वैसे तो जब-जब हमारे देश में चुनाव होते हैं, वंशवाद रूपी बोतल में बंद जिन्न बाहर निकल आता है. लेकिन इस बार बगैर चुनावी माहौल के ही यह जिन्न बोतल से बाहर आ गया है. हुआ यूं कि पिछले दिनों अमेरिका के बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में राहुल गांधी ने वंशवाद का समर्थन करते हुए एक बयान दिया. उनके इस बयान से एक बार फिर से राजनीति में वंशवाद या भाई-भतीजावाद की बहस छिड़ गई है.
देश की राजनीति में परिवारवाद को लेकर चाहे जितनी भी बात की जाए, लेकिन कोई भी पार्टी इससे अछूता नहीं है. फिर भी भारत जैसे इतने बड़े प्रजातंत्र में वंशवाद का मुद्दा बार-बार क्यों उठता रहता है? आखिर क्यों वंशवाद हमारे समाज को कैंसर की तरह जकड़े हुए है? क्या ये हमारे देश के हित में है? क्यों कुछ परिवारें दो-दो दलों में अपनी पैठ बना रखी है और हवा के रूख के हिसाब से अपने भविष्य की राजनीति को तय करते हैं? वंश का माल खाकर तरक्की हासिल करना क्या उचित है? आखिर लोकतंत्र में वंशवाद कब तक हावी रहेगा और इससे कब निजात मिलेगी?
कोई भी दल अछूते नहीं
राजनीति में वंशवाद की बहस काफी पुरानी है. और दुनिया के बहुत सारे देशों में भी यही कहानी है. यहां तक की कुछ अपवादों को छोड़कर प्राचीन काल में भी राजाओं के पुत्र ही राजा और सम्राटों के पुत्र ही सम्राट होते थे. लेकिन हमारे देश में हर दल में परिवारवाद का बोलबाला है. चाहे वो राष्ट्रीय दल हो या फिर क्षेत्रीय. राष्ट्रीय पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस तो परिवारवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं ही. क्षेत्रीय दलों में ममता और मायावती की पार्टियों को छोड़ दें तो कोई भी दल इससे अछूता नहीं है.
अभी पिछले महीने बिहार में जब भाजपा के खिलाफ लालू प्रसाद ने रैली की तो उसमे लालूजी का पूरा...
वैसे तो जब-जब हमारे देश में चुनाव होते हैं, वंशवाद रूपी बोतल में बंद जिन्न बाहर निकल आता है. लेकिन इस बार बगैर चुनावी माहौल के ही यह जिन्न बोतल से बाहर आ गया है. हुआ यूं कि पिछले दिनों अमेरिका के बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में राहुल गांधी ने वंशवाद का समर्थन करते हुए एक बयान दिया. उनके इस बयान से एक बार फिर से राजनीति में वंशवाद या भाई-भतीजावाद की बहस छिड़ गई है.
देश की राजनीति में परिवारवाद को लेकर चाहे जितनी भी बात की जाए, लेकिन कोई भी पार्टी इससे अछूता नहीं है. फिर भी भारत जैसे इतने बड़े प्रजातंत्र में वंशवाद का मुद्दा बार-बार क्यों उठता रहता है? आखिर क्यों वंशवाद हमारे समाज को कैंसर की तरह जकड़े हुए है? क्या ये हमारे देश के हित में है? क्यों कुछ परिवारें दो-दो दलों में अपनी पैठ बना रखी है और हवा के रूख के हिसाब से अपने भविष्य की राजनीति को तय करते हैं? वंश का माल खाकर तरक्की हासिल करना क्या उचित है? आखिर लोकतंत्र में वंशवाद कब तक हावी रहेगा और इससे कब निजात मिलेगी?
कोई भी दल अछूते नहीं
राजनीति में वंशवाद की बहस काफी पुरानी है. और दुनिया के बहुत सारे देशों में भी यही कहानी है. यहां तक की कुछ अपवादों को छोड़कर प्राचीन काल में भी राजाओं के पुत्र ही राजा और सम्राटों के पुत्र ही सम्राट होते थे. लेकिन हमारे देश में हर दल में परिवारवाद का बोलबाला है. चाहे वो राष्ट्रीय दल हो या फिर क्षेत्रीय. राष्ट्रीय पार्टियां- भाजपा और कांग्रेस तो परिवारवाद से बुरी तरह प्रभावित हैं ही. क्षेत्रीय दलों में ममता और मायावती की पार्टियों को छोड़ दें तो कोई भी दल इससे अछूता नहीं है.
