भारत की राजनीति में दलीय व्यवस्था का उभार कालान्तर में बेहद रोचक ढंग से हुआ है. स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस का पूरे देश में एकक्षत्र राज्य हुआ करता था और विपक्ष के तौर पर राज गोपाल चारी की स्वतंत्रता पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सहित बहुत छोटे स्तर पर जनसंघ के गिने-चुने लोग होते थे. उस दौरान भारतीय राजनीति में एक दलीय व्यवस्था के लक्षण दिख रहे थे. सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आजाद हुए मुल्क को पंडित नेहरु के रूप में जो पहला प्रधानमंत्री मिला उसमे जनता अपने मसीहा की छवि देखने लगी थी.
नेहरु ने भी समाजवाद को प्रश्रय देकर खुद को जनता के करीब ले जाने की भरसक कोई कोशिश नही छोड़ी थी. लेकिन नेहरु की यह आभा अनुमान से कम से समय में ही फीकी पड़ने लगी. खैर, यह वैश्विक स्तर पर एवं भारत की राजनीति में भी सोशलिज्म बनाम कम्युनिज्म के विमर्श का दौर था. सोवियत के कम्युनिज्म और स्टालिन की आभा से भारत का कम्युनिज्म प्रभावित था तो वहीँ नेहरु इन दो विचारों के बीच का रास्ता तलाश रहे थे जो उन्हें भारतीय जनमानस के अनुकूल बना सके.
भारतीय जनता पार्टी |
खैर, कम्युनिज्म और सोशलिज्म के इस विमर्श में राजनीतिक रूप से राष्ट्रवाद अर्थात नेशनलिज्म का विमर्श उतना मजबूत नही हो पाया था लेकिन छोटे स्तर पर ही सही कश्मीर के बहाने यह मुद्दा जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी मजबूती से उठाने लगे थे. क्योंकि यही वो दौर था जब कश्मीर के भविष्य का निर्णय होना था. एक बार सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु इतने गुस्से में आ गये कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरफ इंगित करते हुए कह दिया कि, 'आई विल क्रश यू'. इसपर डॉ मुखर्जी उठे और बोले, आई विल क्रश द क्रशिंग मेंटालिटी'.
भारत की राजनीति में दलीय व्यवस्था का उभार कालान्तर में बेहद रोचक ढंग से हुआ है. स्वतंत्रता के पश्चात कांग्रेस का पूरे देश में एकक्षत्र राज्य हुआ करता था और विपक्ष के तौर पर राज गोपाल चारी की स्वतंत्रता पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी सहित बहुत छोटे स्तर पर जनसंघ के गिने-चुने लोग होते थे. उस दौरान भारतीय राजनीति में एक दलीय व्यवस्था के लक्षण दिख रहे थे. सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद आजाद हुए मुल्क को पंडित नेहरु के रूप में जो पहला प्रधानमंत्री मिला उसमे जनता अपने मसीहा की छवि देखने लगी थी.
नेहरु ने भी समाजवाद को प्रश्रय देकर खुद को जनता के करीब ले जाने की भरसक कोई कोशिश नही छोड़ी थी. लेकिन नेहरु की यह आभा अनुमान से कम से समय में ही फीकी पड़ने लगी. खैर, यह वैश्विक स्तर पर एवं भारत की राजनीति में भी सोशलिज्म बनाम कम्युनिज्म के विमर्श का दौर था. सोवियत के कम्युनिज्म और स्टालिन की आभा से भारत का कम्युनिज्म प्रभावित था तो वहीँ नेहरु इन दो विचारों के बीच का रास्ता तलाश रहे थे जो उन्हें भारतीय जनमानस के अनुकूल बना सके.
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खैर, कम्युनिज्म और सोशलिज्म के इस विमर्श में राजनीतिक रूप से राष्ट्रवाद अर्थात नेशनलिज्म का विमर्श उतना मजबूत नही हो पाया था लेकिन छोटे स्तर पर ही सही कश्मीर के बहाने यह मुद्दा जनसंघ के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी मजबूती से उठाने लगे थे. क्योंकि यही वो दौर था जब कश्मीर के भविष्य का निर्णय होना था. एक बार सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु इतने गुस्से में आ गये कि डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की तरफ इंगित करते हुए कह दिया कि, 'आई विल क्रश यू'. इसपर डॉ मुखर्जी उठे और बोले, आई विल क्रश द क्रशिंग मेंटालिटी'.
