यूपी विधानसभा के नतीजे आ चुके हैं. भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गई. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा को बहुत सीटों का नुकसान झेलना पड़ रहा है. कायदे से देखा जाए तो चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा और उसके गठबंधन को जबरदस्त फायदा मिला है. साल 2017 के चुनाव में सपा बहुत बुरी तरह हार गई थी. कांग्रेस के साथ गठबंधन में मात्र 47 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस को 7 सीटें मिली थी.
अगर 403 विधानसभा सीटों के लिए सात चरणों में हुए मतदान को देखें तो सपा गठबंधन को 125 से सीटें मिली हैं. सपा और उसके गठबंधन को करीब 78 सीटों का फायदा मिल रहा है. ये दूसरी बात है कि अब तक परिणाम अखिलेश यादव के उन दावों के करीब नहीं हैं जिसके जरिए उन्होंने प्रचंड बहुमत के साथ 10 मार्च को सरकार बनाने का दावा किया था. इसमें कोई शक नहीं कि सपा नेता ने जबरदस्त लड़ाई की है. ये दूसरी बात हैं कि उन्हें विपक्ष में बैठकर पांच साल और इंतज़ार करना होगा.
#1. गठबंधन हुआ पर देरी की वजह से जमीन पर नहीं बन पाया सामजिक गठजोड़
अचानक से कोई बहुत बड़ा मुद्दा हिट ना हो तो चुनाव में काफी चीजें तारीखों की घोषणा से पहले ही तय रहती हैं. यह देखने में आया है कि कोई भी गठबंधन रातोंरात नहीं बन जाया करते. अखिलेश पांच साल विपक्ष में रहें और तमाम छोटे दलों के साथ उनके गठबंधन की चर्चाएं आती रहीं. लेकिन लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद गठबंधन साथियों को जोड़ने में देरी की. वो चाहे राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया जयंत चौधरी हों, सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर या फिर महान दल के केशवदेव मौर्य. अखिलेश ने सहयोगियों को लाने में बहुत देरी की. अपना दल कमेरावादी की कृष्णा पटेल और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव भी बिल्कुल आख़िरी वक्त में आए.
भाजपा ने रणनीतिक रूप से अखिलेश की देरी को उलझाए रखा. चुनाव की घोषणा से कुछ पहले तक ओमप्रकाश राजभर और जयंत को भाजपा गठबंधन में जोड़ने की चर्चाएं चलती रहीं. राजभर तो भाजपा के साथ जाने के संकेत आख़िरी वक्त तक...
यूपी विधानसभा के नतीजे आ चुके हैं. भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गई. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा को बहुत सीटों का नुकसान झेलना पड़ रहा है. कायदे से देखा जाए तो चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा और उसके गठबंधन को जबरदस्त फायदा मिला है. साल 2017 के चुनाव में सपा बहुत बुरी तरह हार गई थी. कांग्रेस के साथ गठबंधन में मात्र 47 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी. जबकि उसकी सहयोगी कांग्रेस को 7 सीटें मिली थी.
अगर 403 विधानसभा सीटों के लिए सात चरणों में हुए मतदान को देखें तो सपा गठबंधन को 125 से सीटें मिली हैं. सपा और उसके गठबंधन को करीब 78 सीटों का फायदा मिल रहा है. ये दूसरी बात है कि अब तक परिणाम अखिलेश यादव के उन दावों के करीब नहीं हैं जिसके जरिए उन्होंने प्रचंड बहुमत के साथ 10 मार्च को सरकार बनाने का दावा किया था. इसमें कोई शक नहीं कि सपा नेता ने जबरदस्त लड़ाई की है. ये दूसरी बात हैं कि उन्हें विपक्ष में बैठकर पांच साल और इंतज़ार करना होगा.
