पूंजीवादी बुल्डोजर ने क्रांति के प्रतीक को गिरा दिया. कामरेड लेनिन की ‘मूर्ति' ढाह दी गई और ये वहां संभव हो पाया जहां लगभग बीस वर्षों से ‘सादगी' से रहने वाले कॉमरेड मुख्यमंत्री का शासन कुछ ही दिन पूर्व समाप्त हुआ. मूर्तिपूजा में वैसे तो कॉमरेडों का भरोसा नहीं होता है पर व्यक्तिपूजा में खूब. सो कहीं ममी में पार्थिव शरीर सुरक्षित रखा है तो कहीं पत्थर की मूर्ति बनाई गई है. इस सजावट से क्रांति का भार कुछ कम हो जाता है शायद!
खैर, जो लोग भी लेनिन की मूर्ति गिराने में थे, मैं भरोसे से कह सकता हूं कि अधिकांश लेनिन के बारे में नहीं जानते होंगे. उन्हें इस बात का बिल्कुल अंदाजा नहीं होगा कि जिस लोकतंत्र का ढोल वामपंथी पीटते हैं उनके गुरू ने ‘what is to be done' पर्चा लिखकर ‘डेमोक्रेटिक सेन्ट्रिलज्म' की शुरुआत की और लोकतंत्र की हवा निकाल दी? उन्हें बिल्कुल नहीं पता होगा कि यह वही लेनिन हैं जिनको ‘रेड टेरर' से ऊर्जा मिलती थी? उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि ‘सिविल वॉर' के नाम पर लेनिन ने कितनों को ‘बुत' बना दिया? उन्हें इतिहास में दर्ज लेनिन के ऐसे अनगिनत कारनामों में से कुछ भी नहीं पता होगा. फिर भी उन्होंने मूर्ति गिरा दी. क्यों?
दरअसल, यह प्रतीक का मामला है. जो लोग वैचारिक रूप से समृद्ध नहीं हैं वो ऐसे ही प्रतीकों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं. मूल्यों और प्रतिमानों का यही अंतर या गठजोड़ कहिये किसी विचारधारा को विचारकों और कार्यकर्ताओं के मध्य जोड़े रहता है. ऐसे प्रतीक उत्साह बढ़ाते हैं जैसे ‘बास्तील का पतन' फ्रांसीसी क्रांति का द्वार बन रहा था. जैसे मैरी एन्तानेत का...
पूंजीवादी बुल्डोजर ने क्रांति के प्रतीक को गिरा दिया. कामरेड लेनिन की ‘मूर्ति' ढाह दी गई और ये वहां संभव हो पाया जहां लगभग बीस वर्षों से ‘सादगी' से रहने वाले कॉमरेड मुख्यमंत्री का शासन कुछ ही दिन पूर्व समाप्त हुआ. मूर्तिपूजा में वैसे तो कॉमरेडों का भरोसा नहीं होता है पर व्यक्तिपूजा में खूब. सो कहीं ममी में पार्थिव शरीर सुरक्षित रखा है तो कहीं पत्थर की मूर्ति बनाई गई है. इस सजावट से क्रांति का भार कुछ कम हो जाता है शायद!
खैर, जो लोग भी लेनिन की मूर्ति गिराने में थे, मैं भरोसे से कह सकता हूं कि अधिकांश लेनिन के बारे में नहीं जानते होंगे. उन्हें इस बात का बिल्कुल अंदाजा नहीं होगा कि जिस लोकतंत्र का ढोल वामपंथी पीटते हैं उनके गुरू ने ‘what is to be done' पर्चा लिखकर ‘डेमोक्रेटिक सेन्ट्रिलज्म' की शुरुआत की और लोकतंत्र की हवा निकाल दी? उन्हें बिल्कुल नहीं पता होगा कि यह वही लेनिन हैं जिनको ‘रेड टेरर' से ऊर्जा मिलती थी? उन्हें यह भी पता नहीं होगा कि ‘सिविल वॉर' के नाम पर लेनिन ने कितनों को ‘बुत' बना दिया? उन्हें इतिहास में दर्ज लेनिन के ऐसे अनगिनत कारनामों में से कुछ भी नहीं पता होगा. फिर भी उन्होंने मूर्ति गिरा दी. क्यों?
