पहले गोरखपुर, फूलपुर और अब कैराना. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की इन तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने साबित किया है कि विपक्षी एकजुटता के फॉर्मूले से बीजेपी को पटखनी दी जा सकती है. कांग्रेस ही नहीं अब दूसरे विरोधी दलों के रणनीतिकार भी मानने लगे हैं कि अगर ‘एक सीट, एक विपक्षी उम्मीदवार’ के फॉर्मूले को पूरे देश में आजमाया जाए तो 2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के रथ को दोबारा सत्ता में आने से रोका जा सकता है.
हालांकि देश में कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो ना बीजेपी के साथ जाना पसंद करते हैं और ना ही कांग्रेस के साथ. इन क्षेत्रीय दलों का मानना है कि वो आपस में हाथ मिला लें तो केंद्र में मजबूत राजनीतिक ब्लॉक के तौर पर उभर सकते हैं. इन दलों का ये भी मानना है कि अगर अगली लोकसभा त्रिशंकु आती है तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को उन्हें समर्थन देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा.
यहां तक तो विपक्षी एकता की बात ठीक है लेकिन बीजेपी की ओर से जब ये सवाल किया जाता है कि विपक्षी गठबंधन या वैकल्पिक मोर्चा का नेता कौन होगा तो उस पर विरोधी दलों को जवाब देना भारी हो जाता है. लेकिन अभी मीडिया में एक रिपोर्ट ऐसी आई जो चौंकाने वाली है. इसमें पीएम पद के लिए ऐसे चेहरे का नाम लिया गया है जिसे पूरा देश अच्छी तरह जानता है. ये नाम है पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का. यहां ये सवाल आएगा कि क्या पूर्व राष्ट्रपति दोबारा सक्रिय राजनीति में लौट सकते हैं?
सांविधानिक और कानूनी दृष्टि से देखा जाए तो पूर्व राष्ट्रपति पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वो राजनाति में हिस्सा नहीं ले सकते. ये बात ज़रूर है कि...
पहले गोरखपुर, फूलपुर और अब कैराना. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की इन तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों ने साबित किया है कि विपक्षी एकजुटता के फॉर्मूले से बीजेपी को पटखनी दी जा सकती है. कांग्रेस ही नहीं अब दूसरे विरोधी दलों के रणनीतिकार भी मानने लगे हैं कि अगर ‘एक सीट, एक विपक्षी उम्मीदवार’ के फॉर्मूले को पूरे देश में आजमाया जाए तो 2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के रथ को दोबारा सत्ता में आने से रोका जा सकता है.
हालांकि देश में कई क्षेत्रीय दल ऐसे हैं जो ना बीजेपी के साथ जाना पसंद करते हैं और ना ही कांग्रेस के साथ. इन क्षेत्रीय दलों का मानना है कि वो आपस में हाथ मिला लें तो केंद्र में मजबूत राजनीतिक ब्लॉक के तौर पर उभर सकते हैं. इन दलों का ये भी मानना है कि अगर अगली लोकसभा त्रिशंकु आती है तो कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को उन्हें समर्थन देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होगा.
यहां तक तो विपक्षी एकता की बात ठीक है लेकिन बीजेपी की ओर से जब ये सवाल किया जाता है कि विपक्षी गठबंधन या वैकल्पिक मोर्चा का नेता कौन होगा तो उस पर विरोधी दलों को जवाब देना भारी हो जाता है. लेकिन अभी मीडिया में एक रिपोर्ट ऐसी आई जो चौंकाने वाली है. इसमें पीएम पद के लिए ऐसे चेहरे का नाम लिया गया है जिसे पूरा देश अच्छी तरह जानता है. ये नाम है पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का. यहां ये सवाल आएगा कि क्या पूर्व राष्ट्रपति दोबारा सक्रिय राजनीति में लौट सकते हैं?
सांविधानिक और कानूनी दृष्टि से देखा जाए तो पूर्व राष्ट्रपति पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि वो राजनाति में हिस्सा नहीं ले सकते. ये बात ज़रूर है कि पारंपरिक रूप से देश में कभी किसी पूर्व राष्ट्रपति ने ऐसा कदम नहीं उठाया. इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रणब मुखर्जी का 2012 में राष्ट्रपति बनने से पहले नेता और प्रशासकीय अनुभव के तौर पर उम्दा रिकॉर्ड रहा है. अहम मंत्रालय संभालने के साथ मुखर्जी योजना आयोग के उपाध्यक्ष, लोकसभा सदन के नेता, कांग्रेस महासचिव, 23 साल तक कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य जैसी तमाम जिम्मेदारियां उठा चुके हैं.
