भारतीय समाज के लिए सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की चीजें सामने आ रही हैं. सकारात्मक यह है कि युवा पीढ़ी अब आजिज आकर चीजों को कुएं के मेंढक की तरह लेने को तैयार नहीं है. पहले की तरह. बल्कि अब समग्रता से देखने का प्रयास कर रही है और इसके लिए बहुत बोल्ड कदम उठाने में भी उसे संकोच नहीं है. यह बहुत स्पष्ट पीढ़ी है. वहीं नकारात्मकता यह है कि विदेशी एजेंसियों के इशारे पर भारत में उनके सिंडिकेट अराजकता का माहौल तैयार कर सत्ता हथियाने की चरम कोशिशों में लगे नजर आते हैं. जनता को भरोसे में लेकर नहीं, बल्कि बरगलाकर. और अपनी ही संस्थाओं को सुविधाजनक स्थापना के लिए संदिग्ध बनाकर. इसका सबसे नकारात्मक पक्ष यह है कि कुछ लोगों को सत्ता में आने की इतनी जल्दबाजी हो है कि वे जनता के सबसे जरूरी सवालों को नजरअंदाज करते हुए और अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखने भर के लिए भारतीय संस्थाओं को ही जाने अनजाने खोखला करते नजर आ रहे हैं.
गुजरात दंगों पर बीबीसी की डॉक्युमेंट्री, हिंडनबर्ग रिसर्च और राममंदिर मामले में सुप्रीम कोर्ट पर अंतहीन सवालों की क्रोनोलाजी से तमाम चीजों को बहुत आसानी से समझा जा सकता है. एक से बढ़कर एक चीजें लगातार आ रही हैं. जैसे पहले आती थीं और निश्चित ही आगे भी आती रहेंगी. बावजूद कि भारत का भविष्य क्या होगा- अब इसका फैसला किसी विदेशी एजेंसी की बजाए यहां का समाज करेगा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के अंदर से जिस तरह का इनसाइडर स्टेटमेंट निकलकर आ रहा, वह साफ़ करता है कि असल में फिलहाल का माहौल "हिंदू पुनर्जागरण" नहीं बल्कि "भारत के पुनर्जागरण" की घोषणा है.
अगर आपको वह अबतक नहीं सुनाई पड़ा तो एक बार जरूर चेक कर लीजिए. कहीं नहाते वक्त आपके कानों में पानी तो नहीं चला गया. या जो लोग नहाना नहीं पसंद करते, उन्होंने कानों में जो रुई पहले डाली थी शायद अभी तक निकाल नहीं पाए हैं. आंखें धुल लीजिए और कान साफ़ कर लीजिए. यह वक्त की बहुत बड़ी जरूरत है. खैर.
अनिल एंटन,फोटो-ANI/इंडिया टुडे.
जैक स्ट्रा को शायद मालूम नहीं यह भारत है, ईराक नहीं
गुजरात दंगों पर एकतरफा दृष्टिकोण को लेकर बनी बीबीसी की प्रतिबंधित डॉक्युमेंट्री की केरल कांग्रेस ने स्क्रीनिंग की. देशभर में किया जा रहा है. केरल पीएफआई का गढ़ था और राहुल गांधी की भारत यात्रा वहां सबसे लंबे वक्त तक रही. लेकिन ताजा भारत विरोधी रुझानों के बाद अनिल एंटनी जैसे युवा नेता जो असल में गांधी परिवार के सबसे वफादार पूर्व रक्षामंत्री और देश के कद्दावर नेता एके एंटनी के बेटे हैं- भारत की संप्रभुता के लिए अपनी ही पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. वह भी उस राज्य में उस पार्टी के पक्ष में- जहां भाजपा टॉप राजनीतिक ताकतों में है ही नहीं. डॉक्युमेंट्री स्क्रीनिंग को लेकर अनिल ने कहा था- "यह (डॉक्युमेंट्री के पीछे के लोग) वही लोग हैं जो उन मुख्य लोगों के पीछे थे जो इराक युद्ध के मास्टरमाइंड हैं, जहां गलत फैसलों के कारण हजारों निर्दोष लोग मारे गए. जब ऐसा कोई डॉक्यूमेंट्री बना रहा है और यहां आ रहा है तो देश (भारत) का कोई भी संबंधित नागरिक कहेगा कि आपको इससे सावधान रहने की जरूरत है." अनिल ने साफ़ कहा कि यह डॉक्युमेंट्री ईराक की तरह भारत को भी राजनीतिक आर्थिक रूप से अस्थिर करने का ही एक प्रोपगेंडा है.
