बीजेपी नेतृत्व हर वक्त चुनाव मोड में ही रहता है. मौजूदा नेतृत्व की खासियत ये है कि बीजेपी के लिए वो हर चुनाव को पूरी गंभीरता से लेता है, सिर्फ उपचुनावों को छोड़कर. हो सकता है उपचुनावों को लेकर कोई अलग रणनीति हो. किसी तरह की अंदरूनी प्रेशर पॉलिटिक्स भी हो सकती है. नतीजों का पूर्वाकलन काफी करीब बैठता हो इसलिए उसे क्षेत्रीय नेतृत्व का मंथली टेस्ट मान कर चला जाता हो.
पांच राज्यों - मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनावों की तारीख आने के साथ ही सारी गतिविधियां औपचारिक शक्ल अख्तियार कर चुकी हैं. जैसे ही पांचों राज्यों के वोट 11 दिसंबर को गिने जाएंगे - 2019 का काउंटडाउन शुरू हो जाएगा. फिर तो ये विधानसभा चुनाव सेमीफाइनल ही माने जाएंगे. सभी पांच तो नहीं, लेकिन तीन राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जहां बीजेपी सत्ता में है. मिजोरम में कांग्रेस के सामने भी बीजेपी जैसी ही चुनौती है - और तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव के लिए. राव हाल फिलहाल देश में कोई गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चा खड़ा करने की तैयारियों के एक्टिव हिस्सेदार हैं.
जाहिर है तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनावी नतीजे भी उन्हीं बातों पर निर्भर करेंगे जो फैक्टर केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के लिए मायने रखते हैं - मुद्दे भी, उपलब्धियां भी और सत्ता विरोधी लहर जैसी चुनौतियां भी. बराबर.
असली चेहरा तो मोदी ही हैं
असम चुनाव को छोड़ कर जो भी विधानसभा चुनाव हुए हैं जहां बीजेपी जीती है या बेहतर स्थिति हासिल की है - चेहरा प्रधानमंत्री मोदी ही रहे हैं. असम चुनाव में अमित शाह ने रणनीतिक बदलाव तो बस बिहार की बुरी शिकस्त के चलते किया था. यूपी, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, त्रिपुरा सब तो बीजेपी ने प्रधानमंत्री मोदी की बदौलत ही जीते हैं. कर्नाटक में भी जो कुछ हासिल हुआ उसका भी क्रेडिट प्रधानमंत्री मोदी को ही जाता है. मान कर चलना चाहिये कि आगे भी यथास्थिति बरकरार रहेगी.
चुनौतियां बराबर हैं
बीजेपी का प्लस प्वाइंट ये है कि तीनों राज्यों में बीजेपी के मजबूत चेहरे के साथ लड़ रही है, जबकि विरोध में साफ साफ कोई भी चेहरा नहीं नजर आता. छत्तीसगढ़ को अलग रख कर देखें तो मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस ने कई चेहरे प्रोजेक्ट कर सभीको कन्फ्यूज रखने की कोशिश की है. ऐसा ही प्रयोग कांग्रेस ने गुजरात में भी किया था. कर्नाटक में तो बीजेपी वाली ही स्थिति में थी. राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत सामने हैं तो मध्य प्रदेश में कमलनाथ के साथ साथ दिग्विजय सिंह भी एक्टिव हैं - और ज्योतिरादित्य सिंधिया तो बस मन मसोस कर काम किये जा रहे हैं.
ये सारी बातें बीजेपी के पक्ष में जा रही हैं - और ऊपर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा तो है ही. कांग्रेस की ओर से अध्यक्ष राहुल गांधी चुनौती देने खुद ही मोर्चा संभाले हुए हैं.
सत्ता विरोधी फैक्टर भी बराबर है
अपवादों को छोड़ कर परंपरा के हिसाब से देखें तो राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस की सरकार बारी बारी आती है, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में ऐसी कोई परंपरा नहीं है.