इसके अलावा उन्हें अंग्रेजी पर मजबूत पकड़, बेहतरीन ड्राफ्टिंग, कमाल की यादाश्त, संसदीय प्रक्रिया की अच्छी जानकारी के लिए भी जाना जाता रहा है. यूपीए में प्रधानमंत्री बेशक मनमोहन सिंह रहे लेकिन सरकार और कांग्रेस में ‘क्राइसिस मैनेजर’ के तौर पर प्रणब मुखर्जी की अलग ही पहचान रही. ये बात दूसरी है कि प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस चाहती तो कम से कम तीन मौकों पर प्रधानमंत्री बना सकती थी लेकिन ऐसा किया नहीं गया. पहली बार इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में, दूसरी बार 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के सत्ता में आने पर, तीसरी बार 2004 में जब सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनने की पेशकश को ठुकरा कर मनमोहन सिंह के नाम को इस टॉप पोस्ट के लिए आगे किया.
प्रणब मुखर्जी देश के पूर्व राष्ट्रपतियों की परंपरा को देखते हुए सक्रिय राजनीति में लौटने और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए तैयार होंगे, इस पर बड़ा सवालिया निशान है. संबंधित मीडिया रिपोर्ट में पॉलिटिकल स्पेक्ट्रम में अलग अलग विचारधाराओं के कई नेताओं से बातचीत का हवाला देते हुए कहा गया है कि 82 वर्षीय मुखर्जी 2019 चुनाव से पहले केंद्र की सत्ता के लिए वैकल्पिक मोर्चा तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
रिपोर्ट में जनवरी में ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के घर पर हुई एक बैठक का हवाला भी दिया गया. दरअसल, नवीन पटनायक ने अपने पिता बीजू पटनायक की बायोग्राफी के लांच के लिए प्रणब मुखर्जी, बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा और सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी को न्योता दिया था. 27 जनवरी 2018 को नवीन पटनायक ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक फोटो भी अपलोड किया था जिसमें इन चारों वरिष्ठ नेताओं को नवीन पटनायक के साथ भोजन भी करते देखा जा सकता था.
मीडिया रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि ये पहली मुलाकात थी जिसमें संभावित वैकल्पिक मोर्चे को हकीकत में बदलने के लिए कवायद शुरू हुई. बता दें कि 2012 में जब राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी का नाम प्रस्तावित किया गया था तो ममता बनर्जी और शिवसेना ने भी उसका समर्थन किया था. रिपोर्ट में हाल में ममता बनर्जी और टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव की मुलाकात का भी जिक्र किया गया. मीडिया रिपोर्ट में एक नेता के हवाले से ये भी कहा गया कि ममता और टीआरएस प्रमुख के बीच बैठक को प्रणब मुखर्जी का भी समर्थन था.
खैर वैकल्पिक मोर्चा कैसे अस्तित्व में आता है? प्रणब मुखर्जी पूर्व राष्ट्रपतियों की परंपरा को तोड़ते हुए सक्रिय राजनीति में सामने आ कर या पर्दे के पीछे रह कर कोई भूमिका निभाते हैं या नहीं, ये अभी सब भविष्य के गर्त में छुपा है. लेकिन प्रणब मुखर्जी ने एक कदम ऐसा उठाया जो पिछले कुछ दिनों से सुर्खियों में बना हुआ है.
प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में 7 जून को आरएसएस के स्वयंसेवकों को संघ शिक्षा शिविर कार्यक्रम में संबोधित करने का न्योता स्वीकार किया है. जाहिर है प्रणब दा ने सोच समझ कर ही ये कदम उठाया है. संघ का न्योता स्वीकार करने से कांग्रेस के कुछ नेताओं के माथे पर बल पड़ना तय था. ऐसी स्थिति में जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद संघ के कटु आलोचक रहे हैं.
रमेश चेन्नितला, अधीर चौधरी, वी हनुमंत राव जैसे कांग्रेस के कई नेताओं ने प्रणब से आग्रह भी किया है कि वे संघ के कार्यक्रम से खुद को दूर रखें. उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति से 'पंथनिरपेक्षता की रक्षा के लिए' अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया है. वहीं पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि प्रणब ने न्योता स्वीकार कर लिया है तो उन्हें संघ के कार्यक्रम में जाकर उसे समझाना चाहिए कि उसकी विचारधारा में क्या खामी है? कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है कि जब तक आपको यह पता न चले कि उन्होंने कार्यक्रम में जाकर क्या कहा है, आप उन पर राय नहीं दे सकते.
अब सभी नजरें मुखर्जी पर हैं कि प्रणब 7 जून को संघ के कार्यक्रम में जाकर क्या बोलते हैं. क्या वे वहां गांधीवादी और नेहरूवादी विचारधारा पर बोलेंगे? हो सकता है कि प्रणब आदिवासी इलाकों में संघ के काम और अनुशासन की तारीफ करे. बेशक संघ की विचारधारा का प्रणब अनुमोदन ना करें लेकिन वो खुले तौर पर उसकी आलोचना से भी परहेज करना चाहेंगे. जो भी हो प्रणब इतने मझे हुए नेता तो हैं ही कि वो संघ को अपना इस्तेमाल नहीं करने देंगे.
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