सीबीआई दफ्तर का काम कुछ दिन और यूं ही चलता रहेगा. फर्क सिर्फ ये आया है कि रूटीन के जो काम अंतरिम निदेशक देख रहे थे अब वो आलोक वर्मा देखने लगे हैं. नीतिगत निर्णय लेने पर सुप्रीम कोर्ट की रोक अंतरिम निदेशक पर भी लगी हुई थी - फिलहाल सीबीआई निदेशक पर भी लागू है.
वैसे आलोक वर्मा ने बतौर सीबीआई निदेशक कामकाज संभाल लिया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वो सब कुछ कर सकते हैं, सिवा नीतिगत फैसले लेने के जो उन्हें संवैधानिक तौर पर नियुक्ति के दिन से दो साल के लिए हासिल थे. 23 अक्टूबर की रात केंद्रीय सतर्कता आयोग की सलाह पर आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना को छुट्टी पर भेज दिया गया था.
कुर्सी तो मिल गयी, पर पूरा काम मिलना बाकी है
सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा ढाई महीने बाद जब दफ्तर पहुंचे तो अगवानी के लिए अंतरिम निदेशक एम. नागेश्वर राव पहले से मौजूद थे. केंद्र सरकार ने नागेश्वर राव को ही सीबीआई का अंतरिम निदेशक बनाकर आलोक वर्मा की जगह काम देखने की जिम्मेदारी सौंपी थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला होने तक रूटीन के कामकाज तक उनका दायरा सीमित कर दिया था.
ये सब हुआ सीबीआई के दो सबसे बड़े अफसरों निदेशक आलोक वर्मा और स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना के बीच विवाद के चलते जिसमें दोनों ने एक दूसरे के खिलाफ रिश्वतखोरी के आरोप भी लगा डाले. अस्थाना के खिलाफ तो सीबीआई ने केस भी दर्ज कर रखा है.
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की तरफ से बताया गया कि दोनों अफसर बिल्लियों की तरह लड़ रहे थे, इसलिए सीवीसी की सलाह पर छुट्टी पर भेजना पड़ा. सरकार ने तत्काल प्रभाव से नागेश्वर राव को अंतरिम निदेशक नियुक्त कर दिया था. आलोक वर्मा ने सरकार के इन्हीं फैसलों को चुनौती दी थी. अब सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को सीबीआई निदेशक के पद पर बहाल करते हुए केस उसी सेलेक्शन कमेटी के पास भेज दिया है जिसने उनकी नियुक्ति पर मुहर लगायी थी.
इंसाफ की आखिरी लड़ाई मोदी की अदालत में
मोदी सरकार के फैसले को चैलेंज करते हुए आलोक वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में इंसाफ की गुहार तो लगायी ही थी, साथ ही साथ उनकी गुजारिश में जोर इस बात पर भी रहा कि जैसे भी हो सके सीबीआई को सरकारी दखल से बचा लिया जाये. पिंजरे के तोते का तमगा तो सीबीआर्ई को सुप्रीम कोर्ट से ही मिला था, अब अपील उसे और ज्यादा परेशान न करने की थी.
सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को उसी कुर्सी पर बिठा कर बेइज्जती का बदला लेने का मौका मुहैया कराने के साथ ही उनकी बाइज्जत विदाई का भी रास्ता साफ कर दिया - लेकिन आखिरी इंसाफ के लिए सुप्रीम कोर्ट ने केस को उसी सियासी अदालत में भेज दिया जहां से वो ढाई महीने पहले आधी रात को बे-दफ्तर कर दिये गये थे.
सेलेक्शन कमेटी ही करेगी आलोक वर्मा की किस्मत का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने सेलेक्शन कमेटी को हफ्ते भर की ही मोहलत दी है - 15 जनवरी तक. असल में, 31 जनवरी को तो आलोक वर्मा रिटायर ही हो जाएंगे. इसी अवधि में चयन समित को तय करना है कि अपनी सरकारी सेवा के आखिरी 15 दिन भी आलोक वर्मा सीबीआई निदेशक की कुर्सी पर बैठ पाएंगे या नहीं.
