गांधीवादी दायरे में बंधा आंदोलन भी अहिंसक नहीं हो पाता. इतिहास गवाह है, देश की आजादी की लड़ाई में अहिंसा के पुजारी महत्मा गांधी के आंदोलन के प्रदर्शन भी हिंसा की लपेट में आ गए थे. और गांधी जी पर हिंसा फैलाने, उपद्रव पैदा करने के आरोप लगे थे. तो कैसे उम्मीद की जाए कि आज के युग का कोई भी बड़ा आंदोलन हिंसा और टक्कर से अछूता हो सकता है? किसी भी बड़े आंदोलन में सरकार और आंदोलनकारियों के बीच टकराव आम बात है. मामला जब सुलझ नहीं पाता और हर बार की बातचीत बेनतीजा रहती है तो दोनों ताकतें एक दूसरे के साथ ज्यादती करती हैं. ऐसे में स्वतंत्र गणराज्य की 72 वर्ष पुरानी परिकल्पना का नाजायज फायदा उठाया जाता है. कभी आंदोलनकारी संवैधानिक अधिकारों की सरहदों को तोड़ते हैं तो कभी सरकारें अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठाकर पुलिस के जरिए दमनकारी रवैया अपनाती है.
गणतंत्र दिवस के खूबसूरत मौके पर किसान आंदोनकारियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसा, टकराव की बदसूरत झांकियों की अलग-अलग तस्वीरे हैं. ये आप पर निर्भर है कि आप किस तस्वीर से अपने किस नजरिए को पेश करें. पुलिस-आंदोनकारियों के बीच टकराव भी दोनों हाथों से बजने वाली तालियों की तरह दोनों तरफ से पैदा होता है. तस्वीरों में पुलिस की बर्बरता भी दिखती है और आंदोलनकारियों का उपद्रव भी.
यदि आप किसान आंदोलन को पहले से ही गलत मानते हैं तो किसानों को आतंकी,खालिस्तानी, उपद्रवी और दंगाई साबित करने के लिए सिर्फ वो तस्वीरें पेश कीजिए जिसमें आंदोलनकारी किसानों का उग्र रूप दिख रहा है. और यदि आप सरकार को पहले से ही नापसंद करते हैं तो इस टकवाव की तस्वीरों में सिर्फ वो तस्वीरें प्रस्तुत कीजिए जिसमें पुलिस सख्ती से बल का प्रयोग कर रही हो. बुरी...
गांधीवादी दायरे में बंधा आंदोलन भी अहिंसक नहीं हो पाता. इतिहास गवाह है, देश की आजादी की लड़ाई में अहिंसा के पुजारी महत्मा गांधी के आंदोलन के प्रदर्शन भी हिंसा की लपेट में आ गए थे. और गांधी जी पर हिंसा फैलाने, उपद्रव पैदा करने के आरोप लगे थे. तो कैसे उम्मीद की जाए कि आज के युग का कोई भी बड़ा आंदोलन हिंसा और टक्कर से अछूता हो सकता है? किसी भी बड़े आंदोलन में सरकार और आंदोलनकारियों के बीच टकराव आम बात है. मामला जब सुलझ नहीं पाता और हर बार की बातचीत बेनतीजा रहती है तो दोनों ताकतें एक दूसरे के साथ ज्यादती करती हैं. ऐसे में स्वतंत्र गणराज्य की 72 वर्ष पुरानी परिकल्पना का नाजायज फायदा उठाया जाता है. कभी आंदोलनकारी संवैधानिक अधिकारों की सरहदों को तोड़ते हैं तो कभी सरकारें अपनी ताकत का नाजायज फायदा उठाकर पुलिस के जरिए दमनकारी रवैया अपनाती है.
गणतंत्र दिवस के खूबसूरत मौके पर किसान आंदोनकारियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच हिंसा, टकराव की बदसूरत झांकियों की अलग-अलग तस्वीरे हैं. ये आप पर निर्भर है कि आप किस तस्वीर से अपने किस नजरिए को पेश करें. पुलिस-आंदोनकारियों के बीच टकराव भी दोनों हाथों से बजने वाली तालियों की तरह दोनों तरफ से पैदा होता है. तस्वीरों में पुलिस की बर्बरता भी दिखती है और आंदोलनकारियों का उपद्रव भी.
