महाराष्ट्र में सरकार बनाने पर घमासान चल रहा है और राहुल गांधी आध्यात्मिक दौरे पर निकल गये हैं. देखा जाये तो राहुल गांधी की महाराष्ट्र की सरकार बनने में कोई भी भूमिका नहीं है. न सीधी न परोक्ष भूमिका. महाराष्ट्र सरकार बनाने में तो बीजेपी और शिवसेना में होड़ मची ही है और कांग्रेस की ओर से पृथ्वीराज चव्हाण उद्धव ठाकरे या आदित्य ठाकरे की ओर से संदेश का इंतजार कर रहे हैं.
जहां तक राज्यों में सरकार बनने और न बनने का सवाल है तो वैसे भी राहुल गांधी की भूमिका सीमित रूप में ही देखने को मिली है. 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैसे तय हुए सबको याद ही होगा.
सुना है जब तक राहुल गांधी मेडिटेशन में होंगे, तब तक कांग्रेस नेता जगह जगह प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और सोनिया गांधी विपक्षी नेताओं के साथ मीटिंग करेंगी. वापसी के बाद राहुल गांधी अपने देशव्यापी दौरे की तैयारियों में जुट जाएंगे. राहुल गांधी के दौरे से पहले अखिलेश यादव भी यूपी में साइकिल यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे हैं.
साइकिल यात्रा के दौरान अखिलेश यादव की लोगों को ये समझाने कि की कोशिश होगी बीजेपी का विकल्प समाजवादी पार्टी ही है - कोई और नहीं. संभव है राहुल गांधी भी जब देशाटन पर निकलें तो लोगों को वही बात समझाने की कोशिश करें जिसकी तैयारी अखिलेश यादव कर रहे हैं. असल सवाल तो ये है कि लोगों को बीजेपी के विकल्प की जरूरत भी महसूस हो रही है क्या?
विपक्ष की भूमिका में कौन?
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस खुद को ही विपक्ष मानती है. विपक्षी खेमे के नेताओं को भी जब बवाल टालना होता है तो 10, जनपथ की ओर ही घुमा देते हैं - लेकिन जब आम राय की जरूरत हो तो सबका अपना अपना एजेंडा. ऐसा एजेंडा जिसमें 2014 के बाद से कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बन ही नहीं पाता. कहने को तो विपक्षी खेमे के बाकी दलों के मुकाबले कांग्रेस के पास ज्यादा सांसद हैं, लेकिन इतने भी नहीं कि तकनीकी तौर पर उसे नेता प्रतिपक्ष का ओहदा हासिल हो सके - और ऐसा लगातार दूसरी बार...
महाराष्ट्र में सरकार बनाने पर घमासान चल रहा है और राहुल गांधी आध्यात्मिक दौरे पर निकल गये हैं. देखा जाये तो राहुल गांधी की महाराष्ट्र की सरकार बनने में कोई भी भूमिका नहीं है. न सीधी न परोक्ष भूमिका. महाराष्ट्र सरकार बनाने में तो बीजेपी और शिवसेना में होड़ मची ही है और कांग्रेस की ओर से पृथ्वीराज चव्हाण उद्धव ठाकरे या आदित्य ठाकरे की ओर से संदेश का इंतजार कर रहे हैं.
जहां तक राज्यों में सरकार बनने और न बनने का सवाल है तो वैसे भी राहुल गांधी की भूमिका सीमित रूप में ही देखने को मिली है. 2018 में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैसे तय हुए सबको याद ही होगा.
सुना है जब तक राहुल गांधी मेडिटेशन में होंगे, तब तक कांग्रेस नेता जगह जगह प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और सोनिया गांधी विपक्षी नेताओं के साथ मीटिंग करेंगी. वापसी के बाद राहुल गांधी अपने देशव्यापी दौरे की तैयारियों में जुट जाएंगे. राहुल गांधी के दौरे से पहले अखिलेश यादव भी यूपी में साइकिल यात्रा पर निकलने की तैयारी कर रहे हैं.
साइकिल यात्रा के दौरान अखिलेश यादव की लोगों को ये समझाने कि की कोशिश होगी बीजेपी का विकल्प समाजवादी पार्टी ही है - कोई और नहीं. संभव है राहुल गांधी भी जब देशाटन पर निकलें तो लोगों को वही बात समझाने की कोशिश करें जिसकी तैयारी अखिलेश यादव कर रहे हैं. असल सवाल तो ये है कि लोगों को बीजेपी के विकल्प की जरूरत भी महसूस हो रही है क्या?