सेलेक्शन कमेटी में तीन सदस्य हैं. एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दूसरे मल्लिकार्जुन खड़गे और तीसरे जस्टिस एके सिकरी. प्रधानमंत्री के अलावा चयन समिति में नेता प्रतिपक्ष होता है, लेकिन फिलहाल ये संवैधानिक पद किसी के पास नहीं है, इसलिए सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस के सदन में नेता होने के चलते मल्लिकार्जुन खड़गे बतौर सदस्य इसमें हिस्सा लेंगे. ध्यान देने वाली बात ये है कि लोकपाल चयन समिति में मल्लिकार्जुन खड़गे ने जाने से मना कर दिया था. नियमों के अनुसार वहां भी विपक्ष के नेता को होना चाहिये, लेकिन ऐसा नहीं होने के कारण उन्हें विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर बुलाया जाता है और वो इंकार कर देते हैं.
मल्लिकार्जुन खड़गे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मोदी सरकार के लिए एक सबक बताया है. खड़गे के नेता कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो यहां तक कहा था कि आलोक वर्मा को रात एक बजे इसलिए हटाया गया था क्योंकि वो राफेल विमान सौदे की जांच शुरू करने वाले थे.
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने ने तो फैसले को सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोषी ठहराने वाला करार दिया और नैतिक आधार पर इस्तीफा देने की भी मांग कर डाली.
सरकार का बचाव करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने फैसले को संतुलित बताया और सीवीसी की अनुशंसा पर दोनों अफसरों को छुट्टी पर भेजने के फैसले को फिर से सही ठहराया है.
चयन समिति को लेकर एक और महत्वपूर्ण घटना हुई है. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने खुद को इस समिति से अलग कर लिया है और जस्टिस एके सिकरी को इस समिति के लिए अधिकृत किया है. बताया जा रहा है कि चीफ जस्टिस ने ऐसा ऐसा हितों के टकराव के चलते किया है. दरअसल, जिस बेंच ने आलोक वर्मा से जुड़ा फैसला सुनाया है उसका नेतृत्व रंजन गोगोई ही कर रहे थे.
नीतिगत निर्णयों को छोड़ दिया जाये तो कुर्सी पर बैठे बैठे वर्मा इतने भी बेकार नहीं रहेंगे. विशेषज्ञों के अनुसार वो चाहें तो एफआईआर भी दर्ज कर सकते हैं और छापेमारी भी. सवाल सिर्फ ये है कि कितने दिन तक?
आलोक वर्मा के लिए इंसाफ की आखिरी उम्मीद
ये भी क्या कम है कि सुप्रीम कोर्ट की बदौलत बतौर सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा की बाइज्जत विदाई मुमकिन हो पाएगी. अंत भला तो सब भला. सच में लोकतंत्र कितना खूबसूरत है. लोकतंत्र को बचाये और बनाये रखने की व्यवस्था भी कितनी सुंदर है.
एक तरफ विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीबीआई बनाम सीबीआई की लड़ाई में खलनायक की तरह पेश कर रहा है. दूसरी तरफ, देश की सबसे बड़ी अदालत उसी कमेटी को भेज देती है जिसमें प्रधानमंत्री भी एक सदस्य होता है. बतौर सदस्य मल्लिकार्जुन खड़गे भी होंगे और जस्टिस एके सिकरी भी, लेकिन सबसे बड़ी जिम्मेदारी तो प्रधानमंत्री पर ही आ गयी लगती है.
सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री को ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया है जहां उन्हें हर हाल में इंसाफ के कुदरती नियमों का पालन करना होगा. वो सारी बातें भूल कर जिसके पीछे कोई न कोई राजनीतिक वजह हो. जिस तरह से हितों के टकराव के चलते चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने खुद को अलग कर लिया है, उम्मीद की जानी चाहिये कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी विशाल हृदय से निर्णय लेंगे - और किसी भी सूरत में हितों के टकराव से बचने की कोशिश करेंगे. देखा जाये तो आलोक वर्मा के लिए इंसाफ की आखिरी उम्मीद अब काफी हद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही टिकी हुई है.
इन्हें भी पढ़ें :
2018 की वो 7 घटनाएं जिनके इर्द-गिर्द भारतीय राजनीति घूमती रही
किसके इशारे पर सीबीआई में मची उथल-पुथल
CBI में नियुक्ति-प्रक्रिया की पोल खोल देती है पिछले 5 डायरेक्टरों की पोलिटिकल पोस्टिंग
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.