कांग्रेस के भविष्य को लेकर जो ताजा फैसला हुआ है, वो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) का ही है. पूरी तरह सोनिया गांधी का, बिलकुल वैसे ही जैसे वो, बकौल सोनिया गांधी, किसी 'पूर्णकालिक' अध्यक्ष के तौर पर काम कर रही हैं. जैसा सोनिया गांधी ने CWC के सदस्यों को मीटिंग बुलाकर बताया था, 'मैं ही हूं अध्यक्ष'. ये भी समझा जा सकता है कि सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाने वाले सदस्यों के मन में ये सुन कर क्या चल रहा होगा.
देखा जाये तो सोनिया गांधी पूरी ताकत से सारी चीजों को दुरूस्त करने की कोशिश कर रही थीं. कदम कदम पर तत्परता भी नजर आ रही थी, भले ही तरीका पुराना हो. वही खांटी कमेटी वाला. कमेटी की सुनो, बाकी किसी की नहीं.
ये जरूर सुनने में आ रहा था कि अंतिम फैसला वो राहुल गांधी से बात करने के बाद ही करने वाली थीं, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे प्रियंका गांधी को ज्यादा अहमियत मिल रही है. प्रशांत किशोर पर फीडबैक के लिए जो कमेटी बनी थी उसके सदस्यों के नाम देखकर तो ऐसा ही लगा था. कमेटी में प्रियंका गांधी वाड्रा थीं, लेकिन राहुल गांधी नहीं थे.
कुछ तो फर्क रहा. सोच समझ कर ही फर्क किया गया होगा. हो सकता है राहुल गांधी को सोनिया गांधी ने अपनी बराबरी का समझ कर कमेटी में नहीं रखा होगा. जैसे अध्यक्ष होने के नाते सोनिया कमेटी में नहीं थी, अध्यक्ष जैसी भूमिका निभा रहे राहुल गांधी के होने का भी कोई मतलब नहीं रहा होगा.
बहरहाल, कांग्रेस और प्रशांत किशोर, दोनों तरफ से आधिकारिक तौर पर बता दिया गया है कि उनके रास्ते अलग अलग हो चुके हैं, मीडिया में ऐसी इनसाइड स्टोरी की भरमार है. कुछ चीजें तो अलग अलग हैं, लेकिन एक दो चीज कॉमन भी नजर आती है.
दिक्कत प्रशांत किशोर से रही या प्रियंका गांधी वाड्रा से? कांग्रेस और प्रशांत किशोर ने जो कुछ...
कांग्रेस के भविष्य को लेकर जो ताजा फैसला हुआ है, वो सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) का ही है. पूरी तरह सोनिया गांधी का, बिलकुल वैसे ही जैसे वो, बकौल सोनिया गांधी, किसी 'पूर्णकालिक' अध्यक्ष के तौर पर काम कर रही हैं. जैसा सोनिया गांधी ने CWC के सदस्यों को मीटिंग बुलाकर बताया था, 'मैं ही हूं अध्यक्ष'. ये भी समझा जा सकता है कि सोनिया गांधी को कांग्रेस का अंतरिम अध्यक्ष बनाने वाले सदस्यों के मन में ये सुन कर क्या चल रहा होगा.
देखा जाये तो सोनिया गांधी पूरी ताकत से सारी चीजों को दुरूस्त करने की कोशिश कर रही थीं. कदम कदम पर तत्परता भी नजर आ रही थी, भले ही तरीका पुराना हो. वही खांटी कमेटी वाला. कमेटी की सुनो, बाकी किसी की नहीं.
ये जरूर सुनने में आ रहा था कि अंतिम फैसला वो राहुल गांधी से बात करने के बाद ही करने वाली थीं, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे प्रियंका गांधी को ज्यादा अहमियत मिल रही है. प्रशांत किशोर पर फीडबैक के लिए जो कमेटी बनी थी उसके सदस्यों के नाम देखकर तो ऐसा ही लगा था. कमेटी में प्रियंका गांधी वाड्रा थीं, लेकिन राहुल गांधी नहीं थे.
