लोकतंत्र दूल्हा-दुल्हन की तरह होता है. चाहता है उसकी बारात में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी हो. लोकतंत्र प्रसूता की तरह भी होता है जो चाहती है उसकी संतान पूरे नौ महीने बाद तंदुरुस्त पैदा हो. ऐसे ही लोकतंत्र की ख्वाहिश होती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता खंडित जनाधार ना दें बल्कि बहुमत के साथ किसी पर भी विश्वास जताए. खंडित जनादेश से टूटी-फूटी, जोड़-तोड़ वाली कमजोर सरकार बनती है जो कभी भी अल्पमत में आकर गिर जाती है. समय से पूर्व दुबारा चुनाव होना पड़ते हैं. देश का आर्थिक नुकसान होता है. मंहगाई बढ़ती है और गरीब और आम जनता को ये सब झेलना पड़ता है. जैसे नौ महीने के बजाये सात-आठ महीने मे ही पैदा होने वाला संत्वासा बच्चा कमजोर और अस्वस्थ होता है. उसके जीवन का कोई कोई भरोसा नहीं होता.
दुर्भाग्य है कि इस चुनावी उत्सव में राजनीतिक दलों के हालात ठीक नहीं लग रहे हैं. किसी को हराने के लिए टुकड़ों टुकड़ों की टोलियां मिल कर चुनाव जीतने की कोशिश मे हैं. आश्चर्य ये है कि सत्तारूढ़ शक्तियों के विरुद्ध एक होकर सरकार बनाने की मंशा रखने वाले विरोधी से ज्यादा आपस में तकरार ज्यादा कर रहे हैं.
यही नहीं इस बार चुनाव में अजब माजरे नजर आ रहे हैं. किसी भी नेता या पार्टी में अनुशासन नाम की चीज नजर नहीं आ रही है. जल्द ही भाजपा से बगावत करके कांग्रेस का दामन थामने वाले शत्रुघ्न सिंहा कह रहे हैं कि अखिलेश यादव या मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए उपयुक्त हैं. जबकि सपा अध्यक्ष कह रहे हैं कि कांग्रेस सबसे बड़ी धोखेबाज पार्टी है. बसपा भी कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगा रही है. शत्रुघ्न खुद कांगेस के प्रत्याशी हैं लेकिन सपा-बसपा गठबंधन प्रत्याशी अपनी पत्नी पूनम सिन्हा का कांग्रेस के खिचाफ लखनऊ में प्रचार कर रहे हैं.
लोकतंत्र दूल्हा-दुल्हन की तरह होता है. चाहता है उसकी बारात में ज्यादा से ज्यादा लोगों की भागीदारी हो. लोकतंत्र प्रसूता की तरह भी होता है जो चाहती है उसकी संतान पूरे नौ महीने बाद तंदुरुस्त पैदा हो. ऐसे ही लोकतंत्र की ख्वाहिश होती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता खंडित जनाधार ना दें बल्कि बहुमत के साथ किसी पर भी विश्वास जताए. खंडित जनादेश से टूटी-फूटी, जोड़-तोड़ वाली कमजोर सरकार बनती है जो कभी भी अल्पमत में आकर गिर जाती है. समय से पूर्व दुबारा चुनाव होना पड़ते हैं. देश का आर्थिक नुकसान होता है. मंहगाई बढ़ती है और गरीब और आम जनता को ये सब झेलना पड़ता है. जैसे नौ महीने के बजाये सात-आठ महीने मे ही पैदा होने वाला संत्वासा बच्चा कमजोर और अस्वस्थ होता है. उसके जीवन का कोई कोई भरोसा नहीं होता.
दुर्भाग्य है कि इस चुनावी उत्सव में राजनीतिक दलों के हालात ठीक नहीं लग रहे हैं. किसी को हराने के लिए टुकड़ों टुकड़ों की टोलियां मिल कर चुनाव जीतने की कोशिश मे हैं. आश्चर्य ये है कि सत्तारूढ़ शक्तियों के विरुद्ध एक होकर सरकार बनाने की मंशा रखने वाले विरोधी से ज्यादा आपस में तकरार ज्यादा कर रहे हैं.
यही नहीं इस बार चुनाव में अजब माजरे नजर आ रहे हैं. किसी भी नेता या पार्टी में अनुशासन नाम की चीज नजर नहीं आ रही है. जल्द ही भाजपा से बगावत करके कांग्रेस का दामन थामने वाले शत्रुघ्न सिंहा कह रहे हैं कि अखिलेश यादव या मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए उपयुक्त हैं. जबकि सपा अध्यक्ष कह रहे हैं कि कांग्रेस सबसे बड़ी धोखेबाज पार्टी है. बसपा भी कांग्रेस पर गंभीर आरोप लगा रही है. शत्रुघ्न खुद कांगेस के प्रत्याशी हैं लेकिन सपा-बसपा गठबंधन प्रत्याशी अपनी पत्नी पूनम सिन्हा का कांग्रेस के खिचाफ लखनऊ में प्रचार कर रहे हैं.
सपा, बसपा, रालोद गठबंधन और कांग्रेस एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ भी रहे हैं और पार्टियों के मुखिया नेताओं की चंद सीटों पर एक दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारने का समझौता भी किए हुए हैं. यही हाल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का भी है. वो कांग्रेस के खिलाफ चुनाव भी लड़ रही हैं और मोदी सरकार ना बनने के लिए कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाने का मंसूबा भी तय किए हैं.
इसी तरह भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में भी मोदी सरकार पर हमलावर रही शिवसेना भी भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है. भाजपा गठबंधन में चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश में योगी सरकार केमंत्री सुखदेव राजभर की भारतीय समाज पार्टी इस लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिचाफ चुनाव लड़ रही है.
अंदाजा लगाइए कि कोई भी गठबंधन जीत कर सरकार बनाएगा तो वो सरकार कैसी होगी? कितनी स्थिर होगी? इन तमाम दलों के नेता किस तरह मिलकर जनहित में काम कर पायेंगे? एक भी पार्टी ऐसी नहीं है जो अकेले बूते पर सभी सीटों से चुनाव लड़े. एक भी गठबंधन या पार्टी ऐसी नहीं है जिसमें कलह का ऊफान ना उठ रहा हो. लोकतंत्र की सेहत के लिए ये सब कतई बेहतर नहीं है. एक तरह कुआं है तो एक तरफ खाई.
ये भी पढ़ें -
उदित राज को रामदास अठावले से कुछ सीख लेनी चाहिए...
दिल्ली में राहुल-केजरीवाल की 'आत्मघाती' लुकाछिपी
हम बॉलीवुड कलाकारों को आदर्श की मूर्ति मानना कब बंद करेंगे
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.