कभी मदद की आशा में वैश्विक पटल पर हाशिये पर खड़े अपने देश को आज विश्व समुदाय की आशा और आकांक्षाओं का केंद्र बनते देखना चित्त को सुखद अनुभूतियों से भरने वाला है. यह स्वर्णिम स्थिति वास्तविक अर्थों में अमृतकाल के भाव को चरितार्थ करती है. याद करिए वह समय जब अलगाव विधि-सम्मत था. अपने ही कश्मीर में प्रवेश के लिए हर भारतीय को परमिट की आवश्यकता होती थी. झंडा अलग, मुखिया अलग और अलग संविधान. कश्मीर के विभाजनकारी फोड़े से रिसता अलगाववादी मवाद एक भारत-श्रेष्ठ भारत की प्रांजल भावधारा को दूषित कर रहा था. 19 जनवरी 1990 को कश्मीर से 03 लाख से अधिक कश्मीरी हिंदुओं का भयजनित विवशतापूर्ण पलायन उसकी सबसे दर्दनाक अभिव्यक्ति थी. सीमाओं से लेकर स्वाभिमान तक सब कुछ असुरक्षित. आजाद भारत में पराधीन मानस के नागरिकों का निर्माण करती हमारी शिक्षा नीति स्वतंत्रता के ‘स्व’ भाव को जागृत नहीं कर पा रही थी. ऐसे संक्रमण कालीन समय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारत की आस्था, अस्मिता और एकात्मता के लिए शुरू हुए संघर्ष ने उस भारत का चित्र आमजन के मन पर पुनः खींचा जिसके लिए असंख्य राष्ट्र प्रेमियों ने सहर्ष बलिदान दिया था.
‘एक देश में दो विधान दो प्रधान नहीं चलेंगे’ की मांग के साथ शुरू हुआ उनका आंदोलन उनके बलिदान के साथ हर भारतीय का संकल्प बन गया. डॉ. मुखर्जी के बलिदान ने भारतीय राजनीति में राष्ट्रवादी बनाम तुष्टिकरण सियासत की विभाजक रेखा खींच दी. उनकी दूरदर्शी सोच ने देश में शिक्षा, स्वास्थ्य व औद्योगिक विकास की मजबूत नींव रखने और सामरिक दृष्टि से भारत को सशक्त बनाने में अहम योगदान दिया. वह उद्यमियों के...
कभी मदद की आशा में वैश्विक पटल पर हाशिये पर खड़े अपने देश को आज विश्व समुदाय की आशा और आकांक्षाओं का केंद्र बनते देखना चित्त को सुखद अनुभूतियों से भरने वाला है. यह स्वर्णिम स्थिति वास्तविक अर्थों में अमृतकाल के भाव को चरितार्थ करती है. याद करिए वह समय जब अलगाव विधि-सम्मत था. अपने ही कश्मीर में प्रवेश के लिए हर भारतीय को परमिट की आवश्यकता होती थी. झंडा अलग, मुखिया अलग और अलग संविधान. कश्मीर के विभाजनकारी फोड़े से रिसता अलगाववादी मवाद एक भारत-श्रेष्ठ भारत की प्रांजल भावधारा को दूषित कर रहा था. 19 जनवरी 1990 को कश्मीर से 03 लाख से अधिक कश्मीरी हिंदुओं का भयजनित विवशतापूर्ण पलायन उसकी सबसे दर्दनाक अभिव्यक्ति थी. सीमाओं से लेकर स्वाभिमान तक सब कुछ असुरक्षित. आजाद भारत में पराधीन मानस के नागरिकों का निर्माण करती हमारी शिक्षा नीति स्वतंत्रता के ‘स्व’ भाव को जागृत नहीं कर पा रही थी. ऐसे संक्रमण कालीन समय में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारत की आस्था, अस्मिता और एकात्मता के लिए शुरू हुए संघर्ष ने उस भारत का चित्र आमजन के मन पर पुनः खींचा जिसके लिए असंख्य राष्ट्र प्रेमियों ने सहर्ष बलिदान दिया था.
‘एक देश में दो विधान दो प्रधान नहीं चलेंगे’ की मांग के साथ शुरू हुआ उनका आंदोलन उनके बलिदान के साथ हर भारतीय का संकल्प बन गया. डॉ. मुखर्जी के बलिदान ने भारतीय राजनीति में राष्ट्रवादी बनाम तुष्टिकरण सियासत की विभाजक रेखा खींच दी. उनकी दूरदर्शी सोच ने देश में शिक्षा, स्वास्थ्य व औद्योगिक विकास की मजबूत नींव रखने और सामरिक दृष्टि से भारत को सशक्त बनाने में अहम योगदान दिया. वह उद्यमियों के सशक्तिकरण, स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने और आर्थिक स्वतंत्रता की भावना को मजबूत करने में विश्वास करते थे.
