विपक्षी दलों ने कर्नाटक में जो एकजुटता दिखायी वो कितना कारगर हो सकती है, कैराना उसका सबूत पेश कर चुका है. मगर, मालूम होना चाहिये कैराना से आगे जहां और भी है.
विपक्ष की इस एकजुटता की मंजिल निश्चित रूप से 2019 है, पर रास्ते में कई पड़ाव, भटकाव और अलगाव के अंजान ठिकाने भी हैं - और उनसे गुजरने के सिवा कोई और चारा भी नहीं है.
दिल्ली में जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच 'कभी हां, कभी ना' की लुकाछिपी चल रही है, वहीं यूपी में मायावती हर रोज नये कंडीशन रखती जा रही हैं. राहत की बात बस इतनी है कि कर्नाटक में कुमारस्वामी की कुर्सी 5 साल के लिए, फिलहाल तो, पक्की हो गयी है - और 2019 तक तो निश्चित तौर पर कोई खतरे वाली बात भी नहीं है.
देखना दिलचस्प होगा, विपक्ष की ये नयी एक्सप्रेस राज्य सभा के उप सभापति के चुनाव से आगे भी बढ़ पाती है, या पहले ही डीरेल हो जाती है.
सड़क का संसद में कितना असर
विपक्ष की एकजुटता अगर संसद में देखने को मिलती है तो सड़क पर आकर बिखर जाती है - यही हाल सड़क की विपक्षी एकता का संसद पहुंचते पहुंचते हो जाता है. ऐसा ही नमूना एक बार फिर देखने को मिल सकता है राज्य सभा के उपसभापति के चुनाव में. मौजूदा उप सभापति पीजे कुरियन का कार्यकाल खत्म होने को है, इसलिए सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी गोटी फिट करने में जुट गया है. केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक बीजेपी उपसभापति की पोस्ट के लिए अपना उम्मीदवार उतारेगी. साफ है लोक सभा में नेता, प्रतिपक्ष की तरह सत्ताधारी बीजेपी राज्य सभा में उप सभापति का पद भी कांग्रेस के हाथ नहीं लगने देने के मूड में है.
ये जरूर है कि बीजेपी राज्य सभा में सबसे बड़ी पार्टी हो गयी है. इस वक्त राज्य सभा में...
विपक्षी दलों ने कर्नाटक में जो एकजुटता दिखायी वो कितना कारगर हो सकती है, कैराना उसका सबूत पेश कर चुका है. मगर, मालूम होना चाहिये कैराना से आगे जहां और भी है.
विपक्ष की इस एकजुटता की मंजिल निश्चित रूप से 2019 है, पर रास्ते में कई पड़ाव, भटकाव और अलगाव के अंजान ठिकाने भी हैं - और उनसे गुजरने के सिवा कोई और चारा भी नहीं है.
दिल्ली में जहां कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच 'कभी हां, कभी ना' की लुकाछिपी चल रही है, वहीं यूपी में मायावती हर रोज नये कंडीशन रखती जा रही हैं. राहत की बात बस इतनी है कि कर्नाटक में कुमारस्वामी की कुर्सी 5 साल के लिए, फिलहाल तो, पक्की हो गयी है - और 2019 तक तो निश्चित तौर पर कोई खतरे वाली बात भी नहीं है.
देखना दिलचस्प होगा, विपक्ष की ये नयी एक्सप्रेस राज्य सभा के उप सभापति के चुनाव से आगे भी बढ़ पाती है, या पहले ही डीरेल हो जाती है.
सड़क का संसद में कितना असर
विपक्ष की एकजुटता अगर संसद में देखने को मिलती है तो सड़क पर आकर बिखर जाती है - यही हाल सड़क की विपक्षी एकता का संसद पहुंचते पहुंचते हो जाता है. ऐसा ही नमूना एक बार फिर देखने को मिल सकता है राज्य सभा के उपसभापति के चुनाव में. मौजूदा उप सभापति पीजे कुरियन का कार्यकाल खत्म होने को है, इसलिए सत्ता पक्ष और विपक्ष अपनी अपनी गोटी फिट करने में जुट गया है. केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक बीजेपी उपसभापति की पोस्ट के लिए अपना उम्मीदवार उतारेगी. साफ है लोक सभा में नेता, प्रतिपक्ष की तरह सत्ताधारी बीजेपी राज्य सभा में उप सभापति का पद भी कांग्रेस के हाथ नहीं लगने देने के मूड में है.
ये जरूर है कि बीजेपी राज्य सभा में सबसे बड़ी पार्टी हो गयी है. इस वक्त राज्य सभा में बीजेपी के 69 सदस्य हैं जबकि कांग्रेस के 51. राज्य सभा में बहुमत का कांटा 122 पर है और एनडीए के सदस्यों को मिलाकर भी ये संख्या 105 ही पहुंचती है. ऐसे में बीजेपी को विपक्षी धड़े से किसी एक को अपनी ओर करना होगा. बड़े दलों में AIADMK, टीएमसी और समाजवादी पार्टी हैं जिनके 13-13 सदस्य हैं. बाकियों से तो नहीं लेकिन बीजेपी AIADMK को साधने की कोशिश कर सकती है. या फिर बीजू जनता दल और टीआरएस बचते हैं. बीजेडी के 9 और टीआरएस के 6 सदस्य हैं. वैसे तो ये दोनों भी मिल जायें तो काम नहीं चलने वाला, फिर भी 2 की जरूरत रहेगी. दोनों के बीजेपी के साथ देने की संभावना सिर्फ इसलिए है क्योंकि कर्नाटक से इन दोनों पार्टियों के नेताओं ने दूरी बनाए रखी. दूरी तो शिवसेना ने भी बनायी, लेकिन पालघर के झगड़े की आग बुझ जाये तो कुछ भी संभव है. शिवसेना के पास 3 राज्य सभा सांसद हैं. वैसे भी पालघर की हार के बाद शिवसेना की ऐंठन कुछ तो कम हुई ही होगी - और बाकी तो अमित शाह हैंडल कर ही लेंगे. संपर्क के लिए हॉटलाइन देवेंद्र फडणवीस तो हैं ही.
अगर अगला उप सभापति बीजेपी का होता है तो पिछले 41 साल में पहला मौका होगा जब कोई गैरकांग्रेसी इस पद पर होगा. साथ ही, ऊपर से उप सभापति तक सारे पदों पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं का कब्जा हो जाएगा.
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