एक सुनी सुनाई कहानी खूब याद आ रही है. गांव में एक आदमी था. हमेशा झूठ बोलता था. वक्त के साथ उसकी यही एक आदत कभी नहीं बदल पाई. आदमी का घर गांव में सबसे किनारे था. एक बार गांव में बाघ आया. गांववालों ने बाघ को वापस जंगल की तरफ हांक दिया. बात आई गई. लेकिन अब झूठे को एक नया फितूर मिल गया था. जब भी उसका मजे लेने का (परेशान करना भी कह सकते हैं) मन करता- वह बाघ आया, बाघ आया चिल्लाता. चूंकि गांव में एक बार बाघ घुस चुका था, लोग सुनते ही दौड़ पड़ते. हालांकि गांववालों को कभी बाघ नहीं मिलता. सवाल होता तो झूठा बोलता- "शोरगुल सुनकर बाघ जंगल में भाग गया. मैंने उसे आते और जाते देखा." गांववालों को झूठे की आदत पता थी. लेकिन बाघ वाली उसकी कहानी पर लोगों ने भरोसा कर लिया.
करीब दो-तीन महीने तक झूठे आदमी की फितूरबाजी चलती रही. चूंकि जब कोई बाघ आता ही नहीं था तो गांववालों को दिखता कहां से. कई मर्तबा की चिल्लाहट के बावजूद बाघ नहीं दिखा तो गांववालों ने मान लिया कि यह झूठे की नई फितूरबाजी के अलावा कुछ नहीं है. वह सिर्फ परेशान कर रहा है. कोई बाघ-वाघ नहीं आता गांव में. झूठे ने एक दो बार और मुनादी से परेशान करने की कोशिश की. लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया तो उसका फितूर ख़त्म हो गया. हालांकि कुछ दिनों बाद सच में एक दिन दो-तीन बाघों का झुंड जंगल से निकलकर गांव की तरफ बढ़ते दिखा. झूठा इस बार डरवश गांववालों की मदद के लिए गुहार लगाई- "बाघ आया, बाघ आया."
लोगों ने सुना जरूर पर किसी ने ध्यान देना ठीक नहीं समझा. बाघ के झुंड ने झूठे को मारकर खा लिया. बाद में उसका कंकाल मिला. गांववालों को अपनी गलती का अफ़सोस जरूर हुआ पर उनका भी दोष क्या था. उन्हें तो ना जाने कितनी बार बाघ के नाम पर उसने ठगा था. झूठे ने अपने खात्मे का इंतजाम खुद किया. खैर. यह कहानी आपने शायद थोड़े बहुत फेरबदल के साथ सुनी होगी. आपको लग रहा होगा कि अगला इस किस्से को लेकर क्यों बैठ गया है? असल में किस्सा इसलिए सुनाया गया क्योंकि पिछले दो-तीन साल की भारतीय राजनीति में यह बहुत मौजूं नजर आ रहा है. भारतीय...
एक सुनी सुनाई कहानी खूब याद आ रही है. गांव में एक आदमी था. हमेशा झूठ बोलता था. वक्त के साथ उसकी यही एक आदत कभी नहीं बदल पाई. आदमी का घर गांव में सबसे किनारे था. एक बार गांव में बाघ आया. गांववालों ने बाघ को वापस जंगल की तरफ हांक दिया. बात आई गई. लेकिन अब झूठे को एक नया फितूर मिल गया था. जब भी उसका मजे लेने का (परेशान करना भी कह सकते हैं) मन करता- वह बाघ आया, बाघ आया चिल्लाता. चूंकि गांव में एक बार बाघ घुस चुका था, लोग सुनते ही दौड़ पड़ते. हालांकि गांववालों को कभी बाघ नहीं मिलता. सवाल होता तो झूठा बोलता- "शोरगुल सुनकर बाघ जंगल में भाग गया. मैंने उसे आते और जाते देखा." गांववालों को झूठे की आदत पता थी. लेकिन बाघ वाली उसकी कहानी पर लोगों ने भरोसा कर लिया.
करीब दो-तीन महीने तक झूठे आदमी की फितूरबाजी चलती रही. चूंकि जब कोई बाघ आता ही नहीं था तो गांववालों को दिखता कहां से. कई मर्तबा की चिल्लाहट के बावजूद बाघ नहीं दिखा तो गांववालों ने मान लिया कि यह झूठे की नई फितूरबाजी के अलावा कुछ नहीं है. वह सिर्फ परेशान कर रहा है. कोई बाघ-वाघ नहीं आता गांव में. झूठे ने एक दो बार और मुनादी से परेशान करने की कोशिश की. लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया तो उसका फितूर ख़त्म हो गया. हालांकि कुछ दिनों बाद सच में एक दिन दो-तीन बाघों का झुंड जंगल से निकलकर गांव की तरफ बढ़ते दिखा. झूठा इस बार डरवश गांववालों की मदद के लिए गुहार लगाई- "बाघ आया, बाघ आया."
