महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की कुर्सी बचाने के लिए जितना हैरान-परेशान ठाकरे का परिवार और संजय राउत हैं- पार्टी में कोई और नेता नहीं दिख रहा. खैर पार्टी बची भी कहां हैं. हां, शिवसेना से बाहर ठाकरे की 'कुर्सी' बचाने के लिए एनसीपी के लगभग सभी बड़े नेता महज परेशान भर नहीं बल्कि रेस्क्यू ऑपरेशन लीड करते नजर आ रहे हैं. शरद पवार समेत एनसीपी के कई नेताओं की सक्रियता देखने लायक है. ऐसा लग रहा जैसे शिवसेना, एनसीपी का ही एक घटक दल हो और पवार साहेब उद्धव के भरोसेमंद 'राजनीतिक संरक्षक' की हैसियत में आ गए हैं.
दो दिन पहले बंद कमरे में पवार और मुख्यमंत्री ठाकरे के बीच घंटों बातचीत हुई. इस दौरान पवार ने उद्धव की तरफ से शिवसेना के गैरजिम्मेदार नेतृत्व को लेकर घुड़की भी दी. उन्होंने हैरानी जताई कि आप (उद्धव) कर क्या रहे थे? विधायक झटके में रातोंरात निकल गए, और आपको पता भी नहीं चला. किस तरह सरकार चला रहे थे आप. शिवसेना पर एनसीपी के दबदबे से तो यही लगता है कि उद्धव ने पवार को फिलहाल राजनीतिक गुरु बना लिया है. उनकी मजबूरी हो सकती है. या ऐसा भी हो कि मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी बचाए रखने के लिए उनका लालच हो. पर सवाल तो उठता ही है कि क्या इतने भर से उद्धव, भविष्य में पार्टी और उसके एजेंडा को बरकार रख पाएंगे?
सवाल यह भी है कि अगर उद्धव पार्टी के कोर एजेंडा से बाहर भी निकल जाते हैं तो क्या कांग्रेस, एनसीपी और असदुद्दीन ओवैसी की मौजूदगी में सेकुलर राजनीति करने के लिए उनके पास कोई जमीन है भी. उद्धव से एक और सवाल पूछना बनता है कि वे बार-बार ठाकरे की जिस विरासत पर नेतृत्व का दावा कर रहे हैं, एनसीपी-कांग्रेस के साथ जाने ना जाने को लेकर उनके पिता की सोच क्या गठी? असल में बागी शिवसेना काडर सोशल मीडिया पर बाल ठाकरे के कुछ पुराने वीडियो साझा कर रहा है. इसमें एनसीपी कांग्रेस संग गठबंधन को लेकर ठाकरे के विचार, उद्धव की सोच से बिल्कुल अलग हैं.
शरद पवार और उद्धव ठाकरे. (फ़ाइल फोटो)
बाल ठाकरे ने हमेशा एनसीपी-कांग्रेस के साथ राजनीतिक गठजोड़ को क्यों खारिज किया?
सीनियर ठाकरे कर रहे हैं- "चुनाव के दौरान आप जिसे गालियां देते हो और बाद में आप उन्हीं दलों (एनसीपी-कांग्रेस) से कैसे गठबंधन कर सकते हो. एनसीपी के लोग आएंगे (शिवसेना में), लेकिन शरद पवार के स्तर पर बात नहीं होगी. मेरी तो नहीं होगी. मान लीजिए कि हमारा गठबंधन हो भी जाता है पवार के साथ और फिर कोई मध्यावधि चुनाव आ गया. हम लोगों के बीच जाकर कहेंगे कि शरद पवार हमारे जिगरी दोस्त हैं. लोग क्या कहेंगे? अरे, कल तो गालियां दे रहे थे आप लोग और आज यकायक दोस्त बन गए."
