातों ने भरपूर हवा भी दी थी, लेकिन अंतिम नतीजे तो यही निकले कि कहीं कोई बात नहीं बन सकी.
सोशल इंजीनियरिंग या सोशल मीडिया पॉलिटिक्स
कोरोना के दूसरी लहर की तबाही थमने के काफी दिनों बाद तक अखिलेश यादव और मायावती की राजनीति की चर्चा वर्क फ्रॉम होम पॉलिटिक्स के तौर पर होती रही. फिर अखिलेश यादव से मुलाकात करने वालों की तस्वीरें शेयर की जाने लगीं, लेकिन मायावती के मामले में तो ऐसा कुछ भी नहीं देखने को मिला.
2022 के विधानसभा चुनाव की तारीख नजदीक आते देख अखिलेश यादव छोटी छोटी यात्राएं शुरू किये - और बाद में तो विजय यात्रा पर ही निकल गये. बीएसपी की तरफ से ब्राह्मण सम्मेलन शुरू किये गये लेकिन मंच पर सतीशचंद्र मिश्रा और उनके परिवार के लोग ही नजर आते रहे - मायावती आयीं भी तो समापन के मौके पर. हां, सोशल मीडिया पर मायावती जरूर सक्रिय देखी गयीं.
1. मायावती एक्टिव तो हैं, लेकिन कहां: यूपी में जब बीएसपी की सरकार हुआ करती थी तो कांशीराम जयंती और पुण्यतिथि के साथ साथ अंबेडकर की याद में भी कार्यक्रम हुआ करते थे, हालांकि सबसे बड़ा आयोजन मायावती का बर्थडे सेलीब्रेशन होता रहा. अब तो लगता है जैसे रस्मअदायगी होती है - और चुनावों के वक्त की छोड़ दें तो मायावती ज्यादातर ट्विटर पर एक्टिव रहती हैं और कभी कभी ज्यादा जरूरी लगता है तो प्रेस कांफ्रेंस करती हैं.
ऐसे ही एक प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने बीएसपी शासन की उपलब्धियां गिनाई है. उपलब्धियों को प्रचारित करने के लिए मायावती ने एक बुकलेट जारी किया है. मायावती का आरोप है कि समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की सरकारों ने उनके कार्यकाल में किये गये कामों का रूप बदलकर पेश कर दिया है और क्रेडिट लूट रहे हैं.
बुकलेट में शामिल बीएसपी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि मुख्यमंत्री आवास से बीएसपी सांसद उमाकांत यादव की पुलिस बुलाकर गिरफ्तारी बतायी गयी है. साथ ही, मायावती सरकार के दौरान कानून का राज स्थापित किये जाने, सूबे को दंगामुक्त रखने, किसानों को सही कीमत देने और शिक्षण संस्थान खोले जाने का जिक्र है. लेकिन उस दौरान बनाये गये पार्कों और मूर्तियों का कोई जिक्र नहीं है. वैसे भी मायावती कह चुकी हैं कि आगे से वो ऐसा नहीं करने वाली हैं, मूर्ति के नाम पर अब वो सिर्फ परशुराम की लगवाएंगी क्योंकि उसके बगैर दलित-ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंक तो पूरा होने से रहा.
2. ब्राह्मण सम्मेलन का समापन खुद किया: मायावती से काफी सोच समझ कर अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलन शुरू कराया लेकिन खुद नहीं गयीं. हर जगह बीएसपी महासचिव सतीशचंद्र मिश्र और कहीं कहीं उनके परिवार के लोग मंच पर देखे गये.
मायावती नजर आयीं तो सिर्फ ब्राह्मण सम्मेलन के समापन के मौके पर लखनऊ में. उसके बाद से फिर से घर बैठ गयीं. वैसे भी 2016 में रोहित वेमुला के आत्महत्या कर लेने के बाद संसद में और फिर 2017 में हुई हिंसा के बाद सहारनपुर दौरे के बाद मायावती को ऐसे किसी मौके पर नहीं देखा गया - चुनावी रैलियों या उसके आगे पीछे की बातें छोड़ दें तो.
प्रियंका प्रयागराज भी गयीं, लेकिन मायावती नहीं
मायावती की राजनीति में ये फर्क जरूर आया है कि वो खुद तो मीडिया से बात करने लगी हैं और सवालों के जवाब भी देती हैं. पहले या तो प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर बयान पढ़ कर उठ कर चल देती रहीं या फिर न्यूज एजेंसी को बुला कर बयान बांच देती रहीं - एक खास बात और है कि बीएसपी के प्रवक्ता टीवी बहसों में पार्टी का पक्ष रखने लगे हैं और पहले की तरह ये सब सिर्फ सतीशचंद्र मिश्रा तक ही सिमटा हुआ नहीं है.
लेकिन चुनावों को छोड़ कर मायावती फील्ड में क्यों नहीं नजर आतीं. प्रयागराज में एक दलित परिवार के चार लोगों की हत्या के बाद प्रियंका गांधी वाड्रा जहां पीड़ित परिवार के पास पहुंच जाती हैं, मायावती सिर्फ ट्विटर पर ये दावा करती हैं कि घटना के बाद सबसे पहले बीएसपी का प्रतिनिधिमंडल पहुंचा था.
क्या मायावती को ये लग रहा है कि ये सब करने से वोट नहीं मिलने वाला. अगर बीएसपी का वोटर नाराज नहीं हुआ तो वो हर हाल में वोट देगा ही - क्या मायावती लगातार चुनावी हार के बावजूद इसी सोच पर कायम हैं?
क्या मायावती को नहीं लगता कि अगर वो दलितों के बीच पहुंचेंगी तो कोई फर्क पड़ने वाला है? लेकिन प्रियंका गांधी तो सोनभद्र के उभ्भा गांव भी गयी हैं, हाथरस भी गयी हैं, आगरा में हिरासत में मौत के शिकार पीड़ित दलित परिवार से भी मिलने गयी हैं. हालांकि, इतने सब के बावजूद कांग्रेस सर्वे में बीएसपी से पिछड़ी हुई नजर आती है.
अब तक दर्जन भर बीएसपी विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं. राम अचल राजभर अखिलेश यादव के साथ जा चुके हैं. पांच साल पहले सुधरने का मौका देने के नाम पर बीएसपी से जोड़े गये मुख्तार अंसारी को पहले ही टिकट न देने का फैसला हो चुका है. अभी अभी आजमगढ़ के सिगड़ी से बीएसपी विधायक वंदना सिंह बीजेपी की हो गयी हैं. वंदना सिंह को भी बीएसपी छोड़ने की आशंका में बाकी नेताओं की तरह बर्खास्त कर दिया गया था. रामअचल राजभर और लालजी वर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ - और गुड्डू जमाली को लेकर भी बीएसपी की तरफ से बताया गया है कि किसी लड़की के उन पर आरोप लगाने की वजह से गुड्डू जमाली ने इस्तीफा दिया है.
आखिर मायावती के घर बैठे मुख्यमंत्री बन जाने के भरोसे की पीछे क्या वजह हो सकती है - या फिर किसी और खास वजह से मायावती टाइमपास पॉलिटिक्स करने लगी हैं?
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