हमेशा की तरह बिहार की रैली में भी अमित शाह (Amit Shah) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को भारत के 'न भूतो न भविष्यति' स्टेट्समैन के तौर पर पेश किया - और ठीक वैसे ही जेपी नड्डा और राजनाथ सिंह ने भी किया. सभी ने अपने अपने तरीके से समझाया कि कैसे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही देश पूरी तरह सुरक्षित हो गया. 7 जून से शुरू हुई ऐसी 18 रैलियां हो चुकी हैं - और 50 से ज्यादा अभी होनी हैं. अब तक बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे चुनावी राज्यों के अलावा ओडिशा और गुजरात को लेकर रैलियां हुई हैं.
जब भी कोई रैली होती है माहौल तो चुनावी बन ही जाता है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वोटिंग कब होनी है. रैली में कोई चुनाव मैनिफेस्टो भले न जारी हो, लेकिन बातें तो चुनावी वादे जैसे ही होने लगती हैं. ऐसी डिजिटल रैलियां सिर्फ अमित शाह ने ही नहीं की, बल्कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और स्मृति ईरानी जैसे नेताओं ने भी किये.
रैलियों में मोदी सरकार की उपलब्धियां के साथ ही साथ विपक्षी कांग्रेस की खामियां भी गिनायी जाती रहीं - लेकिन लद्दाख की घाटी की घटना (Galwan Valley Clash) ने मोदी सरकार को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है - क्योंकि सिर्फ विपक्ष ही नहीं कई ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब पूरा देश मांगने वाला है.
ये तो बर्बरता की इंतेहा है
बिहार की रैली में अमित शाह ने मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से की जिसकी एक अपील पर पूरा देश एकजुट हो जाता है - चाहे कोरोना से लड़ने का संकल्प हो, जनता कर्फ्यू का पालन हो, दीया जलाना हो या कोरोना योद्धाओं का सम्मान करना हो!
फिर अमित शाह ने प्रधानमंत्री मोदी और सरकार की उपलब्धियां बतानी शुरू की - एक समय था जब कोई भी हमारी सीमाओं के अंदर घुसा चला आता और हमारे सैनिकों का सिर काट कर लेकर चला जाता रहा और दिल्ली दरबार पर इसका कोई असर नहीं होता. हमारे समय में उरी और पुलवामा हुआ - ये मोदी और बीजेपी की...
हमेशा की तरह बिहार की रैली में भी अमित शाह (Amit Shah) ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को भारत के 'न भूतो न भविष्यति' स्टेट्समैन के तौर पर पेश किया - और ठीक वैसे ही जेपी नड्डा और राजनाथ सिंह ने भी किया. सभी ने अपने अपने तरीके से समझाया कि कैसे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही देश पूरी तरह सुरक्षित हो गया. 7 जून से शुरू हुई ऐसी 18 रैलियां हो चुकी हैं - और 50 से ज्यादा अभी होनी हैं. अब तक बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे चुनावी राज्यों के अलावा ओडिशा और गुजरात को लेकर रैलियां हुई हैं.
जब भी कोई रैली होती है माहौल तो चुनावी बन ही जाता है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वोटिंग कब होनी है. रैली में कोई चुनाव मैनिफेस्टो भले न जारी हो, लेकिन बातें तो चुनावी वादे जैसे ही होने लगती हैं. ऐसी डिजिटल रैलियां सिर्फ अमित शाह ने ही नहीं की, बल्कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और स्मृति ईरानी जैसे नेताओं ने भी किये.
रैलियों में मोदी सरकार की उपलब्धियां के साथ ही साथ विपक्षी कांग्रेस की खामियां भी गिनायी जाती रहीं - लेकिन लद्दाख की घाटी की घटना (Galwan Valley Clash) ने मोदी सरकार को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं है - क्योंकि सिर्फ विपक्ष ही नहीं कई ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब पूरा देश मांगने वाला है.
ये तो बर्बरता की इंतेहा है
बिहार की रैली में अमित शाह ने मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से की जिसकी एक अपील पर पूरा देश एकजुट हो जाता है - चाहे कोरोना से लड़ने का संकल्प हो, जनता कर्फ्यू का पालन हो, दीया जलाना हो या कोरोना योद्धाओं का सम्मान करना हो!