विपक्ष की भूमिका में कौन?
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस खुद को ही विपक्ष मानती है. विपक्षी खेमे के नेताओं को भी जब बवाल टालना होता है तो 10, जनपथ की ओर ही घुमा देते हैं - लेकिन जब आम राय की जरूरत हो तो सबका अपना अपना एजेंडा. ऐसा एजेंडा जिसमें 2014 के बाद से कोई कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बन ही नहीं पाता. कहने को तो विपक्षी खेमे के बाकी दलों के मुकाबले कांग्रेस के पास ज्यादा सांसद हैं, लेकिन इतने भी नहीं कि तकनीकी तौर पर उसे नेता प्रतिपक्ष का ओहदा हासिल हो सके - और ऐसा लगातार दूसरी बार हुआ है.
जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार नहीं है, वहां बीजेपी अपनी राजनीतिक के हिसाब से विपक्ष की भूमिका निभा रही है - राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और केरल से लेकर पश्चिम बंगाल तक बतौर विपक्ष बीजेपी नेताओं का शोर दूर दूर तक सुनायी देता है. दिल्ली में भी मनोज तिवारी यथाशक्ति अलख जगाये ही रहते हैं, भले ही उनके विरोधी अड़ंगे डालते रहें. पंजाब में बीजेपी की तुलना में शिरोमणि अकाली दल अपनी आवाज बुलंद रखने की कोशिश करता है - ताजा मामला तो करतारपुर का ही है.
जब महाराष्ट्र में शिवसेना ही विपक्ष की भूमिका में हो और बिहार में सत्ता में हिस्सेदार होकर भी बीजेपी नेता ही विपक्ष की भूमिका निभा रहे हों - फिर किसी और के लिए जगह ही कहां बचती है?
बताते हैं कि अपने देशव्यापी दौरे में राहुल गांधी उन राज्यों में ज्यादा वक्त गुजारेंगे जहां 2020 और 2021 में विधानसभा के चुनाव होने हैं. ये राज्य हैं - दिल्ली, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी.
राहुल गांधी की इनमें ज्यादा दिलचस्पी तो केरल में ही होगी क्योंकि उनका संसदीय क्षेत्र वायनाड वहीं है. बाकी राज्यों में तो कुछ नये स्लोगन ही सुनने को मिल सकते हैं जैसे 'खून की दलाली' और 'चौकीदार चोर...'
ये सिलसिला चुनावों तक तभी जारी भी रह पाएगा, जब किसी नये आध्यात्मिक दौरे का कार्यक्रम न बने.
किसी भी लोकतांत्रिक मुल्क में व्यवस्थित शासन के बुनियादी ढांचे को कायम रखने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है उनमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के साथ साथ चौथे स्तंभ मीडिया की भी महती भूमिका हुआ करती है. ऐसी तमाम चीजों की अपनी अहमियत है, लेकिन सत्ता पक्ष के साथ साथ लोकतंत्र की सेहत को दुरूस्त रखने के लिए विपक्ष की सक्रिय भूमिका भी जरूरी होती है.
मौजूदा हालात में विपक्ष की भूमिका को लेकर मुख्यतौर पर दो सवाल खड़े हो गये हैं - पहला, क्या देश को विपक्ष की जरूरत महसूस हो रही है? दूसरा, क्या विपक्ष अपनी भूमिका जिम्मेदारी के साथ निभा रहा है?
दोनों सवालों से आगे बढ़ें तो नया सवाल खड़ा होता है कि क्या देश को विकल्प की जरूरत है भी, या नहीं?
क्या देश को विकल्प की कितनी जरूरत है?
महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव को ही ले लीजिए. ये भी मान लेते हैं कि वो राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव थे. मगर, आज के दौर में जब कोई पंचायत, निकाय या नगर निगम का चुनाव स्थानीय नहीं रह गया तो विधानसभा चुनावों को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है.
कांग्रेस कह सकती है कि पार्टी ने एक मजबूत स्थानीय नेता को पूरा दारोमदार दे दिया था जिसे हर फैसले की खुली छूट थी. नतीजे भी बता रहे हैं कि हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा की मेहनत काम आयी. करीब करीब वैसे ही महाराष्ट्र में भी स्थानीय कांग्रेस नेताओं की सक्रियता और एनसीपी के साथ गठबंधन का फायदा मिला.