लोगों ने सुना जरूर पर किसी ने ध्यान देना ठीक नहीं समझा. बाघ के झुंड ने झूठे को मारकर खा लिया. बाद में उसका कंकाल मिला. गांववालों को अपनी गलती का अफ़सोस जरूर हुआ पर उनका भी दोष क्या था. उन्हें तो ना जाने कितनी बार बाघ के नाम पर उसने ठगा था. झूठे ने अपने खात्मे का इंतजाम खुद किया. खैर. यह कहानी आपने शायद थोड़े बहुत फेरबदल के साथ सुनी होगी. आपको लग रहा होगा कि अगला इस किस्से को लेकर क्यों बैठ गया है? असल में किस्सा इसलिए सुनाया गया क्योंकि पिछले दो-तीन साल की भारतीय राजनीति में यह बहुत मौजूं नजर आ रहा है. भारतीय विपक्ष की मौजूदा हालत उसी झूठे के फितूर जैसी होती जा रही है जिसका जिक्र ऊपर किया गया. झूठे का क्या हो सकता है- शायद ही इसे समझाने की जरूरत हो.
भाजपा बार-बार क्यों जीत रही है अब भी समझ नहीं पा रहा विपक्ष
असल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने कई मुद्दों को अपने घोषणापत्र का विषय बनाया था. वे मुद्दे जो भाजपा की स्थापना के दौर से ही उसकी राजनीति का सबसे अहम बिंदु हैं. इनमें तीन तलाक, कश्मीर में धारा 370 हटाना, अवैध नागरिकता, अयोध्या-काशी-मथुरा, सामान नागरिक संहिता जैसे संवेदनशील विषय शामिल रहे हैं. साल 2014 में भाजपा को इन्हीं मुद्दों पर प्रचंड बहुमत मिला था. और साल 2019 में भी भाजपा ने ना सिर्फ प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की बल्कि उत्तर पूर्व के तमाम इलाकों और पश्चिम बंगाल में मौजूदगी से लोगों को हैरान भी कर दिया. यहां तक कि कई दशक से लगातार पेंचीदा राजनीति के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश और बिहार में भी सत्ता के गणित को अपने अनुकूल बना लिया.
भाजपा के मुद्दे एवें नहीं थे. पिछले आठ सालों के दौरान इन मुद्दों (आप इसे हिंदुत्व ही कह सकते हैं) ने राजनीति पर कितना असर डाला है, उसे भाजपा नहीं बल्कि विपक्ष के भी राजनीतिक एजेंडा को देखकर समझा जा सकता है. आज करीब-करीब समूचा विपक्ष हिंदुत्व की 'सॉफ्ट लाइन' पर ही नजर आ रहा है. राजनीति पर हिंदुत्व का दबाव कुछ इस कदर है कि कांग्रेसी-वामपंथी-द्रमुक-आंबेडकराइट; लगभग सभी बदले-बदले दिख रहे हैं. विपक्ष अभी भी मुसलमानों को एकमुश्त वोटबैंक की तरह ही देख रहा. उसकी कोशिश है कि मोदी सरकार को घेरने के लिए "मुसलमानों" के वोट और एकजुटता की ताकत को दूसरे ज्वलंत मुद्दों के जरिए सरकार को चोट पहुंचाई जाए.
याद करिए जब नुपुर शर्मा ने पैगम्बर मोहम्मद को लेकर बयान दिया, अरब देशों की प्रतिक्रिया से पहले ना सिर्फ बीजेपी खामोश थी, समूचा विपक्ष भी दस दिन तक चुप बैठा था. अकेले मुसलमानों के नेता और उनके मौलाना/उलेमा, धार्मिक संगठन लड़ रहे थे. कांग्रेस ने तो भारत सरकार पर अरब देशों के माफी मांगने के दबाव को लेकर उल्टे खाड़ी देशों की आलोचना तक की. ऐसा सिर्फ इसलिए था कि विपक्ष भलीभांति जानता है कि जो भी भाजपा को हराने की हैसियत में रहेगा- मुसलमान उसके पीछे खड़े हो जाएंगे, क्योंकि अगले आठ दस साल तक कोई ओवैसी असर डालने वाले मुस्लिम नेता के रूप में नहीं दिखता.
मोदी के हर फैसले का विरोध सत्ता तक पहुंचने का विपक्षी हथकंडा भर है क्या?