असल में अनिल ईराक युद्ध के बहाने जैक स्ट्रा का उल्लेख कर रहे थे. जैक ब्रिटेन के विदेश मंत्री रहे हैं और ईराक युद्ध में वह भी वहां जैविक और परमाणु हथियारों का सिद्धांत गढ़ने वाले अगुआ शिल्पकार थे. जिसे आधार बनाकर ईराक पर हमला हुआ और उसे तबाह किया गया. बावजूद कि ईराक अस्थिर हो गया, मगर वहां आरोपों से जुड़ा कोई सबूत निकलकर नहीं आया है. दुर्भाग्य से कोई वीर बहादुर ईराक युद्ध से जुड़ी न्यूयॉर्क टाइम्स की तमाम रिपोर्ट्स का फैक्ट चेक नहीं कर रहा. गुजरात डॉक्युमेंट्री में भी जैक स्ट्रा की ही भूमिका है. अनिल एंटनी कांग्रेस के सक्रिय युवा नेता थे. वे अहम पद पर काम करते थे.
मोदी के पक्ष में बयान के बाद उनपर पार्टी की तरफ से चौतरफा दबाव डाला गया और वह इतना ज्यादा था कि उन्हें पार्टी के सभी पदों से इस्तीफ़ा देकर बाहर जाना पड़ा. उन्होंने पार्टी छोड़ दी मगर भारत विरोधी एजेंसियों, कांग्रेस और राहुल गांधी की भारत विरोधी राजनीति का समर्थन नहीं किया. यह बहुत बड़ी बात है. केरल का ईसाई समुदाय भारत विरोधी विचार को ज्यादा बेहतर तरीके से समझने की स्थिति में है. केरल से ही शशि थरूर ने भी पार्टी लाइन से बाहर जाते हुए डॉक्युमेंट्री का विरोध किया है.
उन्हें चाहिए कुर्सी, देश जाए चूल्हेभाड़ में
सोचने वाली बात है कि जब तमाम सरकारी जांच एजेंसियों और सुप्रीम कोर्ट तक ने मामलों में मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को दोषी नहीं पाया था तो अब सालों बाद उस पर चर्चा क्यों की जा रही है? और जब जांच हुई तब कांग्रेस की ही सरकार थी. क्या कांग्रेस ने गुजरात दंगों में मोदी को बचाया था? अगर नहीं बचाया था तो साफ़ है कि कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट समेत देश की बड़ी और सम्मानित संस्थाओं को संदिग्ध बना रही है और अपने नागरिकों को अराजकता में झोकने की कोशिश कर रही है. सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही क्यों- कांग्रेस महज एक वर्ग का वोट पाकर सत्ता में दोबारा काबिज होने के लिए तमाम संस्थाओं को संदिग्ध बना रही है. वर्ना तो सेना पर सवाल उठाने वाले, सर्जिकल स्ट्राइक पर बयान देने वाले दिग्विजय सिंह को पार्टी में क्यों रखा जाता? जबकि राहुल ने यह भी कहा कि उनका बयान कांग्रेस का बयान नहीं है. और वाजिब बात कहने वाले अनिल एंटनी को बाहर जाना पड़ता है. कांग्रेस अनिल के बयान को भी उनका निजी बयान बता सकती थी. मगर दो तस्वीरें साफ कर देती हैं कि कांग्रेस को दिग्विजय सिंह के बयान से सहमति है और अनिल एंटनी के बयान से असहमति.
