महाराष्ट्र की राजनीति में आया भूचाल महाविकास आघाड़ी सरकार गिरने के साथ अब शांत हो चुका है. शिवसेना के बागी विधायक एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं. और, शिवसेना की इस नई सरकार को भाजपा का समर्थन प्राप्त है. माना जा रहा है कि भाजपा ने एकनाथ शिंदे को सीएम बनाकर महाराष्ट्र में एक बड़े गेम प्लान का आगाज कर दिया है. जो बीएमसी चुनावों से लेकर 2024 के आम चुनाव तक जाएगा. खैर, इसकी पटकथा तो उद्धव ठाकरे के सीएम पद के साथ ही विधान परिषद की सदस्यता से भी इस्तीफा देने के साथ ही लिख दी गई थी. सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा ने जोर पकड़ा है कि महाविकास आघाड़ी सरकार गिरने के साथ ही ठाकरे परिवार की राजनीति पर फुलस्टॉप लग जाएगा. लेकिन, इन तमाम बातों से इतर महाविकास आघाड़ी सरकार का गिरना उद्धव ठाकरे का सौभाग्य ही है. आइए जानते हैं ऐसा क्यों है...
शिवसेना का वोटबैंक हिंदू वोटर ही है
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर महाविकास आघाड़ी सरकार तो बना ली थी. लेकिन, इस गठबंधन की वजह से शिवसेना को अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा को सेकुलर विचारों में तब्दील करना पड़ा था. ढाई साल की सरकार में सीएम उद्धव ठाकरे को औरंगाबाद का नाम बदलने से लेकर हिंदुत्व के पुरोधा रहे वीर सावरकर के नाम तक से दूरी बनाकर चलना पड़ा था. क्योंकि, एनसीपी और कांग्रेस की ओर से सरकार गिराने की 'बंदर घुड़की' मिल जाती थी. लेकिन, इसकी वजह से शिवसेना का एकमात्र हिंदू वोटबैंक उससे छिटकने लगा था. इसका इशारा हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव से लेकर विधान परिषद के चुनाव में हिंदुत्व के नाम पर ही शिवसेना के बगावत करने वाले विधायकों से मिल गया था. शिवसेना को पता है कि उसका वोटबैंक हिंदू वोटर ही है. यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने आखिरी कैबिनेट बैठक में कांग्रेस और एनसीपी के विरोध जताने के बावजूद औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित कर मराठी और हिंदू वोटरों को साथ में...
महाराष्ट्र की राजनीति में आया भूचाल महाविकास आघाड़ी सरकार गिरने के साथ अब शांत हो चुका है. शिवसेना के बागी विधायक एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बन गए हैं. और, शिवसेना की इस नई सरकार को भाजपा का समर्थन प्राप्त है. माना जा रहा है कि भाजपा ने एकनाथ शिंदे को सीएम बनाकर महाराष्ट्र में एक बड़े गेम प्लान का आगाज कर दिया है. जो बीएमसी चुनावों से लेकर 2024 के आम चुनाव तक जाएगा. खैर, इसकी पटकथा तो उद्धव ठाकरे के सीएम पद के साथ ही विधान परिषद की सदस्यता से भी इस्तीफा देने के साथ ही लिख दी गई थी. सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा ने जोर पकड़ा है कि महाविकास आघाड़ी सरकार गिरने के साथ ही ठाकरे परिवार की राजनीति पर फुलस्टॉप लग जाएगा. लेकिन, इन तमाम बातों से इतर महाविकास आघाड़ी सरकार का गिरना उद्धव ठाकरे का सौभाग्य ही है. आइए जानते हैं ऐसा क्यों है...
शिवसेना का वोटबैंक हिंदू वोटर ही है
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर महाविकास आघाड़ी सरकार तो बना ली थी. लेकिन, इस गठबंधन की वजह से शिवसेना को अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा को सेकुलर विचारों में तब्दील करना पड़ा था. ढाई साल की सरकार में सीएम उद्धव ठाकरे को औरंगाबाद का नाम बदलने से लेकर हिंदुत्व के पुरोधा रहे वीर सावरकर के नाम तक से दूरी बनाकर चलना पड़ा था. क्योंकि, एनसीपी और कांग्रेस की ओर से सरकार गिराने की 'बंदर घुड़की' मिल जाती थी. लेकिन, इसकी वजह से शिवसेना का एकमात्र हिंदू वोटबैंक उससे छिटकने लगा था. इसका इशारा हाल ही में हुए राज्यसभा चुनाव से लेकर विधान परिषद के चुनाव में हिंदुत्व के नाम पर ही शिवसेना के बगावत करने वाले विधायकों से मिल गया था. शिवसेना को पता है कि उसका वोटबैंक हिंदू वोटर ही है. यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने आखिरी कैबिनेट बैठक में कांग्रेस और एनसीपी के विरोध जताने के बावजूद औरंगाबाद और उस्मानाबाद का नाम बदलने का प्रस्ताव पारित कर मराठी और हिंदू वोटरों को साथ में जोड़े रखने का दांव खेल दिया था.
