आज भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukherjee) ने अपनी संसारिक यात्रा समाप्त कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया. इसके साथ ही भारत की राजधानी का एक अध्याय भी समाप्त हो गया. लेकिन जाते जाते प्रणब दा एक बात साबित कर गए कि सोशल मीडिया (Social Media) के भड़काऊ दौर में भी लोग किसी पार्टी से ऊपर उठ कर किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत स्वभाव का सम्मान करना जानते हैं. कांग्रेस (Congress) और बीजेपी (BJP) का वाक युद्ध सोशल मीडिया के सबसे चर्चित मुद्दों में से एक है. इन पार्टियों के समर्थक एक दूसरे पर निशाना साधने का एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते. लेकिन प्रणब दा की कट्टर कांग्रेसी छवि के बावजूद भी आज सभी लोग उन्हें नम आंखों से श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं.
प्रणब मुखर्जी बनाम लाल कृष्ण आडवाणी
सही मायनों में देखा जाए तो प्रणब मुखर्जी और लाल कृष्ण आडवाणी में सिर्फ राष्ट्रपति के पद का ही अंतर है. अगर प्रणब दा को ये सम्मान ना मिला होता तो निश्चित ही लोग आज उनको कांग्रेस के आडवाणी कह कर संबोधित करते. जिस तरह अडवाणी अपनी पार्टी के लिए ताऊम्र समर्पित होने के बाद भी प्रधानमंत्री पद ना पा सके ऐसा ही हाल प्रणब दा का भी रहा.
पीएम पद को लेकर दोनों पर हाथ आया मगर मुंह को ना लगा वाली कहावत फिट बैठती रही. प्रणब मुखर्जी इंदिरा गांधी के खासम खास और कांग्रेस के संकटमोचन होने के बावजूद भी दो दो बार पीएम पद पाते पाते रह गये. पहली बार ये तब हुआ जब 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई.
1969 में राजनीति में प्रवेश करने वाले प्रणब दा उस समय तक कांग्रस में अपनी अच्छी खासी धाक बना चुके थे. सबका यही अनुमान था कि इंदिरा गांधी के बाद प्रणब दा ही...
आज भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukherjee) ने अपनी संसारिक यात्रा समाप्त कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया. इसके साथ ही भारत की राजधानी का एक अध्याय भी समाप्त हो गया. लेकिन जाते जाते प्रणब दा एक बात साबित कर गए कि सोशल मीडिया (Social Media) के भड़काऊ दौर में भी लोग किसी पार्टी से ऊपर उठ कर किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत स्वभाव का सम्मान करना जानते हैं. कांग्रेस (Congress) और बीजेपी (BJP) का वाक युद्ध सोशल मीडिया के सबसे चर्चित मुद्दों में से एक है. इन पार्टियों के समर्थक एक दूसरे पर निशाना साधने का एक भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते. लेकिन प्रणब दा की कट्टर कांग्रेसी छवि के बावजूद भी आज सभी लोग उन्हें नम आंखों से श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं.
प्रणब मुखर्जी बनाम लाल कृष्ण आडवाणी
सही मायनों में देखा जाए तो प्रणब मुखर्जी और लाल कृष्ण आडवाणी में सिर्फ राष्ट्रपति के पद का ही अंतर है. अगर प्रणब दा को ये सम्मान ना मिला होता तो निश्चित ही लोग आज उनको कांग्रेस के आडवाणी कह कर संबोधित करते. जिस तरह अडवाणी अपनी पार्टी के लिए ताऊम्र समर्पित होने के बाद भी प्रधानमंत्री पद ना पा सके ऐसा ही हाल प्रणब दा का भी रहा.
पीएम पद को लेकर दोनों पर हाथ आया मगर मुंह को ना लगा वाली कहावत फिट बैठती रही. प्रणब मुखर्जी इंदिरा गांधी के खासम खास और कांग्रेस के संकटमोचन होने के बावजूद भी दो दो बार पीएम पद पाते पाते रह गये. पहली बार ये तब हुआ जब 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई.
