चुनाव आयोग (Election Commission) से शिकायतें कम हो गयी हैं. अब चुनाव नतीजे आने के बाद ईवीएम को लेकर राजनीतिक दलों की तरफ से सवाल भी कम उठाये जाने लगे हैं. शायद इसलिए भी क्योंकि नतीजे अलग अलग आने लगे हैं.
हर किसी के हिस्से में कुछ न कुछ मिल ही जा रहा है. हाल फिलहाल तो ऐसा ही देखने को मिला है. गुजरात में छप्पर फाड़ वोट पाकर बीजेपी जीत जाती है, तो कांग्रेस 0.9 फीसदी वोटों के अंतर से भी हिमाचल प्रदेश में सरकार बना लेती है, और तभी आम आदमी पार्टी एमसीडी का चुनाव जीत जाती है - ऐसे में भला किसी को भी क्यों शिकायत होगी?
लेकिन इसमें चुनाव आयोग का बस इतना ही योगदान होता है कि चीजें तरीके से हों. पेशेवर तरीके से. जैसे होना चाहिये. हार जीत का फैसला चुनाव आयोग नहीं करता, वो तो बस ऐसे इंतजाम करता है कि जनता एक स्वस्थ माहौल में फैसला ले सके. और एक दिन पोल बूथ पहुंच कर फैसला सुना भी सके.
अब तक चुनाव आयोग में सबसे क्रांतिकारी कदम के रूप में मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन को ही याद किया जाता है. अभी पिछले साल की ही तो बात है. एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी रही, देश में कई मुख्य चुनाव आयुक्त हुए हैं, लेकिन टी एन शेषन कभी-कभार ही होते हैं.
टीएन शेषन की ही तरह बिहार चुनाव का जिक्र आता है तो केजे राव का नाम लिया जाता है. 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में आयोग ने केजे राव को पर्यवेक्षक बना कर भेजा था. तब लूट-मार और रंगदारी के साथ साथ बूथ कैप्चरिंग भी बहुत बड़ी समस्या हुआ करती थी - ये वही दौर है जिसे बीजेपी और हाल तक नीतीश कुमार 'जंगलराज' का दौर बताते रहे हैं. वो दौर जब बिहार में पहले लालू यादव और फिर राबड़ी देवी मुख्यमंत्री हुआ करती थीं.
केजे राव पर बिहार में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने की जिम्मेदारी थी, और वो अपनी बुद्धि और...
चुनाव आयोग (Election Commission) से शिकायतें कम हो गयी हैं. अब चुनाव नतीजे आने के बाद ईवीएम को लेकर राजनीतिक दलों की तरफ से सवाल भी कम उठाये जाने लगे हैं. शायद इसलिए भी क्योंकि नतीजे अलग अलग आने लगे हैं.
हर किसी के हिस्से में कुछ न कुछ मिल ही जा रहा है. हाल फिलहाल तो ऐसा ही देखने को मिला है. गुजरात में छप्पर फाड़ वोट पाकर बीजेपी जीत जाती है, तो कांग्रेस 0.9 फीसदी वोटों के अंतर से भी हिमाचल प्रदेश में सरकार बना लेती है, और तभी आम आदमी पार्टी एमसीडी का चुनाव जीत जाती है - ऐसे में भला किसी को भी क्यों शिकायत होगी?
लेकिन इसमें चुनाव आयोग का बस इतना ही योगदान होता है कि चीजें तरीके से हों. पेशेवर तरीके से. जैसे होना चाहिये. हार जीत का फैसला चुनाव आयोग नहीं करता, वो तो बस ऐसे इंतजाम करता है कि जनता एक स्वस्थ माहौल में फैसला ले सके. और एक दिन पोल बूथ पहुंच कर फैसला सुना भी सके.
अब तक चुनाव आयोग में सबसे क्रांतिकारी कदम के रूप में मुख्य चुनाव आयुक्त रहे टीएन शेषन को ही याद किया जाता है. अभी पिछले साल की ही तो बात है. एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी रही, देश में कई मुख्य चुनाव आयुक्त हुए हैं, लेकिन टी एन शेषन कभी-कभार ही होते हैं.
