26 मई को किसान आंदोलन के छह महीने पूरे होने जा रहे हैं - और 2014 से दिन, महीने और साल जोड़ कर देखें तो मोदी सरकार के सात साल भी उसी दिन पूरे होने जा रहे हैं. वैसे 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी नयी पारी की शुरुआत 30 मई को की थी.
अब खबर ये है कि किसान संगठनों ने 26 मई को काला दिवस मनाने का ऐलान कर रखा है - हांलाकि, इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को पत्र लिख कर किसानों ने नये सिरे से बातचीत की पेशकश भी की है.
किसानों और मोदी सरकार के प्रतिनिधियों के बीच आखिरी दौर की बातचीत 22 जनवरी को हुई थी - और वो 11वें दौर की बातचीत थी लेकिन वो भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी.
किसान नेताओं के साथ सरकार की तरफ से बातचीत की अगुवाई कर रहे कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बातचीत के दौरान 12 संशोधनों के साथ साथ तीनों कृषि कानूनों को 18 महीने तक होल्ड करने के लिए तैयार दिखे थे - लेकिन लगे हाथ ये भी साफ कर दिया था कि सरकार के पास इससे बेहतर कोई प्रस्ताव नहीं है.
किसान संगठन शुरू से ही तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर अड़े हुए हैं. वे भले ही नये सिरे से बातचीत के लिए तैयार नजर आयें, लेकिन कानूनों की वापसी की मांग पर टस से मस होने को तैयार नहीं हैं.
संसद के बजट सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि किसानों के साथ बातचीत बस एक फोन कॉल की दूरी पर है. देखें तो प्रधानमंत्री मोदी ने ये बात अपनी तरफ से या नये सिरे से नहीं कही थी, बल्कि अपने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की बातों को ही दोहराया था. किसानों के साथ आखिरी मुलाकात में ही नरेंद्र सिंह तोमर ने चलते चलते ये बात कही थी.
बाद में किसान नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) पूछने लगे थे कि वो कौन सा फोन नंबर है जिस पर बात करनी है - नंबर मिले तो बात की जाये. जब सरकार की तरफ से कोई नरम रुख नहीं दिखा तो राकेश टिकैत ने सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से देश भर में महापंचायत के नाम पर दौरे शुरू किये. बाद...
26 मई को किसान आंदोलन के छह महीने पूरे होने जा रहे हैं - और 2014 से दिन, महीने और साल जोड़ कर देखें तो मोदी सरकार के सात साल भी उसी दिन पूरे होने जा रहे हैं. वैसे 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी नयी पारी की शुरुआत 30 मई को की थी.
अब खबर ये है कि किसान संगठनों ने 26 मई को काला दिवस मनाने का ऐलान कर रखा है - हांलाकि, इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को पत्र लिख कर किसानों ने नये सिरे से बातचीत की पेशकश भी की है.
किसानों और मोदी सरकार के प्रतिनिधियों के बीच आखिरी दौर की बातचीत 22 जनवरी को हुई थी - और वो 11वें दौर की बातचीत थी लेकिन वो भी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी.
किसान नेताओं के साथ सरकार की तरफ से बातचीत की अगुवाई कर रहे कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने बातचीत के दौरान 12 संशोधनों के साथ साथ तीनों कृषि कानूनों को 18 महीने तक होल्ड करने के लिए तैयार दिखे थे - लेकिन लगे हाथ ये भी साफ कर दिया था कि सरकार के पास इससे बेहतर कोई प्रस्ताव नहीं है.
किसान संगठन शुरू से ही तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग पर अड़े हुए हैं. वे भले ही नये सिरे से बातचीत के लिए तैयार नजर आयें, लेकिन कानूनों की वापसी की मांग पर टस से मस होने को तैयार नहीं हैं.
संसद के बजट सत्र से पहले एक सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि किसानों के साथ बातचीत बस एक फोन कॉल की दूरी पर है. देखें तो प्रधानमंत्री मोदी ने ये बात अपनी तरफ से या नये सिरे से नहीं कही थी, बल्कि अपने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की बातों को ही दोहराया था. किसानों के साथ आखिरी मुलाकात में ही नरेंद्र सिंह तोमर ने चलते चलते ये बात कही थी.