#1. गठबंधन हुआ पर देरी की वजह से जमीन पर नहीं बन पाया सामजिक गठजोड़
अचानक से कोई बहुत बड़ा मुद्दा हिट ना हो तो चुनाव में काफी चीजें तारीखों की घोषणा से पहले ही तय रहती हैं. यह देखने में आया है कि कोई भी गठबंधन रातोंरात नहीं बन जाया करते. अखिलेश पांच साल विपक्ष में रहें और तमाम छोटे दलों के साथ उनके गठबंधन की चर्चाएं आती रहीं. लेकिन लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद गठबंधन साथियों को जोड़ने में देरी की. वो चाहे राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया जयंत चौधरी हों, सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर या फिर महान दल के केशवदेव मौर्य. अखिलेश ने सहयोगियों को लाने में बहुत देरी की. अपना दल कमेरावादी की कृष्णा पटेल और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के शिवपाल यादव भी बिल्कुल आख़िरी वक्त में आए.
भाजपा ने रणनीतिक रूप से अखिलेश की देरी को उलझाए रखा. चुनाव की घोषणा से कुछ पहले तक ओमप्रकाश राजभर और जयंत को भाजपा गठबंधन में जोड़ने की चर्चाएं चलती रहीं. राजभर तो भाजपा के साथ जाने के संकेत आख़िरी वक्त तक देते रहे. बहुत देरी से घोषणा की वजह से सपा ने गठबंधन तो बना लिया और सनसनी भी दिखी, लेकिन असल में देरी की वजह से जमीन पर सामजिक गठजोड़ नहीं बन पाया जो उहापोह का शिकार था कि कौन किसके साथ रहेगा. आमतौर पर चुनाव से 40-45 दिन पहले तक बदलाव ज्यादा काम नहीं करते. सपा नेता ने गठबंधन का ऐलान तो चुनाव से कुछ ही दिन पहले किया था.
इसका सबसे खराब असर ये रहा कि गैर सवर्णजातियों को भाजपा की बजाय सपा के लिए भरोसे का आकर्षण नहीं दिखा.
#2. गैरपरंपरागत वोट जोड़ने की कोशिश में ओबीसी को ही नहीं ले पाए अखिलेश
अखिलेश चुनाव तक हां या ना में उलझे दिखे. कभी वो सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड खेलते दिखे, कभी ब्राह्मणों को पुचकारते दिखे और योगी के हिंदुत्व को मंडल के नारे से चुनौती देने की कोशिश की. अखिलेश के लिए दुखद यह रहा कि उनकी हां-ना की वजह से वो किसी एक जगह स्पष्ट नहीं दिखे और मोबलाइज करने में नाकाम रहें. असल में अखिलेश का मुस्लिम यादव समीकरण मजबूत था. लेकिन इस समीकरण में किसे और जोड़ना था यह फैसला लेने में सपा चीफ चूक गए. स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा में आने और 85:15 का नारा देने के बाद सपा के पक्ष में मंडलवादी राजनीति लामबंध होते दिखी. पूरे चुनाव में यही वो मौका था जहां सपा बहुत बोल्ड दिख रही थी.
लेकिन अखिलेश ने 85:15 के नारे का जिक्र नहीं किया. अखिलेश को सॉफ्ट हिंदुत्व वोट भी चाहिए था और ब्राह्मणों का भी. इसके लिए उन्होंने मुसलमानों और यादवों के टिकट जमकर काटे. सपा के इतिहास में ब्राह्मणों को सबसे ज्यादा उम्मीदवारी मिली. अखिलेश बनाना कुछ चाहते थे बन खिचड़ी गई. ब्राह्मण मतदाताओं के सजातीय उम्मीदवारों के जरिए सपा के पक्ष में जाने की संभावना थी लेकिन स्वामी प्रसाद के बयान ने बहुतायत ब्राह्मणों और सॉफ्ट हिंदुत्व का रास्ता बहुत सकरा कर दिया. हालांकि सपा को ब्राह्मणों के संतोषजनक वोट मिले.
85:15 का नारा अखिलेश ने खुद नहीं दिया. ब्राह्मण मतों के लालच में ना पड़कर अगर अखिलेश 85:15 के मुद्दे को खड़ा करते तो यह उनके पक्ष में होता. उनके गठबंधन का स्वरूप भी कुछ इसी तरह था. अखिलेश ओबीसी कार्ड नहीं खेल पाए.