टीएन शेषन की ही तरह बिहार चुनाव का जिक्र आता है तो केजे राव का नाम लिया जाता है. 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में आयोग ने केजे राव को पर्यवेक्षक बना कर भेजा था. तब लूट-मार और रंगदारी के साथ साथ बूथ कैप्चरिंग भी बहुत बड़ी समस्या हुआ करती थी - ये वही दौर है जिसे बीजेपी और हाल तक नीतीश कुमार 'जंगलराज' का दौर बताते रहे हैं. वो दौर जब बिहार में पहले लालू यादव और फिर राबड़ी देवी मुख्यमंत्री हुआ करती थीं.
केजे राव पर बिहार में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने की जिम्मेदारी थी, और वो अपनी बुद्धि और अनुभव से बखूबी निभाये भी. अर्ध सैनिक बलों को तैनात कर ऐसा माहौल बना दिया कि लोग निडर होकर वोट डाल सकें - और कोई भी बाहुबली की बूथ कैप्चर कर लेने की हिम्मत न जुटा सके.
बिहार में ऐसा पहली बार हुआ था, जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन पाये. लेकिन लोकप्रियता के मामले में केजे राव ने उनको पीछे छोड़ दिया था. एक सर्वे में केजे राव को 62 फीसदी लोगों का वोट मिला, जबकि नीतीश कुमार को 29 फीसदी लोगों ने ही हीरो बताया था.
कुछ दिनों तक चले ईवीएम विवाद को छोड़ दें, और कभी कभार के फैसलों को लेकर भी संदेह का लाभ दे दें तो चुनाव आयोग का कामकाज संतोषजनक ही रहा है, लेकिन कई ऐसे मौके भी आये जब चुनाव आयोग जमाने के हिसाब से पिछड़ेपन का शिकार नजर आया - और ऐसा लगा जैसे वो अंग्रेजों के जमाने के नियमों में ऐसा रच बस चुका है कि सुधार की गुंजाइश ही नहीं समझ पाता.
लेकिन त्रिपुरा चुनाव के दौरान हुआ वाकये को ये क्रेडिट तो देना ही चाहिये जो चुनाव आयोग को अपग्रेड करने के लिए मजबूर कर दिया - और अब चुनाव आयोग चुनाव प्रचार को लेकर ज्यादा संजीदा नजर आने लगा है.
त्रिपुरा चुनाव के दौरान जिस तरह चुनाव आयोग हरकत में आया है, बहुत पहले से ही ऐसा व्यवहार करना चाहिये थे. लेकिन दुरूस्त होना भी कामयाबी की ही तरह हर सवालों का जवाब समझा जाना चाहिये. भूल चूक लेनी देनी. ऐसा ही समझ लेना चाहिये. काफी संतोष मिलता है.
चुनाव आयोग ने निगरानी बढ़ा दी है. अब तक जो राजनीतिक दल और उम्मीदवार चुनाव प्रचार खत्म हो जाने के बाद भी अलग अलग तरीके से वोटर तक पहुंचने की कोशिश में लगे रहते थे, आगे से ऐसा नहीं हो सकेगा.
जैसे त्रिपुरा में चुनाव प्रचार (Poll Campaign) खत्म हो जाने के बाद भी उम्मीदवार सोशल मीडिया (Social Media) के जरिये वोटर तक पहुंच बनाये हुए थे, न तो अब मेघालय चुनाव में ही वैसी सुविधा मिलेगी न ही नगालैंड में ही वोट डालते वक्त - और ये व्यवस्था अगले साल यानी 2024 के आम चुनाव में भी लागू रहेगी.
क्या है चुनाव आयोग का नया फरमान
त्रिपुरा चुनाव भी सारे राजनीतिक दल परंपरागत तरीके से ही लड़ रहे थे. चुनाव प्रचार का तौर तरीका भी पहले की ही तरह रहा. अपनी तरफ से सभी पार्टियों के उम्मीदवार आचार संहिता लागू होने के बाद से नियमों के दायरे में रह कर ही कैंपेन कर रही थीं.