बावजूद कि गुजरात में मोदी के मुख्यमंत्री रहते जो जो हुआ था- देश का बच्चा बच्चा, सबकुछ जानता है. ऐसी एक भी बात नहीं है जो किसी को पता ना हो. और वह भारत के लिए अब कोई सवाल नहीं है. अगर जैक स्ट्रा को लगता है कि कांग्रेस के जरिए वह इसे भारत की जनता का सवाल बना देंगे तो वह मूर्ख हैं. उन्हें समझना चाहिए कि भारत ईराक नहीं है. बावजूद कि टाइमिंग से पता चल जाता है कि असल में इसे मोदी और बीजेपी के विरोध में ही बनाया गया है. उद्देश्य भारत को बर्बाद ही करना है जो फिलहाल तमाम विदेशी संस्थाओं की प्राथमिकता में साफ़ साफ दिख रहा है. और यह क्यों है- विदेशी कूटनीति में दिलचस्पी रखने वालों से बेहतर समझा जा सकता है.
पुरानी चीजें हम भूल जाते हैं, राममंदिर पर उन्होंने क्या क्या किया देख लीजिए
गुजरात पर बनी प्रतिबंधित डॉक्युमेंट्री में सुप्रीम कोर्ट जैसी भारतीय संस्थाओं को खारिज किया जा रहा है. खारिज किया ही जाना है. नहीं किया जाता तो आश्चर्य होता. तमाम उदाहरण हैं जिसमें सबसे तगड़ा उदाहरण तो राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही है. कुछ महीनों में वहां राममंदिर बन जाएगा. लेकिन ओवैसी, राहुल गांधी, केजरीवाल, शरद पवार,तेजस्वी यादव जैसे नेता और उनका प्रचारतंत्र आज भी मानने को तैयार नहीं कि कोर्ट ने फैसला - सबूतों साक्ष्यों और सत्य असत्य को कसौटी पर रखते हुए दिया था. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गलत बताने के लिए राम को झूठा और काल्पनिक साबित करने की होड़ अभी तक जारी है. रोज नए-नए तर्क रखे जा रहे हैं. मगर असल में सुप्रीम कोर्ट में हुआ क्या- किन वजहों पर फैसला आया, उसके तथ्यों पर बात नहीं हो रही है. बल्कि उसपर भी बेतुके सवाल किए जाते हैं.
राम मंदिर का मामला जब साक्ष्यों की जांच के लिए आगे बढ़ा तो सबसे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट में उसकी पड़ताल की गई. यह भी सवाल था कि अगर मंदिर तोड़कर मस्जिद बनी तो उसका संदर्भ उस दौर के कवियों के लेखन में खासकर राम को समर्पित लोककवि तुलसीदास की रचनाओं में क्यों नहीं आया? कोर्ट ने चार मठों के शंकराचार्यों को निराकरण के लिए बुलाया. मगर उन्होंने खारिज कर दिया. वाजिब भी था कि अब हम अपने भगवान अपने धार्मिक भरोस को भी सिद्ध करें. यह स्थिति उस देश की है जहां दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यता आज भी है और दुनिया के अलग अलग हिस्सों में सनातन की जो मुट्ठीभर आबादी है, वह भारत की तरफ ही आशा और विश्वास के साथ देखती है. खैर, जगदगुरु रामभद्राचार्य कोर्ट गए. दोनों आंखों से दिव्यांग हैं. लेकिन दुर्लभ धार्मिक विद्वान हैं जिन्हें सभी वेद, उपनिषद्, पुराण, तमाम धर्मग्रंथों और टीकाएं ज़ुबानी याद हैं.
राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गलत बताने के लिए राम को ही गलत साबित किया जा रहा
वह कोर्ट में गए और उन्होंने बताया कि तुलसीदास को तो छोड़ दीजिए, राम अयोध्या में थे- इसका जिक्र वेदों में भी है. भारत के तमाम इलाकों में दर्जनों काशी को देखते हुए भी जो लोग थाईलैंड में अयोध्या और राम को ईसा मसीह के बाद एक थाई राजा के रूप में देख रहे हैं, उन्हें जाकर अथर्ववेद के उस श्लोक को चेक करना चाहिए. बावजूद कि रामभद्राचार्य ने तुलसी के हवाले से भी बताया- चूंकि रामचरित मानस राजा राम के जीवन दर्शन का ब्यौरा है, वहां बाबरी के निर्माण का जिक्र स्वाभाविक नहीं था. लेकिन तुलसी ने एक कवि के नाते दोहा शतक में मंदिर ढहाए जाने और बाबर के अत्याचारों का उल्लेख किया है. 9 दोहे उन्होंने लिखे. रामभद्राचार्य ने चार सौ से ज्यादा प्रमाण कोर्ट में पेश किए. कोर्ट ने तमाम पहलुओं से उसे जांचा और सच पाया. शायद दो या तीन चीजें स्पष्ट नहीं हो पाई. रामभद्राचार्य जो वैदिक और पौराणिक प्रमाण रखे थे पुरातात्विक सर्वेक्षण में भी वह सत्य पाया गया. फैसला उसके बाद ही आया था.
फैसले में मोदी सरकार की कोई बड़ी भूमिका नहीं थी और सुप्रीम कोर्ट पर दबाव नहीं था. इसे शाहबानो प्रकरण से समझिए. बस मोदी ने वह दबाव नहीं बनने दिया जो शाहबानो वाले मामले में प्रचंड बहुमत से चुनी राजीव सरकार को झेलना पड़ा था और मुट्ठीभर अशराफ कट्टरपंथियों के आगे भारत की पूरी सरकार और संस्थाएं झुक गईं. राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला उतना ही संवैधानिक और न्यायपूर्ण था जितना शाहबानो के मामले में था. खैर.
बाबरी के पक्ष में तर्क देने वाले किसी मंदिर के ढांचे पर मस्जिद बनाए जाने के तर्क का विरोध करते रहे. लेकिन खुदाई से पहले जब जमीन के ऊपर उपकरणों की मदद से वैज्ञानिक अनुसंधान किए गए तो पता चला कि इसके नीचे एक और ढांचा है. यह बात सामने आते ही बाबरी के पैरोकार बताने लगे कि वह ईदगाह का ढांचा था. खुदाई में जब चीजें मिलने लगीं तो बताया गया कि बौद्ध मंदिर था. जब और चीजें मिली तो बताया गया कि असल में यह राम मंदिर नहीं जैन मंदिर था. सुप्रीम कोर्ट ने तमाम साक्ष्यों के बाद ही फैसला दिया. बावजूद अगर कुछ लोग यह मान रहे हैं कि वहां बाबरी का होना ही सत्य था तो क्या ही किया जा सकता है. वे मान रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने गलत फैसला दिया और सिर्फ इस वजह से कि जैसा वे चाहते थे कोर्ट ने वैसा नहीं किया. लेकिन हमारी संस्थाएं धार्मिक रूप से मतान्ध वामपंथियों की वजह से संदिग्ध साबित हो रही हैं. भारतीय समाज को इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए. हमारी संस्थाओं को संदिग्ध बनाया जा रहा है और उसे हमारे ही कुछ नेता हवा हवाई बयान देकर पुख्ता कर रहे हैं.
यह बहुत भयावह और चिंताजनक स्थिति है. बीबीसी की डॉक्युमेंट्री हो या कोई मामला- बिल्कुल एक जैसा पैटर्न नजर आता है. और मकसद भारत की सांस्कृतिक बहुलता को एकरंगी बनाने की कोशिशें ही हैं. इसके रास्ते में आने वाली सभी चीजों को वोटबैंक की ताकत से संदिग्ध बनाने और अस्थिर बनाने कोशिशें जारी हैं. अगर यह नहीं होता तो धीरेंद्र शास्त्री के चमत्कार पर राष्ट्रीय बहस करने के साथ-साथ बजाए भारतीय मीडिया जेडीयू सांसद के उस बयान पर भी बात कर रहा होता जिसमें वह भारत के हर शहर को कर्बला बना देने की धमकी दे रहा था. लेकिन दुर्भाग्य से कर्बला बना देने वाला भारत में सेकुलर कहा जाता है और संवैधानिक संस्थाएं उनके आगे संदिग्ध बन जाती हैं. पंगु नजर आती हैं. और जो मीडिया कर्बला बना देने वाले बयान से बचता है दुर्भाग्य से उसे ही "गोदी मीडिया" पुकारा जाता है.