बाल ठाकरे शिवसेना के राजनीति की सच्चाई बयान कर रहे थे. असल में एनसीपी और कांग्रेस की राजनीति का आधार महाराष्ट्र में सेकुलर रहा है. जबकि शिवसेना का हिंदुत्व. यही वजह है कि सेना के पारंपरिक राजनीतिक दुश्मन रहे हैं. 2019 के चुनाव में भी शिवसेना ने असल में भाजपा जैसी सहयोगी के साथ एनसीपी और कांग्रेस को गरियाकर ही सफलता हासिल की थी. जिस पार्टी को जनादेश हिंदुत्व के मुद्दे पर मिला है रातोंरात उसका सेकुलर हो जाना ना तो बागी विधायकों के गले उतर रहा है और ना ही आम शिवसैनिक के. महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे-जैसे भाजपा और हिंदुत्व से दूर होते दिखी है, भाजपा को बड़ी ताकत मिली है. दोनों पार्टियों के झगड़े का इतिहास तो यही कह रहा. अभी भी नुकसान में सिर्फ शिवसेना ही है.
शिवसेना में बगावत भी एनसीपी-कांग्रेस से गठबंधन और हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टी के पीछे हटने को लेकर ही हुई है. हालांकि बगावत के बाद उद्धव ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में साफ करने की कोशिश की है कि पार्टी हिंदुत्व के कोर मुद्दे और मराठा अस्मिता के मुद्दे पर हर हाल में कायम रहेगी. किसी तरह के समझौते का सवाल ही नहीं है. पर यह सवाल बना हुआ है कि कैसे और रास्ता क्या होगा? सरकार चलाने के लिए शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के बीच जो समझौता हुआ है उसमें हिंदुत्व को बाहर ही रखा गया है. फिर पवार या आघाड़ी किस तरह हिंदुत्व को लेकर उद्धव की बात से सहमत होगा. पवार और उद्धव की पार्टियां जिस जमीन से निकली हैं- उसपर तो कल्पना भी करना असंभव है.
आघाड़ी में रहकर किस मुंह से जनता के बीच जाएंगे उद्धव ठाकरे?
एनसीपी-शिवसेना के बीच ऐतिहासिक अंतर है. सुसाइडल मूड में दिख रहे उद्धव बस इतनी सी बात समझने की कोशिश नहीं कर पा रहे हैं. एक मिनट के लिए मान भी लिया जाए कि शरद पवार के हथकंडों पर उद्धव अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब हो जाएंगे. लेकिन ढाई साल बाद वे चुनाव किसके साथ लड़ने के लिए निकलेंगे. अगर आघाड़ी के साथ निकलते हैं उस स्थिति में आघाड़ी के घोषणापत्र में हिंदुत्व की गुंजाइश तो हो ही नहीं सकती. उनके विपक्ष में भाजपा होगी और वह एनसीपी-कांग्रेस के खिलाफ चिर परिचित अंदाज में हिंदुत्व का ही मुद्दा आगे कर मैदान में उतरेगी. जूनियर ठाकरे पवार के साथ मंच साझा करते हुए किस मुंह से हिंदुत्व के नाम पर जनता से वोट मागेंगे? जब जूनियर ठाकरे आघाड़ी नेताओं के साथ हिंदुत्व के नाम पर मंच साझा नहीं कर सकते, वोट नहीं मांग सकते और निश्चित ही सरकार बनने पर हिंदुत्व के एजेंडा को आगे नहीं बढ़ा सकते- फिर तो उनका हिंदुत्व की राजनीति करना धोखा ही है.
देवेंद्र फडणवीस और उद्धव ठाकरे.
और एक मिनट के लिए यह भी मान लीजिए कि उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना सेकुलर राजनीति की ओर भी बढ़ती है तो उनके पास करने के लिए क्या विकल्प होंगे? क्या एनसीपी-कांग्रेस अपनी पिच पर उन्हें पनपने का कोई मौका देंगे. वह भी उस स्थिति में जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने राज्य में एक ताकत के रूप में जगह बनाई है. राज्य के मुस्लिम बहुल इलाकों की हालत यह है कि वहां मुसलमान एनसीपी-कांग्रेस की बजाए ओवैसी के साथ है. वह अभी भी सिर्फ उन्हीं जगहों पर एनसीपी कांग्रेस के साथ दिखा जहां भाजपा या शिवसेना से ओवैसी सीधे मुकाबले में नहीं थे. ओवैसी की मौजूदगी ने सेकुलर पार्टियों के नांदेड और औरंगाबाद जैसे इलाकों को ढहा दिया है.