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उनके विचार चिरकाल तक प्रासंगिक रहेंगे. विदित हो कि मुखर्जी का हर विचार ‘नेशन फर्स्ट’ की भावना के साथ एक भारत, श्रेष्ठ भारत तथा अंत्योदय से राष्ट्रोदय की संकल्पना को ध्वनित करता है. राष्ट्रीय एकता, आर्थिक आत्मनिर्भरता और वंचित समुदायों के कल्याण के उनके आदर्शों को भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों में प्रतिध्वनि प्राप्त हुई है.
देश में अलगाव की आग धधकाने वाले अनुच्छेद 370 और धारा 35A जैसे नासूर का शांतिपूर्ण निर्मूलन मोदी सरकार की बलिदानी मुखर्जी को समूचे राष्ट्र की ओर से समेकित भावपूर्ण श्रद्धांजलि है तो प्रधानमंत्री जनधन योजना, आयुष्मान भारत और स्वच्छ भारत अभियान जैसे लोक कल्याणकारी कार्यक्रम उपेक्षित समुदायों के उत्थान के लिए मुखर्जी की चिंताओं को संबोधित करते हैं. इन पहलों का उद्देश्य गरीबों का उत्थान करना और उत्तम स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच प्रदान करना है.
अब देखिए, मोदी सरकार ने संसाधनहीनता के चलते दशकों से चूल्हे के धुएं से अपना स्वास्थ्य खोने को विवश महिला शक्ति को उज्ज्वला योजना के माध्यम से निःशुल्क रसोई गैस कनेक्शन प्रदान कर उसे वंचना से मुक्ति दिलाने का कार्य किया. निर्धन समाज को 05 लाख रुपये तक निःशुल्क चिकित्सा सुविधाओं से लाभान्वित करने हेतु शुरू की गई ‘आयुष्मान भारत’ योजना ने इलाज के लिए गरीबों के खेत और मकानों को बिकने से बचाने का कार्य किया है.
अन्नदाता किसानों की आत्महंता बनने की विवशता समझते हुए प्रारम्भ की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री ग्राम सिंचाई योजना आदि के माध्यम से करोड़ों अन्नदाता किसानों के जीवन में आय का वर्धन और मौसम जनित अस्थिरता का अंत करने का कार्य सम्पन्न हुआ. ध्यान से सुनिए कि धनहीन, शक्तिहीन और सामर्थ्यहीन लोगों की सेवा को समर्पित इस अंतहीन श्रृंखला में डॉ. मुखर्जी का स्वप्न ध्वनित होता है.
विदित हो कि ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ की कार्य संस्कृति को मूर्तरूप प्रदान करते मोदी, ‘नए भारत’ के विश्वकर्मा हैं. नया भारत, जो शत्रु को घर में घुसकर मारता है. जो, डिजिटल इण्डिया की तरंगों पर थिरकता है. जिसका प्रगति पथ, अंतिम व्यक्ति से अंतरिक्ष तक है. जहां राष्ट्र रक्षा ही धर्म है. जहां ‘अंत्योदय से राष्ट्रोदय’ एक राष्ट्रीय संकल्प है. जहां, आतंक और अनियमितता का निर्मूलन राष्ट्रीय विचार है.
ऐसे ही सशक्त राष्ट्र की अभिव्यंजना तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की थी. अपने सपनों को भारत को आकार लेते हुए देखकर उनकी आत्मा को अवश्य ही शांति मिल रही होगी. मोदी सरकार ने आर्थिक विकास और आत्मनिर्भरता पर भी फोकस किया है. मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसी पहल का उद्देश्य उद्यमिता को बढ़ावा देना, निवेश आकर्षित करना और रोजगार के अवसर पैदा करना है.
ये नीतियां मुखर्जी के आत्मनिर्भर और आर्थिक रूप से जीवंत भारत के दृष्टिकोण के अनुरूप हैं. मुखर्जी राष्ट्र पुनर्निर्माण में स्वदेशी नीतियों के दृढ़ समर्थक थे तो मोदी ने ‘लोकल के लिए वोकल’ होकर स्वदेशी से स्वशासन की संकल्पना को स्वर प्रदान किया है. ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बुनियाद रखने का कार्य किया है. भारतीय लोकतंत्र में गरीबी उन्मूलन के लिए ‘नारे’ तो बड़े क्रांतिकारी बने, लेकिन गरीबी हटाने के लिए फैसलाकुन प्रयासों की हमेशा कमी रही.