फिर अमित शाह ने प्रधानमंत्री मोदी और सरकार की उपलब्धियां बतानी शुरू की - एक समय था जब कोई भी हमारी सीमाओं के अंदर घुसा चला आता और हमारे सैनिकों का सिर काट कर लेकर चला जाता रहा और दिल्ली दरबार पर इसका कोई असर नहीं होता. हमारे समय में उरी और पुलवामा हुआ - ये मोदी और बीजेपी की सरकार है जिसने सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक किया.
बेशक मोदी सरकार ने उड़ी और पुलवामा के दोषियों के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक से बदला लिया है, लेकिन अचानक से हफ्ते भर में ही लद्दाख में मामला इस हद तक पहुंच जाएगा, शायद ही सोचा होगा. वैसे सच तो ये है कि चीन के साथ लगी सीमा पर जगह जगह महीने भर से दोनों तरफ के सैनिकों में झड़पें हुआ करती रहीं - लेकिन ये रूप ले लेगा कोई नहीं कह सकता था.
लद्दाख की गलवान घाटी में एक कर्नल सहित 20 सैनिकों की शहादत के बाद से देश भर में लोग जगह जगह चीन के खिलाफ प्रदर्शन और अपने अपने तरीके से सामानों का बहिष्कार कर रहे हैं - और इसी दौरान सोनिया गांधी, राहुल गांधी और रणदीप सिंह सुरजेवाला जैसे कांग्रेस नेता सरकार से लद्दाख की घटना के डिटेल मांग रहे हैं.
राजनाथ सिंह के बयान में चीन का नाम लेने को लेकर तो नहीं, लेकिन राहुल गांधी के सीमा पर निहत्थे सैनिकों को भेजे जाने को लेकर विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ट्विटर पर राहुल गांधी के सवाल का जवाब जरूर दिया है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार से पूछा था कि सैनिकों को बगैर हथियार के चीनी फौज के सामने कैसे भेजा गया था?
विदेश मंत्री एस. जय शंकर ने सरकार की तरफ से जबाव दिया है कि गलवान घाटी में भारत-चीन सीमा पर तैनात भारतीय जवानों के पास हथियार तो थे, लेकिन दोनों देशों के बीच हुए समझौतों के चलते सैनिकों ने हथियार का इस्तेमाल नहीं किया.
विदेश मंत्री ने राहुल गांधी के सवाल का तो जवाव दे दिया है, लेकिन सोशल मीडिया पर एक तस्वीर आने के बाद एक बड़ा सवाल पूरे देश के सामने खड़ा हो गया है. ये तस्वीर उस रॉड की बतायी जा रही है जिससे चीनी फौजियों ने भारतीय सैनिकों पर हमला किया था - चीनी सैनिकों के हमले में इस्तेमाल इस रॉड में हर तरफ नुकीली कीलें लगी हुई हैं.
ये तस्वीर डिफेंस जर्नलिस्ट अजय शुक्ला ने ट्वीट किया है - और बीबीसी हिंदी ने भी बताया है ये तस्वीर भारत-चीन सीमा पर मौजूद भारतीय सेना के एक सीनियर अधिकारी ने उसे भेजी है और बताया है कि इस हथियार का इस्तेमाल चीन के सैनिकों ने किया है.
ये तस्वीर बताती है कि चीन ने भारत के खिलाफ कैसी तैयारी कर रखी थी. ये तो बर्बरता की सारे हदें पार करने वाली करतूत है. राहुल गांधी क्या अब तो पूरा देश जानना चाहेगा कि हमारे सैनिकों को समझौते के बारे में क्या ये समझाया गया था कि जान भले दे देना लेकिन हथियार मत उठाना? जब देश का कानून हर नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार देता है देश के दुश्मन से लड़ते वक्त ये अधिकार हमारे सैनिकों के पास क्यों नहीं है?
क्या आत्मरक्षा में भी हथियार नहीं चलाने थे?