ये दूसरी बात है कि मुसलमान भाजपा के खिलाफ एकमुश्त वोट देने के बावजूद उसे रोकने में अबतक नाकाम रहे हैं. क्योंकि घोषणापात्र में किए गए तमाम बड़े वादों को पूरा करने, जनकल्याणकारी योजनाओं और मुसलमानों की एकजुटता की प्रतिक्रिया में हिंदुओं की एकजुटता ने फिलहाल एकमुश्त मुस्लिम मतों को भी निरर्थक कर दिया है. ऐसा नहीं है कि विपक्ष ने भाजपा के विरोध में कोई कसर छोड़ रखा है. अब तक शायद ही मोदी सरकार का कोई ऐसा फैसला आया हो जिस पर सवाल ना उठाए गए हों. विपक्ष ने आतंकियों पर 'एयरस्ट्राइक' को लेकर फुटेज तक मांगे थे. फुटेज आया भी. बालाकोट पर भी आरोप लगाए गए. नागरिकता क़ानून में विपक्ष सीधे-सीधे आंदोलन पर तो नहीं उतरा, लेकिन अलग-अलग शहरों में सरकार की खिलाफत को लेकर शुरू आंदोलनों के पीछे खड़ा रहा.
कश्मीर में भी धारा 370 पर विपक्ष सीधे-सीधे सामने तो नहीं आया, बावजूद पीडीपी और नेशनल कांफ्रेस के पीछे खड़ा रहा है. इससे पहले नोटबंदी, जीएसटी और तमाम मुद्दों पर ऐसा ही हाल दिखा. यहां तक कि कोरोना महामारी और वैक्सीन पर भी गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखा. क्या किसान आंदोलन को भुलाया जा सकता है? सरकार भले तमाम योजनाओं को लेकर सकारात्मक दावा करे. मगर नीतियों में खामियों की गुंजाइश तो हमेशा बनी ही रहती है. मगर विपक्ष का दुर्भाग्य यह है कि वह बेवजह चीजों की वजह से अपनी विश्वसनीयता गंवा चुका है. उसकी हालत उसी झूठे आदमी की तरह होती जा रही है जो बिना वजह "बाघ आया बाघ आया" चिल्लाता रहा और जब बाघ आया तो अंजाम पहले ही ऊपर बताया जा चुका है.
अग्निपथ योजना सही है या खराब- यह बाद का विषय है. अगर योजना खराब ही है तो कम से कम कांग्रेस को आगामी विधानसभा चुनाव इसी एक मुद्दे पर लड़ जाना चाहिए. जनादेश आ जाएगा. लेकिन मामला तो सही या खराब का दिख ही नहीं रहा है. बसा सरकार का विरोध भर करना है. पिछले कुछ दिनों से जो कुछ हो रहा है- अगर वह नहीं हो रहा होता तब ज्यादा हैरानी होती. विपक्ष भले ही हिंसक प्रदर्शनों की जिमेम्दारी ना ले, बावजूद इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीजों के पीछे उसकी ताकत ना हो. सरकारी सेवाओं में संविदा कोई नई चीज नहीं है. पिछले दो दशक से देश के अलग-अलग राज्यों में संविदा पर ही नियुक्तियां की जा रही और लोग बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं. शिक्षा, परिवार स्वास्थ्य, बाल कल्याण, नगर विकास और परिवहन जैसे तमाम विभागों में संविदा पदों के लिए भी बड़े पैमाने पर आवेदन आते हैं. कोढ़ में खाज यह है कि संविदा के आधार पर होने वाली कुछ राज्यों की तमाम नियुक्तियों में पारदर्शिता का भी घोर अभाव है. जबकि अग्निपथ में अल्प अवधि के सैनिकों की नियुक्ति संविदा से अलग और बहुत हद तक बेहतर नियमों के तहत है.
अग्निपथ स्कीम को बंद करवाने की बजाए खामियों को सुधारने पर जोर दे विपक्ष
इस बात को डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि अग्निपथ भले ही अल्प अवधि की सेवा है- मगर अन्य सभी संविदा भर्तियों की तुलना में ज्यादा पारदर्शी, समय के अनुकूल और कर्मचारियों के भविष्य और आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिहाज से उचित है. यह जरूर है कि इसमें कुछ शंकाएं और सवाल हैं. विपक्ष का काम उन शंकाओं और सवालों की तरफ ध्यान दिलाना है बस. मसलन चार साल की सेवा के बाद कर्मचारियों का क्या होगा? सरकार ने पहले ही साफ कर दिया है कि कुल भर्तियों का 25 प्रतिशत सेवाकाल के प्रदर्शन के आधार पर रेगुलर सेवा में समायोजित कर दिए जाएंगे. बाकी के 75 प्रतिशत के लिए सरकार ने अर्धसैन्य बालों में आरक्षण देने की बात कही है. दूसरी अन्य सुविधाएं भी जो एक्स सर्विसमैन को दी जाती हैं. असल बात यह भी है कि इससे सेना या अर्द्ध सैन्य बालों की अन्य भर्तियों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. हालांकि सवाल इसी तरह उठाया जा रहा है जैसे सेना की सभी भर्तियाँ अग्निपथ टाइप से ही होंगी. सरलार ने तो उम्र सीमा आदि बढ़ाकर की सहूलियत भी दे दी है. वाजिब सवालों को उठाने की बजाए उसे ख़त्म करने की जिद पर अड़ना ठीक नहीं है. उसी तरह जैसे नागरिकता क़ानून और किसान आंदोलन के समय किया गया था. बीते चुनाव बता रहे हैं कि दोनों मुद्दों को जनता ने बुरी तरह से खारिज कर दिया.