अतः गरीबी सुरसा की तरह बढ़ती गई और निर्धन समुदाय बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी मोहताज हो गया. लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने विकास को अंत्योदय की अवधारणा से जोड़कर शताब्दियों की पीड़ा को हरने का ऐतिहासिक कार्य किया है. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कहते थे कि कोई भी राष्ट्र अपनी ही ऊर्जा से सुरक्षित रह सकता है. उन्हें अपने देश के साधनों, संसाधनों और देश के प्रतिभाशाली लोगों पर पूरा भरोसा था. उनका जीवन ‘विद्या, वित्त और विकास’ पर केंद्रित चिंतन से जुड़ी धाराओं का संगम था.
ज्ञातव्य है कि कोई भी समाज शिक्षा के आलोक में ही उत्थान के नए सोपान चढ़ता है और ‘स्व’ की शिक्षा और ‘स्व’ के तंत्र से ही देश समृद्ध व सुसंस्कृत बनता है. लेकिन बख्तावर खिलजी के रक्तपिपासु उत्तराधिकारियों से लेकर मैकाले के मानस पुत्रों तक ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर एक ऐसी रीढ़विहीन, गौरवहीन पीढ़ी का निर्माण किया, जिनके लिए भारत ज्ञान, विज्ञान, अध्यात्म और शास्त्रार्थ की उद्गम स्थली नहीं बल्कि अंधकार की भूमि थी.
ऐसे में खोई हुई गरिमा, आहत अस्मिता, खण्डित स्वाभिमान, भूला हुआ पराक्रम, गुम हुई ऋषि-कृषि संस्कृति और भारतीय होने के गौरवबोध को पुनर्जीवित करना एक बड़ी चुनौती थी. 75 वर्षों की सुदीर्घ प्रतीक्षा के बाद एक ऐसी शिक्षा नीति लागू हुई है, जो सच्चे मायनों में भारतीय है, भारत के वास्तविक स्वरूप की झलक लिए है. यह नीति ‘ज्ञानोदय से राष्ट्रोदय’ का माध्यम है. प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारतीय शिक्षा जगत के अमृत काल का शुभारम्भ हो चुका है.
ये सब तब और भी अधिक उल्लेखनीय हो जाता है, जब देश ने लोकतंत्र का गला घोटने की नीयत से बर्बरतापूर्वक थोपे गए आपातकाल के दंश को झेला हो. आपातकाल में सभी संवैधानिक संस्थाओं के एक ही परिवार और पार्टी के सम्मुख नतमस्तक होने से देश का विकास वर्षों पीछे चला गया. एक देश के रूप में अपने भविष्य के प्रति अविश्वास लोगों के मन में गहराई तक व्याप्त हो चुका था.
भारत को आजादी दिलाने का दम भरने वाली सियासी जमात कांग्रेस के अधिनायकवादी, लोकतंत्र विरोधी चरित्र का सबसे क्रूरतम स्वरूप ‘आपातकाल’ एकाएक वजूद में नहीं आया था. सत्ता लोलुप, सुविधाभोगी और भ्रष्टाचार केंद्रित पार्टी द्वारा तीन दशकों तक लोकतांत्रिक चोले में देश के संसाधनों को व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए जमकर लूटने के पश्चात खुली डकैती की चाहत ‘आपातकाल’ का कारक थी.
सत्ता में रहते हुए राष्ट्रपति शासन के द्वारा 91 गैर कांग्रेसी सरकारों को हटाने का काम कांग्रेस के लोकतंत्र विरोधी चरित्र को बखूबी प्रकट करता है. इससे समझा जा सकता है कि राष्ट्र प्रेमी डॉ. मुखर्जी ने क्यों कांग्रेस के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. दरअसल वे कांग्रेस के चाल, चरित्र, चिंतन से बखूबी वाकिफ थे. सिख नरसंहार, कश्मीर समस्या, जलता पूर्वोत्तर और संस्थागत भ्रष्टाचार तथा इनसे जनित समस्याओं ने देश को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे के अलावा वैश्विक पटल पर बहुत कमजोर कर दिया था.
प्रधानमंत्री नेहरू की रहनुमाई में देश के पहले घोटाले ‘जीप घोटाला’ से शुरू हुई संस्थागत भ्रष्टाचार की यात्रा मूंदडा घोटाला, ऑयल घोटाला, मारुति घोटाला, अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला, नेशनल हेराल्ड घोटाला, कामनवेल्थ घोटाला, 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, बीकानेर जमीन घोटाला, डीएलफ जमीन स्कैम, स्कार्पियन पनडुब्बी घोटाला जैसे अनेक छोटे-बड़े घोटाले से होती हुई आज तक जारी है. अब केंद्र में सरकार नहीं है तो जिन राज्यों में कांग्रेसी सरकारे हैं, वे भ्रष्टाचार का प्रवाहमान नाला बनी हुई हैं.