लेकिन परंपरा में भी कुछ खामियां पैदा हो गयी थीं. शुरुआती दौर में सब कुछ ठीक रहा. पूरी तरह चाक चौबंद और दुरूस्त. तकनीक में तरक्की के साथ ही चीजें बदलती गयीं, और खामियां जगह बनाती गयीं.
जिन कमियों पर ध्यान दिलाया जाता रहा समय समय पर चुनाव आयोग की तरफ से एक्शन भी लिया जाता रहा. चुनाव आयोग के कई फैसले तो प्रभावित होने वाले संबंधित पक्षों के अलावा दर्शक दीर्घा में बैठे लोगों को भी अजीब लगा. चूंकि मकसद सही लगा, इसलिए सब लोग मान भी गये.
लेकिन त्रिपुरा चुनाव में मतदान से पहले और वोटिंग के दौरान नेताओं और उम्मीदवारों का ट्वीट करना ठीक नहीं लगा - और लगता है कि ऐसा पहली बार चुनाव आयोग को ये गलत लगा है. हो सकता है, पहले भी ऐसा महसूस हुआ हो, लेकिन एक्शन लेने को लेकर सहमति नहीं बन सकी हो.
त्रिपुरा में चुनाव आयोग की तरफ से भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और सीपीएम तीनों ही को नोटिस भेजा गया. और सभी से अलग अलग जवाब मांगा गया.
चुनाव आयोग के मुताबिक, वोटिंग से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार पर जो पाबंदी लग जाती है, वो सोशल मीडिया पर भी उतनी ही लागू होती है. वोटिंग के पहले के इन 48 घंटों को साइलेंट ऑवर्स कहा जाता है.
चुनाव आयोग के नये निर्देशों के अनुसार, चुनाव प्रचार बंद कर दिये जाने वाली अवधि में अगर कोई नियमों को नहीं मानता तो उसे आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का दोषी पाया जाएगा. ये जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 126 (1-बी) के उल्लंघन के दायरे में आता है.
चुनाव के दिन टीवी पर लाइव कैसे होते रहे?
यूपी चुनाव 2022 के दौरान ही कांग्रेस की तरफ से चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज करायी गयी थी. कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल की ओर से मुख्य निर्वाचन अधिकारी को दिए पत्र में कहा गया, दूसरे चरण की वोटिंग के दिन मुख्यमंत्री का आधे घंटे का इंटरव्यू समाचार एजेंसी एएनआई पर प्रसारित किया गया... जो तमाम न्यूज चैनलों ने लगातार प्रसारित हुआ, जबकि मतदान प्रक्रिया चालू थी.
शिकायती पत्र में ये भी कहा गया था कि ठीक वैसा ही पहले चरण के मतदान के दिन भी हुआ था और 10 फरवरी को भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का इंटरव्यू लाइव प्रसारित किया गया था - और शिकायती पत्र में ये भी याद दिलाया गया था कि राहुल गांधी के मामले में चुनाव आयोग का रुख क्या रहा.
कांग्रेस का आरोप रहा, यही चुनाव आयोग है जिसने गुजरात चुनाव के वक्त राहुल गांधी के इंटरव्यू के प्रसारण पर रोक लगा दी थी... तब चुनाव आयोग को जिस जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धाराएं याद आ रही थीं, उसी कानून की उन धाराओं को ही उसने ठंडे बस्ते में डाल दिया है.
ये चुनाव आयोग ही है जो पार्कों में लगे पत्थर के हाथियों और बीएसपी नेता मायावती की तरफ से लगवायी गयी मूर्तियों को तिरपाल से ढकवा दिया था. ये चुनाव आयोग ही है जिसने पश्चिम बंगाल चुनाव के दौरान कोविड वैक्सीनेशन सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगाने पर रोक लगा दी थी.
लेकिन ये चुनाव आयोग ही है जो 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में वोटिंग के दिन भी राहुल गांधी और अखिलेश यादव को रोड शो करने से कभी नहीं रोका - और टीवी चैनलों पर लाइव टेलीकास्ट होता रहा.
और 2018 में कैराना उपचुनाव से ठीक पहले चुनाव प्रचार बंद होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बागपत रैली को आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना - क्योंकि चुनाव क्षेत्र के लिए निर्धारित दूरी से रैली स्थल का फासला ज्यादा था.
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