लेकिन कांग्रेस नेतृत्व का क्या? अस्थायी ही सही नेतृत्व की औपचारिक जिम्मेदारी तो सोनिया गांधी के पास ही है - वो झांकने तक नहीं गयीं. हरियाणा को लेकर प्रियंका गांधी की मजबूरी समझी गयी, लेकिन महाराष्ट्र में क्या समस्या थी?
कहते हैं राहुल गांधी को सोनिया गांधी ने विदेश दौरे से चुनाव प्रचार के लिए ही बुलाया था. वो कांग्रेस का प्रचार भी किये. वो सोनिया गांधी की उस रैली में भी गये जिसे रद्द कर दिया गया था.
राहुल गांधी कांग्रेस के स्टार प्रचारक हैं, लेकिन वो खुद को प्रोजेक्ट कैसे करते हैं - केरल के वायनाड से सांसद मात्र! अमेठी जाते हैं तो कह देते हैं कि अब वो सिर्फ वायनाड के प्रतिनिधि हैं - अमेठी के लोग अपनी लड़ाई खुद लड़ें. जरूरत पड़ी तो वो पीछे नहीं हटेंगे.
कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं. समस्याएं वही सुलझा रही हैं. चुनावों के काफी पहले से भूपिंदर सिंह हुड्डा की मुलाकात राहुल गांधी से होनी थी. लटकी रही. जब सोनिया गांधी ने चार्ज लिया तो फैसला भी हुआ. अगर वही फैसला थोड़ा पहले हो गया होता तो?
अब अगर राहुल गांधी कहीं कोई बात करने जाते हैं तो लोग क्या समझ कर उनकी बात सुनें - और मानें भी. कांग्रेस कार्यकर्ताओं के सामने भी ऐसी ही मुश्किल होती होगी. उदाहरण के तौर पर देखें तो राहुल गांधी कैप्टन अमरिंदर सिंह नहीं बल्कि पंजाब में प्रताप सिंह बाजवा को पसंद करते हैं, इसलिए सिद्धू को शह दे रहे थे. जब सिद्धू को जरूरत पड़ी तो अहमद पटेल के सामने पेश कर दिया गया. सिद्धू ने क्या बयान दिया या नहीं दिया. करतारपुर का फिर से न्योता मिलने पर जाते हैं या नहीं, ये सब उतना अहम नहीं है - लेकिन ये कांग्रेस की कार्यप्रणाली का नूमना तो पेश करता ही है.
राहुल गांधी के बारे में बताया गया है कि अगले साल जनवरी फरवरी में वो देशव्यापी दौरे पर निकलने वाले हैं. उससे पहले कांग्रेस नेता जगह जगह प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और मोदी सरकार की पोल खोलेंगे.
राहुल गांधी फिर विदेश दौरे पर निकल गये. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने बताया कि सारे कार्यक्रमों को फाइनल करने के बाद ही वो आध्यात्मिक दौरे पर निकले हैं. देश के बाकी नागरिकों की तरह राहुल गांधी को भी अपनी मर्जी से जीने और कहीं भी जाने का पूरा अधिकार है. जब सोनिया गांधी विदेश दौरे पर जाती रहीं तो कांग्रेस नेता बीमारी को लेकर निजता की दुहाई देकर सवाल टाल देते रहे. ठीक भी है. जब निजता की बात आ गयी तो किसी ने दोबारा सवाल भी नहीं पूछा. राहुल गांधी से भी सवाल तो बीजेपी ही पूछ रही है - बीजेपी का कहना है कि पांच साल में राहुल गांधी 16 विदेश दौरे कर चुके हैं. देश में न जाने कितने लोग रोज विदेश दौरे पर या मेडिटेशन करने कहीं न कहीं जाते होंगे - सवाल तो सिर्फ इसलिए हो रहा है क्योंकि राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में हैं. विपक्षी खेमे के बड़े नेता होने के नाते देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में उनकी भी कुछ खास भूमिका है.
ये सही है कि लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य की खातिर सत्ता पक्ष को टक्कर देने वाला मजबूत विपक्ष होना चाहिये - लेकिन जब कमजोर विपक्ष हो तो? फिर तो यही लगता है - देश को विकल्प से पहले एक मजबूत विपक्ष की ही जरूरत पड़ रही है. थोड़ा आसान शब्दों में समझें तो बीजेपी के विकल्प से पहले देश को कांग्रेस के विकल्प की जरूरत है. अगर मौजूदा विपक्षी खेमे से आगे बढ़ कर कोई कांग्रेस की जगह नहीं ले पाता तो निश्चित तौर पर नये राजनीतिक दल की जरूरत है.
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