तुष्टिकरण का आलम तो यह था कि प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘वर्ग विशेष’ को बतौर नजराना कश्मीर दे दिया तो अंतिम कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो ‘देश के सभी संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है’ बोलकर पूरी ‘खिलाफत’ ही कायम कर दी थी. इधर सपा, बसपा, लोक दल, राजद, डीमके, टीएमके, समेत अनेक राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों ने परिवारवाद, दंगावाद, भ्रष्टाचारवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद जैसे अनेक संकीर्ण व पतनोन्मुखी कार्यों के द्वारा देश और समाज के अधोपतन की पटकथा लिख दी थी.
परिणामतः दंगों की फसल लहलहा रही थी, अपराध व्यवस्था बन चुका था. समाज असुरक्षित और स्लीपर सेल सुरक्षित थे. हर तरफ भरोसे की जगह भय व्याप्त था. डॉ. मुखर्जी ने इन संकटों के प्रति भारतीय समाज और सियासत को पहले की सचेत किया था. जनसंघ, भाजपा समेत कुछ राष्ट्रवादी दलों की सक्रियता ने समय-समय पर इस तिमिर को हरने के भरसक प्रयास किए थे. उन प्रयासों ने उम्मीद की लौ को तेज तो किया किंतु वे आशाओं का ‘आदित्य’ नहीं बन सके.
अपेक्षा और आवश्यकता, समस्या और समाधान के इस संधिकाल में नरेंद्र मोदी आहत सनातन के नायक बनकर उभरे. दशकों से भारत को लहुलुहान कर रही तमाम व्याधियों के लिए औषधि बने मोदी ने अपने मानस में बसे मुखर्जी की भांति नए शब्दों एवं बिंबों के माध्यम से राष्ट्रीय विमर्श को बदलने का कार्य किया है. भ्रष्टाचार को रोकने के लिए 'मैं भी चौकीदार', भारत के उत्तर-पूर्व के लिए ‘सेवेन सिस्टर्स’ के स्थान पर ‘अष्टलक्ष्मी’, आत्मनिर्भर भारत के लिए ‘मेक इन इंडिया, मेड फॉर द वर्ल्ड’, स्वदेशी के समर्थन के लिए ‘वोकल फॉर लोकल’, स्वतंत्रता के 75 वर्ष के लिए ‘आजादी का अमृत महोत्सव’, राष्ट्रीय एकता के लिए ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ तथा ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास’ आदि देश के चित्त को बदल रहे हैं.
डॉ. मुखर्जी को समय ने ‘बहुत कम समय’ दिया लेकिन राष्ट्रोत्थान को समर्पित उनके विचारों की सुगंध से राजनीतिक क्षितिज लगातार सुवासित होता रहा. वैसे भी विचार तो अमर होते हैं. वे अपने अनुकूल व्यक्तित्व को ढूंढ़ ही लेते हैं. विचारों की ‘मुखर्जी से मोदी’ तक पहुंचने की यह 04 दशकों की यात्रा उसी अनुकूल व्यक्तित्व की खोज को समर्पित रही. आज हम सभी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में डॉ. मुखर्जी के सपनों को साकार होते हुए देख रहे हैं.
राजनीति पूरी तरह से राष्ट्रवादी धारा में बह रही है. कभी सियासत के लिए अछूत समझे जाने वाले सनातन के मानबिंदुओं की पुनर्स्थापना से राष्ट्रीय गौरवबोध जागृत हो रहा है. श्री रामलला का निर्माणाधीन भव्य-दिव्य मंदिर, विराट काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, उत्कृष्ट लोकतांत्रिक मूल्यों व सात्विक राजकीय मर्यादाओं के प्रतीक 'सेंगोल' की पुनर्स्थापना उसकी एक झांकी है.
काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सांस्कृतिक एकात्मता के सेतुबंध निर्मित हो रहे हैं, जिनसे होकर ‘हम सब एक हैं’ का भाव और अधिक तेजी से गतिमान है. अयोध्या संवर रही है, काशी निखर रही है, मथुरा सज रही है. गति, शक्ति और सुमति से विकास जन-गण के उत्थान को नए आयाम दे रहा है. पंचप्रण जैसे संकल्पों में सबका साथ लेकर भारत परम वैभव के मार्ग पर पुनः उन्मुख हो गया है. आने वाले समय में मुखर्जी और मोदी के इस अवदान को स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.