कुछ सवाल हैं - जो काफी परेशान करने वाले हैं. देश का कानून हर नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार देता है - और अपनी आत्मरक्षा के लिए उसके किसी भी हद तक जाने की छूट भी मिलती है. बशर्ते, अदालत में भी ये बात साबित हो कि कानून हाथ में लेने का मकसद आत्मरक्षा ही रहा.
विदेश मंत्री के ट्वीट से ये तो समझ में आ गया कि सीमा पर तैनात जवान हथियार लेकर ही चलते हैं. जब वो पोस्ट छोड़ रहे होते हैं तो भी उनके पास हथियार होते हैं. 15 जून को भी गलवान में तैनात जवानों के पास हथियार थे - लेकिन 1996 और 2005 के भारत-चीन समझौते के कारण झड़पों में भी जवान हथियार का इस्तेमाल नहीं करते.
सवाल ये है कि आखिर ऐसा समझौता कैसे हो सकता है कि जान पर बन आये तो भी हथियार नहीं उठाना है?
सामरिक मामलों के एक्सपर्ट ब्रह्मा चेलानी ने ट्विटर पर लिखा है - '1993 से अब तक चीन के साथ भारत ने सीमा को लेकर 5 समझौते किये और हर बार बड़े ही धूमधाम से हस्ताक्षर हुए, लेकिन कोई भी समझौता चीन का अतिक्रमण रोकने में मददगार साबित नहीं हुआ.'
सवाल ये है कि अगर चीन को भारत के साथ समझौतों की परवाह नहीं है, तो हमारे जवानों के हाथ किस वजह से हथियार उठाने से बंधे हुए थे?
खबरों से मालूम होता है कि भारतीय जवानों के मुकाबले पांच गुना चीनी सैनिक मौके पर आ डटे थे. प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्रियों की मीटिंग में कहा कि हमारे जवान मारते मारते मरे हैं - लेकिन अगर हमारे जवानों ने हथियार का इस्तेमाल किया होता तो भी क्या यही हाल रहता? जो जवान चीनी सैनिकों से भिड़े थे वे वहां के रग रग से वाकिफ थे. जंग के हिसाब से भी बेहतरीन प्रशिक्षण हासिल किये हुए थे, फिर भी हथियार न उठाने की ऐसी कौन सी मजबूरी थी और वे क्यों मजबूर थे?
ये सारे सवाल विदेश मंत्री के जबाव से ही उपजे हैं - और सरकार को इनके जवाब भी देने ही होंगे.
मोदी सरकार 2.0 ने काफी तेजी से काम किया और पहला साल पूरा होने से पहले ही कई बड़े बड़े चुनावी वादे पूरे कर लिये थे - मसलन, धारा 370 और तीन तलाक. जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूसरी सरकार के साल भर पूरे हुए तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बीजेपी की तरफ से बड़े कार्यक्रम की तैयारी की. कोरोना वायरस के चलते आम दिनों की तरह रैलियां तो संभव नहीं थीं, लिहाजा वर्चुअल रैली का फैसला हुआ.
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक साल ऐसे वक्त पूरा हुआ कि बिहार चुनाव की तारीख भी नजदीक दिखायी देने लगी. बीजेपी की तरफ से पहली डिजिटल रैली को अमित शाह ने संबोधित किया और रैली को गैर-चुनावी बताते हुए नीतीश कुमार के नेतृत्व में दो तिहाई बहुमत से फिर से सरकार बना लेने का दावा भी कर डाला.
अमित शाह ने 2019 के आम चुनाव में जो वादे किये थे वे तो पूरे हो गये, लेकिन बिहार की रैली में जो दावे किये वे चुनौती बन कर फौरन ही सामने खड़े हो गये हैं. विपक्ष हमलावर है. गलवान घाटी में चीनी सैनिकों की करतूत से पूरा देश गुस्से में है और बड़ी उम्मीद के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ देख रहा है. चीन के साथ सीमा विवाद महज एक सामरिक चुनौती भर नहीं रह गया है बल्कि अब ये मोदी सरकार के लिए अग्नि परीक्षा का रूप अख्तियार कर चुका है.
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