बाद में किसान नेता राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) पूछने लगे थे कि वो कौन सा फोन नंबर है जिस पर बात करनी है - नंबर मिले तो बात की जाये. जब सरकार की तरफ से कोई नरम रुख नहीं दिखा तो राकेश टिकैत ने सरकार पर दबाव बनाने के मकसद से देश भर में महापंचायत के नाम पर दौरे शुरू किये. बाद में विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल के दौरे पर भी गये और घूम घूम कर लोगों से मोदी सरकार के विरोध में बीजेपी के खिलाफ वोट देने की अपील की. राकेश टिकैत की अपील का पश्चिम बंगाल के लोगों पर कितना असर हुआ ये तो नहीं मालूम, लेकिन ये बात तो हुई ही कि चुनावों के नतीजे राकेश टिकैत के मनमाफिक ही रहे.
अब किसान संगठनों की अगुवाई कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखा है और दखल देकर बातचीत फिर से शुरू कराने की अपील की है. प्रधानमंत्री के साथ साथ किसान मोर्चे ने एक एक पत्र केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, रेल मंत्री पीयूष गोयल और वाणिज्य मंत्री सोम प्रकाश को भी भेजी है.
किसानों की मुश्किल अब इसलिए भी बढ़ने लगी है क्योंकि कोरोना वायरस ने आंदोलन (Corona in Kisan Aandolan) पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है, लिहाजा कुछ किसान नेता आंदोलन को जमीन से समेटते हुए उसे वर्चुअल स्वरूप देने पर विचार करने लगे हैं, हालांकि, किसान आंदोलन के बीच आंसू बहाकर तेजी से उभरे भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत अपने पुराने स्टैंड पर ही कायम नजर आते हैं - तीनों कानूनों की वापसी तक किसान आंदोलन चलता रहेगा.
राकेश टिकैत की बात भी अपनी जगह सही लगती है क्योंकि जमीन से हट कर किसान आंदोलन के वर्चुअल फॉर्म में पहुंचते ही आंदोलन के खत्म हो जाने की पूरी आशंका है.
कैसा होगा किसानों का वर्चुअल आंदोलन
देश भर में कोहराम मचाने के बाद कोरोना वायरस धीरे धीरे किसान आंदोलन पर भी प्रभाव दिखाने लगा है - और ये बड़ी वजह है कि किसान नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर बातचीत की पहल कर रहे हैं - और इस बीच किसान नेता आंदोलन को वर्चुअल शक्ल देने पर भी विचार कर रहे हैं, लेकिन क्या ये मुमकिन है?
सिंघु बॉर्डर से दो किसानों के मौत की खबर है. एक, पटियाला के बलबीर और दूसरे लुधियाना के किसान महेंद्र. सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि बलबीर की कोविड 19 रिपोर्ट पॉजिटिव आयी है.
किसान संगठनों में से एक के प्रवक्ता भोपाल सिंह ने किसानों ने आंदोलन को कुछ देर के लिए स्थगित कर अपनी फसलों को बचाने की अपील की है. भोपाल सिंह का सवाल भी वाजिब लगता है - अगर किसान ऐसे ही दम तोड़ते रहे तो आंदोलन कौन करेगा?
राकेश टिकैत अब भी अपनी जिद पर अड़े हुए हैं. अपने पिन टॉप ट्वीट में राकेश टिकैत लिख हुए हैं, "तीनों कृषि के काले कानून वापस होने के बाद और एमएसपी पर कानून बनने के बाद ही खत्म होगा किसान आंदोलन." राकेश टिकैत हर महापंचायत, चुनावी रैली और मीडिया के साथ इंटरव्यू में भी ये बात दोहराते रहे हैं.
राकेश टिकैत के पास सबसे बड़ा सवाल है, किसान हैं जमीन छोड़ेंगे कैसे? लेकिन बाकी बातों की चिंता भी सताने लगी है. खासकर कोरोना वायरस के आंदोलन को चपेट में ले डालने की. किसान आंदोलन तो कोरोना की मुसीबत के बीच छह महीने तक खींचा भी जा सका है, शाहीन बाग तो कोरोना के शुरुआती प्रकोप का ही शिकार हो गया और लॉकडाउन की भेंट चढ़ गया.
केंद्र सरकार की एक इंटरनल रिपोर्ट की भी इस बीच खासी चर्चा है, जिसमें माना गया है कि हाल के महीनों में कोरोना वायरस के प्रसार में किसान आंदोलन की भी भूमिका हो सकती है. रिपोर्ट में किसान नेताओं की यूपी में कई महापंचायतों के साथ साथ देश के कई राज्यों में उनके दौरौं को कोरोना वायरस के फैलाव से जोड़ कर देखा गया है. यूपी के साथ साथ पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में भी कोरोना के बढ़े मामलों से किसानों के आंदोलन को जोड़ने की चर्चा सुनी गयी है.