SC/ST एक्ट में पहल का टेस्ट
चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो तीनों ही राज्यों में कांग्रेस आगे बढ़ कर चैलेंज कर रही है. राजस्थान में ज्यादा उपचुनाव जीते होने के चलते कांग्रेस में ज्यादा जोश है. छत्तीसगढ़ में मायावती और अजित जोगी के बीच चुनावी गठबंधन हो जाने के कारण कांग्रेस की चुनौती काफी कमजोर पड़ चुकी है. मध्य प्रदेश में भी बीजेपी को कांग्रेस की चुनौती फिलहाल उतनी मुश्किल तो नहीं ही लगती. राजस्थान में गौरव यात्रा पूरी तो हो चुकी है लेकिन विपक्ष ज्यादा मुखर नजर आ रहा है.
मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कॉमन बात यही है कि तीनों ही राज्यों में बीजेपी की सरकार है. राजस्थान में सिर्फ पांच साल की सरकार है जबकि बाकी दोनों राज्यों में 15-15 साल से.
वैसे क्या होगा अबकी बार...
सत्ता विरोधी फैक्टर के हिसाब से देखें तो जो बातें इन तीनों राज्यों पर लागू होती हैं, 2019 में केंद्र की मोदी सरकार के सामने भी यही चुनौती होगी. बीजेपी के पास बताने को जो उपलब्धियां अभी हैं - आगे भी वही रहेंगी.
ये तो बिलकुल 2019 जैसा ही है
SC/ST एक्ट पर केंद्र की मोदी सरकार ने जो स्टेप लिया उसका असर क्या होगा, मध्य प्रदेश के नतीजों में साफ नजर आएगा. हो सकता है जिस तरह नोटबंदी का असर यूपी चुनाव में नहीं दिखा इस मामले में भी वैसा ही हो जिसकी संभावना काफी कम है. अगर वास्तव में ऐसा होता तो शिवराज सिंह चौहान को कहना नहीं पड़ता - एससी-एसटी मामलों में बगैर जांच के गिरफ्तारी नहीं होगी. हालांकि, अभी वो कानूनी पेंचीदगियों में उलझा हुआ है.
देखा जाये तो तीनों ही राज्यों में सब कुछ तकरीबन वैसा ही है जैसा बीजेपी के सामने 2019 के मैदान में होगा. केंद्र की जो भी योजनाएं होती हैं पूरी शिद्दत से बीजेपी शासित राज्यों में ही लागू होती हैं. ताजा मामला पेट्रोल की कम की गयी कीमतों का है.
बीजेपी अब तक भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का दावा करती रही है, 2019 तक भी कोशिश यही रहेगी - अगर, कोई दुर्घटना न हो तो. आयुष्मान भारत योजना हो, उज्ज्वला योजना हो, घरों तक बिजली पहुंचाने की बात हो - सारी बातें तो इन चुनावों में भी बीजेपी की उपलब्धियों की फेहरिस्त में शामिल होंगी.
राफेल, बेरोजगारी और किसानों की समस्याओं की काट के लिए राम मंदिर और राष्ट्रवाद तो है ही. जब जरूरत पड़ती है तो कोई न कोई थोड़ा संकेत दे ही देता है. यूपी चुनाव के वक्त रविशंकर प्रसाद ने तीन तलाक के संकेत दिये ही थे और अभी अभी राजनाथ सिंह ने भी बता ही दिया है - 'ठीक ठाक हुआ है'.
ये ठीक है कि स्थानीय क्षेत्रीय और आम चुनाव में मुद्दे अलग और परिस्थितियां अलग अलग होती हैं - लेकिन श्मशान और कब्रिस्तान का जिक्र किसी दायरे में सिमटा हुआ मसला थोड़े ही है. बाकी कुछ ऊंच नीच होता है तो गुजरने जमाने की 'विदेशी ताकतों का हाथ' के रूप में 'पाकिस्तान फैक्टर' लौट ही आया है.
जब तीनों राज्यों में विधानसभा चुनाव की सारी बातें 2019 के मैदान के हिसाब से नजर आयें तो क्यों न समझा जाये कि नतीजे भी आगे के लिए आईना ही होंगे. फिर तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ये तीनों चुनाव मोदी के जादू पर जनमत संग्रह हैं. और आखिरकार ये भी क्यों न मान लिया जाये कि ये 2019 का प्री-फाइनल है?
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