#3. भाजपा चुनाव दो ध्रुवीय बनाना चाहती थी, अखिलेश ने भी मदद की
चुनाव आयोग ने जब सात चरणों में तारीखों का ऐलान किया था तभी से पश्चिम से पूरब की तरफ होने वाले चुनाव के पीछे की वजहों को तलाशा जाने लगा था. मुस्लिम बहुल पश्चिम से पूरब की ओर चुनाव जाने का मकसद दो ध्रुवीय रूप देना था, अनजाने में अखिलेश भी इसमें मदद कर गए. भाजपा नेताओं के अभियान को देखें तो पहले दो चरण तक उनके निशाने पर सपा रही. विपक्षी दल में होने के बावजूद जयंत को पुचकारा गया. मायावती के ऊपर किसी तरह के हमले नहीं किए गए. लेकिन अखिलेश को लगा कि चुनाव दो ध्रुवीय होगा तो भाजपा से टक्कर में उन्हें सीधा फायदा मिलेगा. उन्होंने क्या किया? बसपा, कांग्रेस और असदुद्दीन ओवैसी पर भाजपा के पक्ष में सपा को हराने की साजिश का आरोप लगाया.
अब इसके नतीजे सामने हैं. चुनाव दो ध्रुवीय हैं मगर यही चीजें सपा को नुकसान कर गई. दो ध्रुवीय चुनाव हिंदू मुसलमान का हो गया. सपा का वोट तो बढ़ा वावजूद वह पीछे है. भाजपा का वोट कमोबेश उसके साथ बना रहा.
#4. दिल नहीं जीत पाए अखिलेश, मुद्दों पर भी हुए फेल
इसमें कोई शक नहीं कि जमीन पर भाजपा के खिलाफ मुद्दे नहीं थे. मुद्दे थे. लोगों में नाराजगी भी खूब थी. लेकिन अखिलेश यादव के नेतृत्व में उनका गठबंधन लोगों को भरोसा नहीं दे पाया. अगर ऐसा कहें कि अखिलेश दिमाग पर तो असर डाल रहे थे लेकिन दिल नहीं जीत पाए तो गलत नहीं होगा. अखिलेश को लगा था कि बसपा या कांग्रेस से जो दलित पिछड़ा वोट टूटेगा वह स्वाभाविक रूप से भाजपा की बजाय उनके साथ आ जाएगा. पर ऐसा नहीं हुआ. एक तो स्वामी के 85:15 वाले बयान पर कोई स्टैंड नहीं लिया था दूसरा दिल जीतने वाला संवाद भी नहीं बना पा तरहे थे.
आड़े आ रही थी सपा राज की अराजकता, जिसे भाजपा ने बहुत आक्रामकता से अपने काडर के जरिए बहुत बड़ा मुद्दा बनाया. आग में घी का काम किया सपा काडर के दर्जनों वायरल वीडियो ने जिसमें अखिलेश के रोड शो और सभाओं में सपा कार्यकर्ता गुंडागर्दी करते दिखे. रोड शो में अराजकता दिखी. सपा कार्यकर्ताओं ने चुनाव की घोषणा के साथ ही मान लिया कि उनकी सरकार बन गई. चुनाव बाद हिसाब बराबर करने की चर्चाएं होने लगी. इस एक चीज से लोग भाजपा के पक्ष में संगठित हुए.
#5. कोई भी भावुक मुद्दा नहीं खड़ा कर पाए अकेले अखिलेश
अखिलेश को अकेलेपन ने भी परेशान किया. वह पार्टी और गठबंधन के इकलौते क्राउड पुलर लीडर थे. जबकि उनका मुकाबला जिस पार्टी से था उनमें भीड़ जुटाने वाले नेताओं और संसाधनों की कोई कमी नहीं थी. अखिलेश के साथ बड़ी दिक्कत यह भी थी कि भाजपा की तरह ऐसा कोई भावुक मुद्दा नहीं दे पाए जो भाजपा के 80: 20 (हिंदू-मुस्लिम) की तरह उनके टारगेट वोटर्स को प्रेरित कर सके.
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