शिवसेना के मामलों में एनसीपी का जरूरत से ज्यादा दखल उद्धव को राजनीतिक रूप से दिवालिया बना रहा
शिवसेना की मौजूदा स्थितियां साफ़ साफ़ इशारा कर रही हैं कि एनसीपी का पार्टी की राजनीति पर जरूरत से ज्यादा दखल है. पवार की बेटी सुप्रिया सुले का बयान तो और भी दिलचस्प है. सेना में ठाकरे की विरासत को लेकर छिड़ी रार को लेकर सुप्रिया सुले, उद्धव ठाकरे के पक्ष में बैटिंग करने उतरी हैं. उन्होंने कहा- आसाम गए विधायक महाराष्ट्र में चुने गए हैं. वे आसाम में क्या कर रहे हैं? निर्वाचन क्षेत्रों का काम कौन करेगा? बाला साहेब ठाकरे ने खुद बताया था कि उनका उत्तराधिकारी कौन है. उद्धव शिवसेना का नेतृत्व करेंगे यह फैसला बाला साहेब का ही था. बाला साहेब ठाकरे के नाम का इस्तेमाल कोई और कर ही नहीं सकता. समझ में नहीं आता कि सुप्रिया सुले अपने पिता की तरह किस हैसियत से उद्धव और बाला साहेब की विरासत को लेकर न्यायधीश बनने की कोशिश में हैं. अजित पवार भी. इससे तो यही लगता है कि उद्धव ना सिर्फ सरकार बल्कि अपनी पार्टी के अंदरूनी हालात को संभालने की स्थिति में नहीं हैं और उन्हें पवार कुनबे की जरूरत पड़ रही है.
उद्धव के साथ पवार की जो मीटिंग हुई थी उसमें बगावत के बाद सड़कों पर शिवसेना कार्यकर्ताओं के ना होने को लेकर भी उन्होंने सवाल किए थे. पवार की घुड़की या सलाह- जो भी कह लें, हो सकता है कि इसी मीटिंग के बाद शिवसेना में सक्रियता नजर आई है. शिवसैनिक उसी रौद्र रूप की ओर बढ़ रहे हैं, जिसे लेकर राउत लगातार धमका रहे हैं. ये दूसरी बात है कि बवाल काटने को आमादा शिवसैनिकों में कितने जेन्युइन हैं- साफ़ साफ़ कहना मुश्किल है. क्योंकि सोशल मीडिया पर कुछ जगहों को लेकर दावे सामने आए हैं. कहा गया कि एनसीपी काडर भी शिवसैनिक के रूप में सड़क पर उतर रहा है. ताकि संख्याबल के जरिए जनता को संदेश दिया जाए कि सेना कार्यकर्ता बागियों की बातों से पूर्णतया सहमत नहीं हैं. अब तक राज्य में कई जगहों पर बागी नेताओं के कार्यालयों को निशाना बनाया गया है. बागी नेताओं के परिजनों की सिक्युरिटी उद्धव ठाकरे ने मनमाने तरीके से हटा दी है.
शिवसैनिक तोड़फोड़ कर रहे हैं. संजय राउत सरेआम बागी नेताओं को धमका रहे हैं. राउत जिस तरह देख लेने की धमकी दे रहे हैं- भारतीय राजनीति में अभद्रतम नेताओं की तरफ से कभी ऐसा उदाहरण देखने को नहीं मिला. वे यह भी दावा कर रहे हैं कि बागी नेताओं का अंजाम राज ठाकरे, नारायण राणे और छगन भुजबल जैसा होगा. राउत शायद भूल रहे कि शिवसेना की जिन बगावतों का हवाला दे रहे हैं तब बाला साहेब का नेतृत्व था. जबकि राज ठाकरे ने भले कुछ भी ना हासिल किया हो, बावजूद राज्य के सबसे बड़े क्राउड पुलर लीडर हैं.
शिवसेना को समझना चाहिए कि आज उसके पास ना तो बाला साहेब ठाकरे हैं और उनकी विरासत भी लगभग जाने को तैयार है.
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