उस समय के राजनीतिक पंडितों अर्थात बुद्धिजीवियों को शायद इस बात का अनुमान भी नही होगा कि इस देश का भविष्य कांग्रेस के एकदलीय व्यवस्था की बजाय बहुदलीय व्यवस्था की तरफ तेजी से एवं नैसर्गिक रूप से बढेगा. लेकिन हुआ यही, साठ के दशक के उतरार्ध तक देश के तमाम राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बन चुकी थी. इंदिरा गांधी को कम्युनिस्टों से सहयोग लेकर सरकार चलाने की नौबत आ गयी थी. जनसंघ 2 सीट से १७ सीट तक पहुँच चुका था. समाजवादी ताकतें कांग्रेस की बजाय जनसंघ के करीब आने लगी थीं. भारतीय राजनीति के सबसे बड़े समाजवादी डॉ. लोहिया गैर-कांग्रेसवाद का बिगुल हर स्तर पर फूंक चुके थे. लोहिया ने कहा था, 'कांग्रेस को हराने के लिए अगर शैतान से भी हाथ मिलाना पड़े तो मिला लो; लोकनायक जयप्रकाश नारायण राष्ट्रीय स्वयं सेवक के प्रति आकर्षति होने लगे थे.
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जिस संघ को कांग्रेस ने अपने खिलाफ उठे जनाक्रोश को भटकाने के लिए फासीवादी कहा था उसी संघ के एक शिविर में जेपी 1959 में जा चुके थे. उन्होंने संघ को कभी अछूत नहीं माना. आपातकाल के बाद जब जेपी जेल से छूटे तो उन्होंने मुंबई में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था, ‘मैं आत्मसाक्ष्य के साथ कह सकता हूं कि संघ और जनसंघ वालों के बारे में यह कहना कि वे फासिस्ट लोग हैं, सांप्रदायिक हैं- ऐसे सारे आरोप बेबुनियाद हैं.’ तीन नवंबर 1977 को पटना में संघ के लिए जेपी ने कहा था कि नए भारत के निर्माण की चुनौती को स्वीकार किए हुए इस संगठन से मुझे बहुत कुछ आशा है. आपमें ऊर्जा है, आपमें निष्ठा है और आप राष्ट्र के प्रति समर्पित हैं.
दरअसल यह वो दौर था जब देश का आम जनमानस कांग्रेस के एकदलीय व्यस्व्था की उभार से मुक्ति पाना चाहता था एवं कम्युनिस्टों की विचारधारा उन्हें इस देश को भारतीयता के अनुरूप नही लगी. लिहाजा उस दौर में गैर-कांग्रेसवाद के खिलाफ उठे हर आन्दोलन को विपक्ष के उभार एवं स्थापना का आन्दोलन कहा जा सकता है. आमजन के मन में मजबूत विपक्ष के उभार की इच्छा थी और लोकतन्त्र के नाम पर एकदलीय तानाशाही को देश की जनता कतई स्वीकार नही कर पा रही थी.
परिणामत: आपातकाल के बाद इस देश में तमाम राजनीतिक विकल्प उभरकर आये जो तब कांग्रेस के खिलाफ थे. चूँकि कांग्रेस और कम्युनिस्ट दोनों के राजनितिक धरातल को वो आन्दोलन नुकसान पहुंचा रहा था लिहाजा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी तब इंदिरा गांधी के आपातकाल का समर्थन कर रही थी. लेकिन 1977 में इस देश की राजनीति में पहली बार केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी और विपक्ष के अस्तित्व की संभावना अंकुरित हुई और एकदलीय से बहुदलीय लोकतंत्र का बीज अंकुरित हुआ.