कांग्रेस और NCP के साथ ज्यादा रहते, तो वोटबैंक ही खिसक जाता
महाविकास आघाड़ी सरकार में शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे सीएम पद जरूर पा गए थे. लेकिन, कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन की वजह से शिवसेना अपना पुराना रूप खोती जा रही थी. जो शिवसेना बालासाहेब ठाकरे के समय में खुलकर हिंदुत्व के मुद्दों को लेकर मुखर रहती थी. वो पार्टी एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन में सबसे ज्यादा सीटें होने के बावजूद कमजोर स्थिति में नजर आती थी. इतना ही नहीं, एनसीपी के नेताओं की भ्रष्टाचार के मामलों में हुई गिरफ्तारी से लेकर कांग्रेस के विरोध पर भी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को न चाहते हुए भी महाविकास आघाड़ी सरकार बचाने के लिए समर्थन करना पड़ता था. कहना गलत नहीं होगा कि किसी भी राज्य का वोटर हिंदुत्व जैसे मुद्दों पर एकबार समझौता कर सकता है, लेकिन, जब 2014 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के मामलों से घिरी कांग्रेस सरकार को जनता ने उखाड़ फेंका. तो, शिवसेवा की एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन वाली महाविकास आघाड़ी सरकार के लिए भी राह आसान नहीं नजर आ रही थी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना जितने दिन रहती, उसका वोटर पार्टी से स्थायी रूप से दूर हो जाता.
बागी विधायकों के नेता अब भी उद्धव ठाकरे
शिवसेना के बागी विधायक एकनाथ शिंदे के गुट के तमाम विधायकों ने महाविकास आघाड़ी सरकार के गिरने से पहले आखिरी समय तक यही कहा था कि उद्धव ठाकरे ही उनके नेता है. लेकिन, शिवसेना को एनसीपी और कांग्रेस का साथ छोड़ना होगा. भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने के बावजूद शिंदे गुट के बागी विधायक दिलीप केसरकर ने कहा कि हम उद्धव ठाकरे को अब भी अपना नेता मानते हैं. देखा जाए, तो केसरकर का ये बयान साफ इशारा है कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पास अब भी अपनी पार्टी को दुरुस्त करने का मौका है. उद्धव ठाकरे चाहें, तो शिवसेना को एकबार फिर से अपने बलबूते खड़ा कर सकते हैं. और, उनके पास भविष्य में इन बागी विधायकों के भी वापस आ जाने का रास्ता खुला हुआ है.
BMC चुनाव में खुलकर लड़ सकती है शिवसेना
मुंबई में इसी साल बीएमसी चुनाव होने हैं. और, बीएमसी पर दशकों से शिवसेना का एकछत्र राज्य रहा है. उद्धव ठाकरे के पास शिवसेना में हुई इस टूट के बाद बीएमसी चुनाव में खुद को साबित करने का एक बड़ा मौका है. संभव है कि उद्धव ठाकरे चाहेंगे कि बीएमसी चुनाव में शिवसेना खुलकर मैदान में ताल ठोंकेगी. और, ऐसा करने के लिए उसे एनसीपी और कांग्रेस का लिहाज करने की भी जरूरत नहीं है. क्योंकि, महाविकास आघाड़ी सरकार के डूबने के साथ ही गठबंधन की तमाम शर्ते भी शिवसेना के ऊपर से हट चुकी हैं.
नेतृत्व क्षमता से लेकर बगावत को रोकने की रणनीति कर सकते हैं दुरुस्त
ढाई साल की महाविकास आघाड़ी सरकार में उद्धव ठाकरे हमेशा कहते रहे कि उन्हें कांग्रेस और एनसीपी की वजह से सीएम पद स्वीकारना पड़ा. लेकिन, अब महाविकास आघाड़ी सरकार के गिरने से सबक लेकर उद्धव ठाकरे के सामने अपनी नेतृत्व क्षमता को दुरुस्त करने का एक बड़ा मौका है. बीएमसी चुनाव में अपनी ताकत को बढ़ाकर उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी को अपनी नेतृत्व क्षमता का अहसास करा सकते हैं. इतना ही नहीं, पार्टी में बगावत को रोकने के लिए क्या करना है और क्या नहीं करना चाहिए जैसी चीजों को भी शिवसेना प्रमुख भली-भांति सीख चुके होंगे. तो, अब उद्धव ठाकरे आसानी से भविष्य में आने वाली ऐसी चुनौतियों से निपट सकेंगे.
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