परोक्ष चुनावों की खासियत यही होती है कि नतीजे तकरीबन तय होते हैं. आंकड़े जिसके पक्ष में हैं उसकी जीत तय होती है. राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद की जीत और मीरा कुमार की हार इसीलिए पहले से ही पक्की मानी जा रही है.
चुनाव लड़ने का रिकॉर्ड कायम करने वालों को छोड़ दें तो राष्ट्रपति चुनाव में लड़ाई विचारधारा के बीच होती रही है. सिर्फ उस साल को छोड़ कर जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वोट देने वालों को अंतरात्मा से फैसले लेने की छूट दे रखी थी.
मौजूदा चुनाव में भी आरएसएस की विचारधारा वाली बीजेपी के खिलाफ 17 पार्टियों का ग्रुप अपने उम्मीदवार के साथ मैदान में है, लेकिन इसमें जातिगत समीकरणों के चलते विचारधारा वाली बात काफी पीछे छूट जाती दिख रही है.
विचारधारा वाली पॉलिटिक्स के बीच ही अरविंद केजरीवाल की धमाकेदार एंट्री हुई है जिनकी राजनैतिक शैली अब तक अलग मानी जाती रही है. हालांकि, वो भी वे ही हथकंडे अपनाते हैं जो अब तक प्रैक्टिस में रहे हैं. सबसे दिलचस्प बात ये है कि दलित राजनीति में उलझे राष्ट्रपति चुनाव में केजरीवाल अछूत बन चुके हैं.
न इधर के, न उधर के
खुद को अलग बनाये रखने के चक्कर में केजरीवाल दोनों ही मुख्य दलों सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस के प्रति आक्रामक बने रहते हैं. नतीजा ये हुआ है केजरीवाल की आम आदमी पार्टी न तो बीजेपी खेमे में है, न ही विपक्षी दलों के साथ. अब आप नेता मीडिया के सामने आकर सियासी आंसू भी बहाने लगे हैं - हमें तो कोई पूछ ही नहीं रहा.
वैसे इस बात का पता 26 मई को ही चल पाया जब सोनिया गांधी ने 17 राजनीतिक दलों के साथ दिल्ली में लंच का आयोजन किया. जब वहां केजरीवाल नहीं पहुंचे तो मीडिया ने पूछना शुरू किया. बताया गया कि उन्हें तो न्योता ही नहीं भेजा गया.
परोक्ष चुनावों की खासियत यही होती है कि नतीजे तकरीबन तय होते हैं. आंकड़े जिसके पक्ष में हैं उसकी जीत तय होती है. राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद की जीत और मीरा कुमार की हार इसीलिए पहले से ही पक्की मानी जा रही है.
चुनाव लड़ने का रिकॉर्ड कायम करने वालों को छोड़ दें तो राष्ट्रपति चुनाव में लड़ाई विचारधारा के बीच होती रही है. सिर्फ उस साल को छोड़ कर जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वोट देने वालों को अंतरात्मा से फैसले लेने की छूट दे रखी थी.
मौजूदा चुनाव में भी आरएसएस की विचारधारा वाली बीजेपी के खिलाफ 17 पार्टियों का ग्रुप अपने उम्मीदवार के साथ मैदान में है, लेकिन इसमें जातिगत समीकरणों के चलते विचारधारा वाली बात काफी पीछे छूट जाती दिख रही है.
विचारधारा वाली पॉलिटिक्स के बीच ही अरविंद केजरीवाल की धमाकेदार एंट्री हुई है जिनकी राजनैतिक शैली अब तक अलग मानी जाती रही है. हालांकि, वो भी वे ही हथकंडे अपनाते हैं जो अब तक प्रैक्टिस में रहे हैं. सबसे दिलचस्प बात ये है कि दलित राजनीति में उलझे राष्ट्रपति चुनाव में केजरीवाल अछूत बन चुके हैं.
न इधर के, न उधर के
खुद को अलग बनाये रखने के चक्कर में केजरीवाल दोनों ही मुख्य दलों सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस के प्रति आक्रामक बने रहते हैं. नतीजा ये हुआ है केजरीवाल की आम आदमी पार्टी न तो बीजेपी खेमे में है, न ही विपक्षी दलों के साथ. अब आप नेता मीडिया के सामने आकर सियासी आंसू भी बहाने लगे हैं - हमें तो कोई पूछ ही नहीं रहा.