हालांकि यह सरकार अधिक दिनों तक नही चली लेकिन इसने इस देश में बहुदलीय व्यवस्था की जमीन जरुर तैयार कर दी थी. इस पूरे आन्दोलन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संघर्षों के बाद देश का आमजनमानस राष्ट्रवाद की मूल अवधारणा के साथ चलने को तैयार हो चुका था. जनता का विश्वास राष्ट्रवाद की विचारधारा में मजबूत हुआ और कम्युनिस्ट खारिज कर दिए गये. परिणामत: 6अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हुई और अटल बिहारी वाजपेयी इसके प्रथम अध्यक्ष बने. इसके बाद भाजपा ने राजनीतिक संघर्षों के अच्छे और बुरे दोनों दौर देखे. लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में जिस ढंग से दोतरफा तुष्टिकरण की राजनीति का प्रयास किया, उसने एकबार फिर देश की जनता के मानस में कांग्रेस के लिए नकारात्मकता का भाव भर दिया.
एक तरफ राजीव गांधी तुष्टिकरण की राजनीति कर रहे थे वहीँ बोफोर्स का जिन्न उन्हें छोड़ नही रहा था, लिहाजा फिर एकबार देश का मानस भाजपा की मजबूती के पक्ष में गया और भाजपा के समर्थन से वीपी सिंह की सरकार बनी. भाजपा के समर्थन से बनी इस सरकार ने वो कर दिखाया जो कांग्रेस में इंदिरा गांधी और राजिव गांधी दोनों न कर पाए थे. 1980 से ही मंडल कमिशन की सिफारिशे लम्बित थीं लेकिन उसे लागू किया भाजपा के समर्थन से चल रही एक सरकार ने. लेकिन जब मंडल लागू हुआ तो देश में विभाजन और द्वेष की ऐसी लकीर खिंचनी शुरू हो गयी थी जिसके परिणाम बहुत घातक थे.
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मंडल लागू होने की वजह से हिन्दू समुदाय दो फाड़ होने लगा था, लिहाजा हिन्दू एकजुटता के लिए वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध भाजपा ने मंदिर आन्दोलन के माध्यम से हिन्दुओं को एकजुट करने का प्रयास किया. लेकिन मंडल पर समर्थन पा चुके वीपी सिंह मंदिर पर भाग खड़े हुए और लाल कृष्ण अडवानी को गिरफ्तार कर लिया गया. ऐसे में भाजपा के पास समर्थन लेने के अलावा कोई चारा नही था. इसमें कोई शक नही भाजपा के उस मन्दिर आन्दोलन ने देश के हिन्दू समुदाय के बीच होने वाले एक द्वेष पूर्ण हिंसा को रोकने का कार्य किया था, जिसपर बहुत कम बहस की गयी है.
कांग्रेस के समक्ष उभरे तमाम दलों के बीच आज अगर भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी बनी है तो यह किसी करिश्मा की वजह से नही बल्कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बनी है. वरना बामसेफ से बहुजन समाज पार्टी तक, समाजवादी पार्टी सहित तमाम दल क्षेत्रीय बनकर रह गये. कम्युनिस्ट तो खैर समाप्त ही होने लगे हैं. लेकिन भाजपा आज 2016 में अगर देश की सबसे बड़ी पार्टी है, तो इसके पीछे मूल वजह है कि इस देश ने राष्ट्रीय विमर्श में अगर कांग्रेस के विकल्प की कोई संभावना देखी है तो वो भाजपा है. एकदलीय लोकतांत्रिक तानाशाही से बहुदलीय व्यवस्था एवं भारतीय राजनीति के इस परिवर्तन में इस विचारधारा की मजबूती आज इस बात की द्योतक है कि यह दल जनता के बीच पहुँच पाने में सर्वाधिक सफल रही है. भाजपा का अपना इतिहास पैंतीस साल का है लेकिन वैचारिकता के धरातल पर इसका मूल्यांकन जनसंघ के दौर से ही करना उचित था. पहले वर्षों विपक्ष के रूप में अपना दायित्व निभाने के बाद पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार में आई भाजपा से यह उम्मीद है कि वो सरकार में भी अपने दायित्वों का निर्वहन वैसे ही करे.
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