दरअसल, यह प्रतीक का मामला है. जो लोग वैचारिक रूप से समृद्ध नहीं हैं वो ऐसे ही प्रतीकों के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं. मूल्यों और प्रतिमानों का यही अंतर या गठजोड़ कहिये किसी विचारधारा को विचारकों और कार्यकर्ताओं के मध्य जोड़े रहता है. ऐसे प्रतीक उत्साह बढ़ाते हैं जैसे ‘बास्तील का पतन' फ्रांसीसी क्रांति का द्वार बन रहा था. जैसे मैरी एन्तानेत का प्रचारित किया गया कथन ‘रोटी नहीं है तो ब्रेड खा लो' राजसत्ता तक पहुंचने का मार्ग बना. और जैसे 'गांधी का चमत्कार' अंग्रेजी शासन के लिये खतरा बन गया.
ये प्रतीक ही आमजन को समझ आते हैं. यह एक राजनीतिक टूल है जो एक खास तरह के लोगों को स्वाभाविक रूप से जोड़ता है. समय के हर खंड में. त्रिपुरा में कुछ दिन पहले चुनावी परिणाम के रूप में अगर वामपंथी मूल्य पराजित हुआ तो उसका दृश्य रूप मूर्ति ढहाने के साथ आया. और क्या लेनिन का मूर्ति गिराना प्रतीकों की अभिव्यक्ति का पहला उदाहरण है?
याद करिये अस्मितावादियों द्वारा मनुस्मृति जलाना, उसे पैरों से कुचलना आदि आदि. ये क्या है? अगर किसी किताब में कुछ गलत लिखा है तो उसका जबाव लिख कर दीजिये. विचार का जबाव विचार से. एक मनुस्मृति के बरक्स हजार किताब लिख दीजिये, जैसा कि लेनिन के संदर्भ में तर्क दिया भी जा रहा है कि मूर्ति क्यों गिराते हो विचार से जबाव दो, तो फिर जलाते क्यों हैं? और प्लेटो, अरस्तू जैसे विचारकों ने भी तो महिलाओं और दासों को लेकर ऐसी ऐसी बातें की हैं कि कोई आज उसे नहीं मानेगा. तो क्या किया जाए जला दिया जाए उनकी किताबों को? जलाते हैं? नहीं. फिर मनुस्मृति क्यों जलाते हैं? लेनिन को क्यों गिराते हैं?
इसका कारण ये है कि यह अपीलिंग है. इसका संदर्भ राजनीतिक लाभ से जुड़ता है. अस्मितावादियों के लिये मनुस्मृति का जलाना एक टूल है जिससे बृहदतर रूप से दलित एकता को स्थापित करने की कोशिश की जाती है तो लेनिन को गिराना भी ऐसा ही टूल है जिससे दक्षिणपंथियों का एका बन सके. वरना, आज कौन कथित सवर्ण कथित दलित का मनुस्मृति पढ़कर शोषण करता है. और कौन सा कॉमरेड लेनिन का सिद्धांत मानकर चल रहा है.
यह सही है या गलत इसपर कोई निष्कर्ष दिये बिना यही कहना उचित होगा कि ये प्रतीकात्मक कार्रवाई बहुत महत्व के होते हैं. यूं ही मायावती अपनी मूर्ति नहीं बनवाती हैं. यूं बर्बर विध्वंस नहीं होता. यूं ही सोमनाथ नहीं लूटा जाता. नालंदा यूं ही नहीं जलाया जाती. बोधिवृक्ष भी कोई यूं ही क्यों काटता.
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