वैसे इस बात का पता 26 मई को ही चल पाया जब सोनिया गांधी ने 17 राजनीतिक दलों के साथ दिल्ली में लंच का आयोजन किया. जब वहां केजरीवाल नहीं पहुंचे तो मीडिया ने पूछना शुरू किया. बताया गया कि उन्हें तो न्योता ही नहीं भेजा गया.
सवाल ये है कि आखिर केजरीवाल के इस राष्ट्रपति चुनाव में अछूत बन जाने के कारण हो सकते हैं?
क्या इसलिए कि केजरीवाल के साथ मायावती, मुलायम सिंह या अब अखिलेश यादव कहें, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार जैसे नेताओं की तरह कोई जातीय जनाधार नहीं है?
केजरीवाल अछूत क्यों
तो क्या केजरीवाल यूपी और बिहार जैसे राज्यों से इसीलिए दूरी बनाये रखते हैं क्योंकि वहां एक एक वोट जातीय समीकरण से ही तय होते रहे हैं. यूपी चुनाव में हिस्सा न लेने को लेकर केजरीवाल कह चुके हैं कि उनके पास बैंडविथ नहीं है. क्या केजरीवाल के बैंडविथ का मतलब जातीय जनाधार ही है? अगर ऐसा है तो विपक्षी ग्रुप में ममता बनर्जी क्यों हैं? ममता बनर्जी तो लालू, मुलायम या मायावती वाली राजनीति नहीं करतीं. ममता के विरोधी जरूर उन्हें मुस्लिमों का करीबी ठहराने पर तुले हुए हैं, लेकिन चुनाव जीत कर उन्होंने सभी को गलत साबित कर दिया है.
केजरीवाल हैं तो हरियाणा से लेकिन राजनीति के लिए उन्होंने दिल्ली को तरजीह दी. केजरीवाल ने एक बड़ा मुद्दा उठाया - भ्रष्टाचार. भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों ने एक बार उन्हें भगोड़ा समझ लेने के बावजूद हाथों हाथ लिया और जी खोल कर वोट दिये.
दिल्ली के बाद हरियाणा चुनाव में उन्हें सिफर ही हासिल हो पाया. बिहार चुनाव हुआ जब केजरीवाल की लोकप्रियता चोटी पर थी लेकिन उन्होंने खुद को नीतीश कुमार के प्रचार तक ही सीमित रखा. उसके बाद कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए भी लेकिन केजरीवाल अपने प्रोजेक्ट पर काम करते रहे. जब यूपी के साथ पांच राज्यों के चुनाव हुए तो उन्होंने पंजाब को चुना.
पंजाब में भी ड्रग्स और भ्रष्टाचार जैसे गर्मागर्म टॉपिक उन्हें सूट करते थे. पंजाब के साथ गोवा को चुनने के पीछे भी केजरीवाल की सोच दिल्ली जैसी ही रही होगी. कहने को तो पंजाब में भी दलितों की बड़ी आबादी है लेकिन कांशीराम को दलित राजनीति के लिए यूपी का रुख करना पड़ा था.
केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के संस्थापकों में उन लोगों का खासा प्रभाव रहा जिनका झुकाव वामपंथ की ओर देखा गया है. राजनीति में आने से पहले से ही केजरीवाल को कांग्रेस बीजेपी की बी टीम बताती रही तो बाद के दिनों में बीजेपी ऐसा ही रिश्ता कांग्रेस से जोड़ कर बताने लगी. केजरीवाल दोनों को बराबर कोसते रहे.
वैसे राष्ट्रपति चुनाव में केजरीवाल के पास भी तकरीबन उतने ही वोट हैं जितने मायावती के पास. केजरीवाल के पास 8922 वोट हैं जबकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी के पास 9399 वोट. विपक्षी खेमे में केजरीवाल को लेकर ममता तो पॉजिटिव रही हीं, शरद पवार जैसे नेता भी नरम हो चुके थे लेकिन सोनिया गांधी ने सीधे सीधे खारिज कर दिया.
दरअसल, आप को पार्टी विद डिफरेंस बनने की रेस में केजरीवाल ने दोनों दलों की निजी नापसंदगी भी मोल ली. कांग्रेस को केजरीवाल फूटी आंख इसलिए नहीं सुहाते क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले राबर्ट वाड्रा को विवादों में घसीटा. केजरीवाल से पहले वाड्रा को लेकर चर्चाएं कभी सार्वजनिक मंचों तक नहीं पहुंचती रहीं. और बीजेपी भला उस शख्स के बारे में क्या राय बनाएगी जो उसके सबसे लोकप्रिय नेता को कायर और मनोरोगी बता डाला हो.
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