यदि आप किसान आंदोलन को पहले से ही गलत मानते हैं तो किसानों को आतंकी,खालिस्तानी, उपद्रवी और दंगाई साबित करने के लिए सिर्फ वो तस्वीरें पेश कीजिए जिसमें आंदोलनकारी किसानों का उग्र रूप दिख रहा है. और यदि आप सरकार को पहले से ही नापसंद करते हैं तो इस टकवाव की तस्वीरों में सिर्फ वो तस्वीरें प्रस्तुत कीजिए जिसमें पुलिस सख्ती से बल का प्रयोग कर रही हो. बुरी तरह से लोगों को लाठियां मार रही हो. या टकराव मे मारे गये की लाश पेश कर सरकार को दमनकारी साबित किया जाता है.
जो भी हो पर दिल्ली में विस्फोटक होता किसान आंदोलन बड़ी फिक्र पैदा करने लगा है. ये हालात कई सवाल भी पैदा कर रहे हैं. कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ करीब दो महीनें से शांति से चल रहा किसान आंदोलन राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस के दिन ही हिंसक क्यों हुआ ? किसान संगठनों ने गणतंत्र दिवस के दिन ही दिल्ली में ट्रक्टर रैली निकालने का फैसला क्यों किया?
ऐसे तमाम सवाल और इसके जवाब में ये बात भी महसूस की जा सकती है कि जब से भाजपा सरकारों का दौर चला है तब से सरकार के किसी भी कानून या फैसले के खिलाफ कोई भी बड़ा आंदोलन राष्ट्रीय पर्व को क्यों भुनाने की कोशिश करता है.
इसकी वजह है. भाजपा सरकारों के खिलाफ मुखर किसी भी ताकत को राष्ट्रविरोधी साबित करने का रिवाज बढ़ गया है. यही कारण हैं कि भाजपा सरकार के खिलाफ हर आंदोलन और आंदोनकारी पहले ही खुद को राष्ट्रवादी और देशभक्ति के प्रमाण देने की कोशिश करते हैं. आंदोलनकारी तिरंगे को अपनी ताकत बनाता है और स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को अपने आंदलन को धार देता है.
शायद इसलिए ही किसान आंदोलन के रणनीतिकारों ने भी गणतंत्र दिवस पर ट्रक्टर रैली निकालने का फैसला किया था. किसान संगठनों द्वारा गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रक्टर रैली की इजाजत के लिए शासन/प्रशासन से जो वादे किए थे उनमें से ज्यादातर वादे टूटे और हिंसा का खूब तांडव हुआ. इस कड़वे सच को भी आप दो नजरियों से देख सकते हैं. पहला ये कि बेकाबू किसानों ने नियम और वादे तोड़कर हिंसा का माहौल पैदा करके किसान आंदोलन पर दाग लगा दिया.
या फिर ये भी कहा जा रहा है कि किसानों से सरकार हारती नजर आ रही है. किसानों ने लाल किले पर अपना झंडा फहरा दिया और सरकार की पुलिस कुछ नहींं कर सकी. हांलाकि लालकिले में किसानों ने जो तीन झंडे फहराए उसमें तिरंगा, किसान यूनियन का झंडा और सिक्खों का धार्मिक निशान साहिब लहलहाया गया. ऐसे में सरकार समर्थकों ने धार्मिक झंडे को मुद्दा बनाकर इस पूरे आंदोलन को सिक्ख धर्म तक सीमित रखने का मौका तलाश लिया.
ये भी कहा गया कि गणतंत्र दिवस पर तिरंगे के बजाय धार्मिक झंडा गाड़ना राष्ट्रविरोधी है. और इस तरह एक बार फिर राज्यद्रोह को राष्ट्रद्रोह साबित करने की एक बहस छिड़ गई. खैर स्वतंत्र गणराज्य के जश्न के दिन विरोध की स्वतंत्रता के दायरे टूट गये. और घायल किसान और हलकान जवानों की झांकियां दुखी करने वाली थीं.
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