1969 में राजनीति में प्रवेश करने वाले प्रणब दा उस समय तक कांग्रस में अपनी अच्छी खासी धाक बना चुके थे. सबका यही अनुमान था कि इंदिरा गांधी के बाद प्रणब दा ही प्रधानमंत्री पद के असल दावेदार होंगे लेकिन राजीव गांधी से ज़्यादा अनुभवी होने के बाद भी प्रणब दा को पीएम पद नसीब नहीं हुआ. राजीव गांधी के दौर में कांग्रेस से दूरियां बढ़ने और पीवी नरसिम्हा राव के समय दोबारा से कांग्रेस में अपनी जगह पक्की करने वाले प्रणब दा को सोनिया गांधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस से कुछ उम्मीदें दिखीं.
लोगों को लगा कि सोनिया अगर खुद प्रधानमंत्री नहीं बनतीं तो इस बार प्रणब दा का नंबर पक्का है. मगर सभी अनुमान एक बार फिर से गलत साबित हुए और इस बार डॉ मनमोहन सिंह ने बाजी मार ली. अंत में प्रणब दा को 2012 में कांग्रेस की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया गया और वह राष्ट्रपति चुने गये. इस तरह उन्हें अपनी कर्तव्यनिष्ठा का फल मिला.
संघ के खिलाफ भी संघ के साथ भी
भारत के 13वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने वाले प्रणब मुखर्जी के आरएसएस से रिश्ते बनते बिगड़ते रहे हैं. एक कांग्रेसी होने के नाते प्रणब मुखर्जी भी संघ के कटु आलोचक रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें वो प्रणब दा ही थे जिन्होंने सांप्रदायिकता और हिंसा में संघ की भूमिका पर सवाल उठाए थे. उन्होंने ही संघ को राष्ट्र विरोधी बताया था और कहा था कि ऐसे किसी भी संगठन की देश को ज़रूरत नहीं.
लेकिन शायद समय के साथ प्रणब दा ने ये सीख लिया था कि हर जगह कटुवचन बोलना सही नहीं, कई बार समय के बहाव से साथ भी बहना ज़रूरी होता है. ऐसी ही सोच ने उन्हें कभी धर्म संकट में नहीं पड़ने दिया. 2018 में प्रणब मुखर्जी को आरएसएस के 'संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय' के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होने का न्योता मिला. उस समय की इस खबर ने सबको चौंका दिया और इससे भी चौंकाने वाली बात ये रही कि प्रणब दा ने ये न्योता स्वीकार भी कर लिया.
नागपुर में हो रहे इस कार्यक्रम में शामिल होने से पहले बहुत तरह के कयास लगाए गये लेकिन प्रणब दा ने भी साबित कर दिया कि वह राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं. उन्होंने ऐसी स्पीच दी कि उससे उनकी पार्टी कांग्रेस को भी बुरा नहीं लगा और संघ भी खुश हो गया. हालांकि विरोध के भी कई स्वर उठे लेकिन इसका प्रणब दा पर रत्ती भर फर्क ना दिखा.
वित्त मंत्री से लेकर विदेश मंत्री तक का पदभार संभालने वाले प्रणब मुखर्जी पहले ऐसे वित्त मंत्री थे जिन्होंने 5 बार देश का बजट पेश किया. पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में एक क्लर्क की नौकरी से देश के सबसे शीर्ष पद तक पहुंचने का सफर ही उनकी मेहनत की कहानी कहता है. संघ से बिगाड़ ना करना, किसी तरह के विवाद से दूरी बना कर रखना, मौके की नज़ाकत के हिसाब से अपनी बात रखना और राजनीति को अच्छे से समझना, यही सब कारण थे कि आज प्रणब दा के लिए हर कोई अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है.
भारत रत्न, देश के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को हम भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. देश ने उनके रूप में अपना एक महान नेता खोया है.
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