शाहरुख की प्रशंसा और अडानी से घृणा क्यों?
यह अस्थिर बनाने की ही कोशिशें हैं वर्ना तो देश के टॉप पांच अमीर एक्टर्स में संदिग्ध तरीकों से शामिल नजर आते शाहरुख खान प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं और टॉप पांच में आकर गौतम अडानी घृणा का विषय बन जाते हैं? शाहरुख की उपलब्धि में और अडानी की उपलब्धि में अंतर की वजहों को देखना चाहिए. अडानी को लेकर हिंडनबर्ग रिसर्च प्रकरण का मकसद तो साफ़ है. यह एजेंसी पांच साल पहले बनी थी. यह वित्तीय शोध करती है. रिपोर्ट्स जारी करती है. अडानी पर राहुल गांधी निशाना साधते हैं और उन्हीं के मुख्यमंत्री उनसे निवेश लाते हैं. जैसे ही हिंडनबर्ग की रिसर्च आती है कांग्रेस उस पर जांच की मांग करती है. और शेयर बाजार रिकॉर्ड स्तर पर टूट जाता है. अडानी अपने परिवार में पहली पीढ़ी के खरबपति हैं. दुनिया के कई देशों में उनका निवेश है.
इससे पहले ऑक्सफेम जो एनजीओ और भारत विरोधी काम करने वालों को फंड देने के लिए मशहूर है- भारत के बारे में उसकी भी रिपोर्ट आती है. वह भारतीय अर्थव्यवस्था को आर्थिक असमानता के सवाल उठाकर अस्थिर करने की कोशिश करता है. पश्चिम की तमाम एजेंसियां अपना उपनिवेश बनाए रखने के लिए किस मकसद से काम करती हैं लोग बेहतर समझने लगे हैं. और लोग यह भी बेहतर समझते हैं कि भारत के नवनिर्माण में उसके अपने कारोबारियों का कितना बड़ा हाथ है. एंडरसन और माल्या कैसे भाग जाता है- भारत यह भी बेहतर जानता है.
वैसे मजेदार यह है कि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट के बाद भले अडानी और देश के लाखों निवेशकों को तगड़ा झटका लगा, मगर अब आम लोग अडानी का शेयर खरीदने के लिए दांव लगा रहे हैं. सोशल मीडिया पर कैम्पेन देख लीजिए. लोगों को अभी भी अडानी के शेयर पर भरोसा है. देश के सामान्य लोगों का अपने उद्योगपति के लिए यह भरोसा असल में भारत के पुनर्जागरण का ही संकेत है.
न्यूयॉर्क टाइम्स ने भी क्या कर लिया भारत का? भारत की वैक्सीन से लेकर कोविड के खिलाफ भारत के संघर्ष तक में उसने भारत को बदनाम करने वाली रिपोर्ट्स की बावजूद भारत ना सिर्फ महामारी से बाहर निकला बल्कि दुनिया की टॉप पांच अर्थव्यवस्था में अपनी जगह बनाने में भी कामयाब हुआ. यह वही न्यूयॉर्क टाइम्स है जिसने ईराक युद्ध में अमेरिका के कुकर्मों पर पर्दा डालकर मानवता की हत्या को छिपाने के नैरेटिव गढ़े. बावजूद भारत में उसे पत्रकारिता के महान संस्थान के रूप में देखा जाता है. यह बहुत खतरनाक समय है. भारतीय समाज को अपने भविष्य के लिए विदेशी ताकतों और उनके सिंडिकेट को निर्णायक रूप से कमजोर करना पड़ेगा. अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को देखिए और समझिए कि यह क्यों जरूरी है. लोगों को खुलकर दमदारी से बात करनी चाहिए. लोग खुलकर बात करेंगे तो शायद कुछ नेता कुर्सी पाने भर के लिए किसी व्यक्ति के विरोध और भारत विरोध के बीच का फर्क समझ सकें.
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