राकेश टिकैत ये जान कर भड़क जाते हैं. आज तक के साथ बातचीत में पूछते हैं - बंगाल और बाकी चार राज्यों में हुई चुनाव रैलियों से कोरोना नहीं फैल रहा था - क्या किसान आंदोलन से ही कोरोना फैल रहा है?
राकेश टिकैत न तो आंदोलन टालने की बात सुनने को तैयार हैं और न ही खत्म करने जैसा इरादा जाहिर करते हैं, बताते हैं - जमीन पर धरना चलता रहेगा. मई के बाद बाकी राज्यों से भी किसानों का आंदोलन में शामिल होना शुरू हो जाएगा.
राकेश टिकैत की बातों को समझें तो लगता है कि किसान आंदोलन की धार तेज करने की ही कोशिश हो रही है. राकेश टिकैत बताते हैं, पूरे देश के किसान तीनों बॉर्डर पर बने आंदोलन की जगहों पर तो डेरा डाल नहीं सकते, लेकिन आंदोलन तो देश के सभी किसानों की है - इसलिए सभी किसान अब सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराएंगे.
दैनिक भास्कर से बातचीत में राकेश टिकैत कहते हैं, 'असम में बैठा किसान, तमिलनाडु का किसान, आंध्र प्रदेश का किसान, बिहार का किसान - पूरे देश का किसान रोज के आंदोलन का हिस्सा कैसे बने, इसके लिए ठोस प्लान बनाया जा रहा है... हम सोशल मीडिया पर अपनी लड़ाई को और धार देंगे - वैसे भी ये सरकार तो ट्विटर पर ही चल रही है तो हमने सोचा जमीन पर विरोध के साथ ट्विटर पर भी घेरेंगे.'
ये तो सच है कि सरकार का किसान आंदोलन में दिलचस्पी न दिखाना और कोरोना वायरस का आतंक राकेश टिकैत को भी काफी कुछ सोचने को मजबूर कर ही रहा होगा. ऊपर से दुष्यंत चौटाला जैसे जाट नेता भी किसानों के आंदोलन को ही कठघरे में खड़ा करने लगे हैं. ऐसे में कोरोना के नाम पर सरकार की तरफ से महामारी एक्ट के तहत एक्शन लेने के भी चांस तो बन ही रहे हैं.
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात में भी किसान आंदोलन पर चर्चा की है. हरियाणा के मंत्री अनिल विज का तो आरोप है कि बार बार की अपील के बाद भी किसान न टेस्टिंग के लिए तैयार हैं न वैक्सीनेशन में कोई खास दिलचस्पी देखने को मिली है.
जो दुष्यंत चौटाला किसान आंदोलन को लेकर डरे हुए लगते थे, वो अब कहने लगे हैं कि किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किसान नेताओं का इरादा समस्या का समाधान नहीं बल्कि अपना हित साधना है. कहते हैं, 'मैंने पहले प्रधानमंत्री से भी लिखित तौर पर अनुरोध किया था कि एक टीम का गठन किया जाना चाहिये - केंद्र ने 40 नेताओं को कई मैसेज भी भेजे कि बातचीत के लिए उनको आगे आना चाहिये.'
भारतीय किसान यूनियन के मीडिया प्रभारी धर्मेंद्र मलिक के मुताबिक, जब से किसान आंदोलन शुरू हुआ है उनकी टीम सुबह से लेकर शाम तक ट्विटर पर किसान आंदोलन को टॉप ट्रेंड में लाने की कोशिश करती है और कामयाब भी रहती है. धर्मेंद्र मलिक #BycottBJPforFarmers जैसे ट्रेंड का उदाहरण भी देते हैं - और कहते हैं कि आज कल तो घर में बच्चे भी सोशल मीडिया पर एक्टिव हैं, आखिर किसान भी तो उनमें ही शामिल हैं.
धर्मेंद्र मलिक की बातों का मतलब समझें तो वो यही यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसान आंदोलन वर्चुअल दुनिया में भी वैसे ही सफल होगा जैसे जमीनी लड़ाई अब तक लड़ता आया है. साथ में ये भी बताने की कोशिश है कि किसान संगठनों के पास भी संसाधन राजनीतिक दलों के आईटी सेल से किसी मायने में कम नहीं हैं.
तैयारी तो ठीक है और संसाधनों की बात भी सही है, लेकिन किसान नेताओं को भला ये कैसे भरोसा हो रहा है कि सरकार की मर्जी के खिलाफ उनका वर्चुअल आंदोलन टिक भी पाएगा?
