7 मई को फ्रांस अपना नया राष्ट्रपति चुनेगा. इसका फैसला रात साढ़े 10 के आस-पास आएगा. मुख्य मुकाबला इमानुएल माक्रोन और मरीन ले पेन के बीच है. एक तरफ जहां इमैनुएल माक्रोन फ्रांस में उदारवाद का नया चेहरा हैं वहीं मरीन ले पेन घोर दक्षिणपंथी हैं. पूरी दुनिया की निगाहें इस चुनाव पर लगी हुई हैं क्योंकि जीत किसी की भी हो यह चुनाव यूरोप का तक़दीर तय करेगा.
फ्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां 23 अप्रैल को हुए पहले दौर के चुनाव में ही छंट गईं थीं. अब चुनावी अखाड़े में केवल 39 साल के इमैनुअल मैक्रोन और 48 वर्षीय मरीन ले पेन ही बचे हैं. तो स्वभाविक ही है इसका दूरगामी असर यूरोप पर पड़ेगा ही. जानकारों के मुताबिक फ्रांस के नतीजों का असर जर्मनी के चुनाव पर भी पड़ेगा जहां इसी वर्ष सितंबर में चुनाव होना है.
तो सवाल यहां उठना स्वभाविक ही है कि आखिर क्यों फ्रांस की पुरानी स्थापित पार्टियां प्रेसिडेंट के चुनाव के रेस से बाहर हो गईं. विशेषज्ञों के अनुसार उनके हारने की वज़ह लोगों का इस्लामी आंतक के अनुभव, आर्थिकी संकट और नौजवानों की बेरोजगारी जैसे मुद्दो का हावी होना है. पहले दौर का परिणाम परंपरागत दलों के प्रति मोहभंग की ओर साफ इशारा करता है. शायद इसी कारण से एकदम नई या अछूत रही पार्टी मतदाताओं की पसंद बनी.
चुनावी मुद्दे
इधर कुछ दिनों में...
7 मई को फ्रांस अपना नया राष्ट्रपति चुनेगा. इसका फैसला रात साढ़े 10 के आस-पास आएगा. मुख्य मुकाबला इमानुएल माक्रोन और मरीन ले पेन के बीच है. एक तरफ जहां इमैनुएल माक्रोन फ्रांस में उदारवाद का नया चेहरा हैं वहीं मरीन ले पेन घोर दक्षिणपंथी हैं. पूरी दुनिया की निगाहें इस चुनाव पर लगी हुई हैं क्योंकि जीत किसी की भी हो यह चुनाव यूरोप का तक़दीर तय करेगा.
फ्रांस में राष्ट्रपति के चुनाव के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां 23 अप्रैल को हुए पहले दौर के चुनाव में ही छंट गईं थीं. अब चुनावी अखाड़े में केवल 39 साल के इमैनुअल मैक्रोन और 48 वर्षीय मरीन ले पेन ही बचे हैं. तो स्वभाविक ही है इसका दूरगामी असर यूरोप पर पड़ेगा ही. जानकारों के मुताबिक फ्रांस के नतीजों का असर जर्मनी के चुनाव पर भी पड़ेगा जहां इसी वर्ष सितंबर में चुनाव होना है.
तो सवाल यहां उठना स्वभाविक ही है कि आखिर क्यों फ्रांस की पुरानी स्थापित पार्टियां प्रेसिडेंट के चुनाव के रेस से बाहर हो गईं. विशेषज्ञों के अनुसार उनके हारने की वज़ह लोगों का इस्लामी आंतक के अनुभव, आर्थिकी संकट और नौजवानों की बेरोजगारी जैसे मुद्दो का हावी होना है. पहले दौर का परिणाम परंपरागत दलों के प्रति मोहभंग की ओर साफ इशारा करता है. शायद इसी कारण से एकदम नई या अछूत रही पार्टी मतदाताओं की पसंद बनी.
चुनावी मुद्दे
इधर कुछ दिनों में फ्रांस में काफी आतंकी हमले हुए हैं जिसके चलते यूरोप में असहिष्णुता का भाव बढ़ा है. हालाँकि दुनिया में इस समय इस्लामोफोबिया का डर हावी रहा है, लेकिन यूरोप में यह कुछ ज्यादा ही रहा है. इसकी वजह पहले अलकायदा और बाद में आइएस द्वारा किए गए हमले हैं.
फ्रांस में सुरक्षा का मुद्दा अहम रहा है क्योंकि अब तक जनवरी 2015 से चरमपंथी हमलों में लगभग 230 लोगों की मौत हो चुकी है.
बेरोज़गारी का मुद्दा भी इस चुनाव में प्रमुख रूप से छाया रहा. यहां बेरोज़गारी की दर लगभग 10 प्रतिशत है और यूरोपीय संघ के सदस्यों में बेरोज़गारी में फ्रांस आठवें नंबर पर आता है. एक आंकड़े के अनुसार फ्रांस में 25 साल से नीचे की उम्र के चार युवाओं में से एक बेरोज़गार है.
कांटे का टक्कर
यहां इमानुएल माक्रोन और ले पेन के बीच कांटे का टक्कर है. 23 अप्रैल को हुए प्रथम चुनाव में इमानुएल माक्रों को 23.7 वोट मिले तो ले पेन को 21.5 प्रतिशत वोट. ले पेन के चुनाव प्रचार की रणनीति लगभग वैसी ही है जैसी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की थी. माना जाता है कि चुनाव से पहले अमेरिका में हुए आतंकी हमले और उसके बाद ट्रंप के मुस्लिम विरोधी बयानों ने उन्हें चुनाव में बड़ा फायदा पहुंचाया था. फ्रांस में ले पेन को लेकर भी ऐसा ही माना जा रहा है.
मैक्रोन एक निवेश विशेषज्ञ पूर्व बैंकर हैं और राजनीति के नए खिलाड़ी है. निवर्तमान राष्ट्रपति ओलांदे की मंत्रिपरिषद में मात्र दो वर्षों तक वित्तमंत्री रहे है. साल भर पहले उन्होंने इस्तीफा देकर अपनी अलग पार्टी (एन मार्श) बना ली और सबको हैरानी में डालते हुए राष्ट्रपति पद के सबसे प्रबल दावेदार बन गए.
इन सबसे जाहिर है कि फ्रांस परिवर्तन के कगार पर खड़ा है. अगर मैक्रोन जीते तो वे फ्रांस के अब तक के सबसे युवा राष्ट्रपति होंगे, अगर ले पेन जीतीं, तो पहली बार एक महिला राष्ट्रपति होंगी. लेकिन फ्रांस की जनता किसे जीत दिलाती है ये तो सात मई को ही पता चल पायेगा. लेकिन इतना तो पक्का है-- जो भी जीते इसका दूरगामी परिणाम यूरोप में होना ही होना है. यूरोप में पड़ने वाला असल अतंत: भारतीय व्यापार और विदेश नीतियों पर भी पड़ सकता है.
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