अभी पिछले महीने बिहार में जब भाजपा के खिलाफ लालू प्रसाद ने रैली की तो उसमे लालूजी का पूरा खानदान मंच पर सबसे आगे था. ऐसा लग रहा था जैसे उस पार्टी में उस परिवार के अलावा कोई भी योग्य नेता नहीं है.
और ये हाल केवल राजद या बिहार का ही नहीं है. हमने उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में यादव परिवार के बीच वर्चस्व को लेकर घमासान देखा है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार के करीब 20 लोग राजनीति में बताए जाते हैं.
कश्मीर में अब्दुल्ला और सईद परिवार. पंजाब में बादल परिवार. हरियाणा में हुडा और चौटाला परिवार. राजस्थान में सिंधिया परिवार. महाराष्ट्र में बाल ठाकरे और शरद पवार परिवार. ओडिशा में पटनायक परिवार. झारखण्ड में सोरेन परिवार. दक्षिण के राज्यों में भी करूणानिधि परिवार. मारन और देवेगौड़ा परिवार. और न जाने कितने परिवार... पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े खिलाड़ी परिवार बने हुए हैं.
हमारे देश में तो मरणोपरांत भी वंशवाद है
तमिलनाडु की सियासत में तब हद हो गया जब हाल ही में अन्नाद्रमुक ने अपनी ताजा बैठक में दिवंगत जयललिता को पार्टी का स्थायी महासचिव बनाने की घोषणा कर दी. यानी वे मृत्यु के उपरांत भी पार्टी का नेतृत्व करते रहेंगी.
मौजूदा लोकसभा में वंशवाद की स्थिति
2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी ने 5 सांसदों को भेजा था जिसमें पांचों के पांचों मुलायम सिंह के वंश से थे. यानी सौ फीसदी वंशवाद.
सोलहवीं लोकसभा में कांग्रेस के 44 प्रतिनिधि जीतकर आये. इसमें 48% सांसद वंशवाद से निकलकर आए. यानी इनमें से करीब आधे, रिश्तेदारों की वजह से राजनीति में आए.
तो ऐसे में भाजपा कहां पीछे रहनेवाला था. इसके 15% सांसद वंशवाद का सहारा लेते हुए संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं.
एक आंकड़ें के मुताबिक संसद में इस समय 36 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि मौजूद हैं. जिसमें से 13 राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि दरअसल परिवार के सदस्य ही हैं.
विदेशों में भी वंशवाद
राजनीति में वंशवाद केवल भारत तक ही सीमित नहीं है. पाकिस्तान में भुट्टो परिवार. नेपाल में कोईराला परिवार. बांग्लादेश में शेख हसीना और खालिदा जिया परिवार. श्रीलंका जयवर्धने और भंडारनायके परिवार. अमेरिका में बुश, केनेडी और क्लिंटन वंश का दबदबा चला आ रहा है.
राजनीति में वंशवाद इतना गहरा क्यों?
• किसी खास परिवार से होने के नाते क्षेत्र व समाज में पारिवारिक दबदबा
• खानदानी और जातिगत समर्थन विरासत में मिलना
• राजनीति में प्रवेश के लिए कोई रोक-टोक न होना
• कोई शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता नहीं
• जोखिम के मुकाबले बेहतर इनाम मिलने की संभावना
• काफी सारी मुफ्त सुविधाएं और रियायतें
• राजनीतिक क्लास का जलवा
हालांकि किसी खास परिवार से होने के नाते क्षेत्र व समाज में पारिवारिक दबदबा. खानदानी और जातिगत समर्थन विरासत में तो मिलता है. लेकिन यह किसी भी लोकतंत्र के लिए गलत होता है. जब कुछ ही परिवार मिलकर देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करते हों. परिवारवाद में योग्यता मायने नहीं रखती और ऐसे में हमारी जनता को एक अयोग्य नेतृत्व मिलता है. जो अक्सर जनतांत्रिक नीतियों को कमज़ोर ही करता है.
इन सभी विश्लेषणों से साफ़ है कि वंशवाद की जड़ें भारत की ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियों के अंदर काफी गहराई तक फैली हुई हैं. और राजनीति में वंशवाद तब तक फलता-फूलता रहेगा, जब तक कि इसका विरोध भीतर से न हो.
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