विपक्ष को अपनी शंकाएं जाहिर करने भर का जनादेश मिला है. मोदी बहुमत के आधार पर ही काम करेंगे. सवाल ही नहीं है कि मोदी वही काम करें जिस पर विपक्ष की सहमति भी हो. लोकतंत्र में ऐसा हो ही नहीं सकता. विपक्ष का जनादेश तो एक तरह से सरकार की योजनाओं के साथ ही आगे बढ़ने का होता है, जरूरी सुझाव के साथ. हालांकि मोदी के दोनों कार्यकाल में उनका रवैया जिस तरह का दिखा है- उससे तो यही लगता है कि मोदी विपक्ष से पूछकर ही कोई काम करें बावजूद गारंटी नहीं है कि सहमति मिल जाए. अगर मोदी सरकार का कोई फैसला जनता के खिलाफ ही है तो किसी दल को को बवाल काटने की बजाए जनता को समझाना चाहिए और चुनाव में जीतकर सरकार को जवाब देना चाहिए. चुनावी जीत के बाद जैसे कोई चीज लागू की जा रही है- उसे बदलने का विकल्प थोड़े ख़त्म हो जाता है. सिर्फ इतनी बात के लिए देश की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और अराजकता को उकसावा देने की क्या जरूरत है?
कुर्सी के लिए युवाओं को सिर्फ सरकारी नौकरियों का लालच देना बंद करें राजनीतिक दल
लेकिन शायद असल मकसद अराजकता फैलाना ही है. किसान आंदोलन में भी यही सब दिख रहा था. दुनिया जिस तरह बदल रही है उसमें सरकारों को अब बोल्ड फैसला लेना ही होगा. सेना तो सबसे महत्वपूर्ण है. अगर अग्निपथ पर भर्तियां गलत हैं तो विपक्ष को चाहिए कि वह अपने राज्यों में संविदा आधारित अन्य सेवाओं को भी इसी तर्ज पर कर्मचारियों के हित के अनुकूल और पारदर्शी बनाकर दिखाए. या संविदा भर्तियों को पूरी तरह से बंद करे. सवाल भी करना बंद करे. किसी भी सूरत में सत्ता में वापसी भर के लिए अराजकता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है. अग्निपथ को बंद करवाने की बेजा मांग के अलावा इसमें बहुत सारे सवाल हैं जिसपर सरकार का ध्यानाकर्षण जरूरी है. मसलन सैनिकों अर्हता के पुराने दकियानूसी नियम और अलग-अलग क्षेत्रों की परस्पर सहभागिता जैसे विषय. सबसे अहम यह भी है कि देश में हर साल जिस तरह से युवा बेरोजगारों की जमात निकल रही है- सबको सरकारी सेवाओं में समायोजित नहीं किया जा सकता. यह कड़वी सच्चाई है. कोई सरकार सभी लोगों को सरकारी नौकरी नहीं दे सकती. यहां तक कि संविदा आधारित भी. युवाओं को सरकारी नौकरियों के सपने दिखाना भी विकास के पहिए को जबरदस्ती थाम देना है.
विपक्ष यह क्यों भूल रहा है कि लोकतंत्र में सरकारों के फैसले से ही उनकी भविष्य की राजनीति तय होती है. कांग्रेस का यूपीए अगर सत्ता से बाहर गया तो अपने फैसलों की वजह से और अभी "बाघ आया बाघ आया" वाली लाइन पर है. लोकतंत्र के लिए यह घातक अवस्था है. कभी सच में विपक्ष कोई जेन्युइन मुद्दा उठाने की कोशिश करेगा तो मान लिया जाएगा कि यह तो इनकी रोज की आदत है. विपक्ष की ऐसी मूर्खतापूर्ण हरकतों की वजह से ही सरकारों को मनमानेपूर्ण कार्य करने का लाइसेंस मिल जाता है. विपक्ष की हरकतों से कुछ होगा नहीं, उल्टा चुनावी राजनीति के जरिए ही वैधानिक तानाशाही के जन्म का कारण जरूर बन सकती है.
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