वर्चुअल आंदोलन बिकाऊ हो सकता है, टिकाऊ नहीं
जमाना जरूर सोशल मीडिया का है. पूरी दुनिया में चुनावी लड़ाई का प्रमुख हिस्सा भी सोशल मीडिया पर लड़ा जा रहा है, लेकिन सरकारें सोशल मीडिया पर वे कंटेंट नहीं रहने देने की कोशिश करती हैं जो उनके मर्जी के खिलाफ जाता हो.
सरकार की तरफ से भले ही बार बार दोहराया जाये कि सोशल मीडिया को रेग्युलेट करने का उसका कोई इरादा नहीं है, लेकिन हकीकत से भी उसका कम ही वास्ता है. फेसबुक की एक ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत सरकार ने 2020 की दूसरी छमाही में फेसबुक को सोशल मीडिया का यूजर डाटा हासिल करने के लिए 40 हजार से ज्यादा रिक्वेस्ट भेजी थी. रिपोर्ट के मुताबिक, आईटी एक्ट 2000 की धारा 69A के उल्लंघन को लेकर भारत में 878 पोस्ट ब्लॉक किये गये थे और कम से कम 10 यूजर को अस्थायी रूप से बैन भी कर दिया गया था. फेसबुक के मुताबिक, कोर्ट के आदेश पर 54 आइटम को भी बैन किया जा चुका है.
अभी अभी केंद्र सरकार ने सभी सोशल मीडिया कंपनियों को कोरोना वायरस के B.1.617 वैरिएंट के लिए 'इंडियन वेरिएंट' का इस्तेमाल करने वाले कंटेंट रिमूह कर देने को कहा है. WHO ने 11 मई को भारत में पहली बार पाये गये कोरोना वायरस के B.1.617 वेरिएंट को लेकर चिंता जाहिर की थी. अगले ही दिन केंद्र सरकार ने एक बयान जारी कर कहा था कि कुछ मीडिया रिपोर्ट में बी.1.617 वेरिएंट को कोरोना वायरस के 'इंडियन वैरिएंट' के तौर पर पेश किया जा रहा है जो पूरी तरह बेबुनियाद और निराधार है. स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि WHO ने अपने 32 पेज के डॉक्युमेंट में भी कोरोना वायरस के इस वैरिएंट को इंडियन वैरिएंट नहीं कहा है.
सोशल मीडिया के रेग्युलेशन से सरकार के परहेज जताने का इरादा भी अघोषित इमरजेंसी जैसा ही लगता है - यहां तक कि हाल के चर्चित टूल किट मामले में ट्विटर के किसी कंटेंट को 'मैनिपुलेटेड मीडिया' का टैग देने पर भी सरकार को आपत्ति हो रही है. संबित पात्रा के मामले में सरकार की तरफ से ट्विटर से ऐसा न करने की हिदायत दी गयी है - क्योंकि ऐसा करने से जांच में बाधा पहुंच सकती है.
ये तो माना जा सकता है कि सोशल मीडिया पर किसान संगठनों का आईटी सेल अपने मुद्दे ट्रेंड कराने में सक्षम है, लेकिन तब वो क्या करेंगे जब सरकार वे कंटेंट ही हटा देने के आदेश दे देगी.
महीने भर पहले ही कोविड 19 के प्रकोप के बीच भ्रामक जानकारी देने के नाम पर करीब 100 पोस्ट या यूआरएल को हटाने के निर्देश दिए गये थे. ट्विटर ने केंद्र सरकार के आदेश के बाद 50 से ज्यादा ट्वीट हटा दिये थे जिनमें कुछ वेरीफाइड अकाउंट से किये गये ट्वीट थे. जिनके ट्वीट हटाये गये थे उनमें कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा, एक्टर विनीत कुमार, फिल्म मेकर अविनाश दास, विनोद कापड़ी, पंकज झा शामिल हैं - जिनमें हॉस्पिटल बेड, दवा की कमी, अंतिम संस्कार और महामारी के बीच कुंभ मेले में भीड़ जुटने जैसे वाकयों का जिक्र था.
वैसे तो पंचायत चुनावों के नतीजों में किसानों ने केंद्र और यूपी में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को अपना मैसेज दे ही दिया है - लेकिन जैसे गूगल से रोटी डाउनलोड नहीं हो सकती ठीक वैसे ही अन्नदाताओं की संभावित वर्चुअल लड़ाई भी जमीन जैसी मजबूत बनी रह पाएगी, ये सोच कर ही काफी मुश्किल लगता है.
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