डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे. उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं दिया. हद तो तब हो गई जब राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर स्तरीय आवास तक की व्यवस्था नहीं की. उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा. दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे. तब तक उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी. वे दमा के रोगी थे. वहां पर एक बार उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे. वे हिल गए उस कमरे को देखकर जिधर देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे. उनकी आंखें नम हो गईं. उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर रहने लायक करवाया. लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई. क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना भी उचित नहीं समझा. वे उस दिन जयपुर में एक कार्यक्रम में चले गए. यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका. इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा डा.संपूर्णानंद के पी.ए. वाल्मिकी चौधरी ने अपनी पुस्तक में किया है. वाल्मिकी जी ने लिखा कि जब नेहरु को मालूम चला कि संपूर्णानंद जी पटना जाना चाहते हैं राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो. इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया. हालांकि उनके मन में हमेशा क्लेश रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके. वे राजेन्द्र बाबू को बहुत मानते थे. यही नहीं, नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी. राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कद्र राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे.
डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे. उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं दिया. हद तो तब हो गई जब राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर स्तरीय आवास तक की व्यवस्था नहीं की. उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा. दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे. तब तक उनकी तबीयत खराब रहने लगी थी. वे दमा के रोगी थे. वहां पर एक बार उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे. वे हिल गए उस कमरे को देखकर जिधर देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे. उनकी आंखें नम हो गईं. उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर रहने लायक करवाया. लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई. क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना भी उचित नहीं समझा. वे उस दिन जयपुर में एक कार्यक्रम में चले गए. यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका. इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा डा.संपूर्णानंद के पी.ए. वाल्मिकी चौधरी ने अपनी पुस्तक में किया है. वाल्मिकी जी ने लिखा कि जब नेहरु को मालूम चला कि संपूर्णानंद जी पटना जाना चाहते हैं राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो. इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया. हालांकि उनके मन में हमेशा क्लेश रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके. वे राजेन्द्र बाबू को बहुत मानते थे. यही नहीं, नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दी. राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कद्र राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे.
ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिलीं. उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा. मानो ये किसी के निर्देश पर हो रहा हो. उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी. उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी. उसे भी दिल्ली भेज दिया गया. यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया.
दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे. उनमें इस कारण से बहुत हीन भावना पैदा हो गई थी. इसलिए वे उनसे छत्तीस का आंकड़ा रखते थे. वे डा.राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे. नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था. उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए. हालांकि नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की थी. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता. सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि 'भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है'. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए.
नेहरु एक तरफ तो डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते हैं, दूसरी तरफ वे स्वयं 1951 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने जाते हैं. बताते चलें कि नेहरु के वहां पर जाने से कुंभ में मची भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए थे.
हिन्दू कोड बिल पर भी नेहरु से अलग राय रखते थे डा. राजेन्द्र प्रसाद. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे. डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाला कानून न बनाया जाए.
दरअसल जवाहर लाल नेहरू नहीं चाहते थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें. उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने झूठ तक का सहारा लिया था. नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा. नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई. वे उस वक्त बम्बई में थे. कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए. न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे. इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पार्टी में उनकी जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वह बेहतर व्यवहार के पात्र हैं. नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया. अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया.
नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए उन्होंने इस संबंध में आधी रात तक जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा. डा. राजेन्द्र बाबू प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे. बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी. आखिर नेहरू को कांग्रेस की बात माननी पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा.
जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद थे. ये मतभेद 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान लगातार बने रहे. नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता को मानते थे. राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे. सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे. इस कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी. सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए.
अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधीजी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे अधिक लोकप्रिय नेता थे. गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे. लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया. हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे. उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवड़ियां खुलकर बांटीं.
एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज़ हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया. और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए. हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा. राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे. नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी. राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था. मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी. सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना.
वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे. जबकि नेहरु पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और, भारतीयता के विरोधी थे. बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते थे राजेन्द्र बाबू से.
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