कुछ तो फर्क रहा. सोच समझ कर ही फर्क किया गया होगा. हो सकता है राहुल गांधी को सोनिया गांधी ने अपनी बराबरी का समझ कर कमेटी में नहीं रखा होगा. जैसे अध्यक्ष होने के नाते सोनिया कमेटी में नहीं थी, अध्यक्ष जैसी भूमिका निभा रहे राहुल गांधी के होने का भी कोई मतलब नहीं रहा होगा.
बहरहाल, कांग्रेस और प्रशांत किशोर, दोनों तरफ से आधिकारिक तौर पर बता दिया गया है कि उनके रास्ते अलग अलग हो चुके हैं, मीडिया में ऐसी इनसाइड स्टोरी की भरमार है. कुछ चीजें तो अलग अलग हैं, लेकिन एक दो चीज कॉमन भी नजर आती है.
दिक्कत प्रशांत किशोर से रही या प्रियंका गांधी वाड्रा से? कांग्रेस और प्रशांत किशोर ने जो कुछ ट्विटर पर बताया है, वो तो एक तरह की आपसी सहमति का नतीजा भी लगता है - ताकि भविष्य में, या कम से कम निकट भविष्य में, एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने से दोनों पक्ष परहेज करें. हालांकि, दोनों तरफ के बयानों में ज्यादा तल्ख लहजा प्रशांत के ट्वीट का ही है. कांग्रेस की तरफ से तो उनके सुझावों की तारीफ के साथ आभार ही जताने जैसा लगता है.
अब तक तो ऐसा ही लगा है कि कांग्रेस अध्यक्ष की सबसे लंबी पारी संभालने वाली सोनिया गांधी ने यूपीए बना कर 10 साल केंद्र में सरकार चलायी, जबकि राहुल गांधी थोड़े ही दिनों में भाग खड़े हुए. 2019 के बाद से कांग्रेस की लगातार हार का ठीकरा भी राहुल गांधी के सिर पर ही फोड़ा जा रहा है.
लेकिन क्या राहुल गांधी ही कांग्रेस की मौजूदा हालत के लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं? कांग्रेस और प्रशांत किशोर साथ काम करने के लिए किन परिस्थितियों में राजी नहीं हुए, अलग बात है - लेकिन ये तो हर कोई मान रहा है कि फायदे का एक सौदा कांग्रेस ने कुछ बातों के लिए गवां दिया है.
क्योंकि ये फैसला सोनिया गांधी का है, इसलिए राहुल गांधी की तो कोई जिम्मेदारी बनती भी नहीं. भले ही फैसला सोनिया गांधी ने सलाहकारों के सुझावों के चलते लिया है, लेकिन जिम्मेदारी तो फाइनल कॉल लेने वाली की ही बनती है.
अब तो राहुल गांधी पूरी तरह बेनिफिट ऑफ डाउट के हकदार हो गये हैं. मान लेते हैं कि सलाहकारों का अपना स्वार्थ रहा होगा, लेकिन सोनिया गांधी को तो कांग्रेस के भले के बारे में सोचना चाहिये था - बताते हैं कि प्रशांत किशोर का प्रस्ताव प्रियंका गांधी वाड्रा को पसंद था, लेकिन बहुमत ने खारिज कर दिया.
बात जो बनते बनते रह गयी!
जब रिश्ता पक्का समझा जाने लगा, तभी ब्रेक अप हो गया. कांग्रेस में एक बड़ा तबका रिश्ते के पक्ष में रहा, जबकि कुछ लोग नहीं चाहते थे. जाहिर है प्रशांत किशोर को पार्टी में वे लोग ही नहीं आने देना चाहते होंगे, जिनको डर होगा कि ऐसा हुआ तो उनकी दुकान बंद हो जाएगी.
पिछली बार प्रशांत किशोर का विरोध करने वालों में G-23 नेताओं का नाम लिया जा रहा था, लेकिन इस बार कुछ मिले जुले प्रयास जैसा लगता है. जिन लोगों को प्रशांत किशोर नयी मुसीबत लग रहे थे उनमें सोनिया गांधी के कुछ करीबी तो होंगे ही, राहुल गांधी की टीम के भी सदस्य भी लगते हैं - क्योंकि बड़ी तलवार उन पर ही लटकती लग रही थी.
हर ट्वीट कुछ कहता है! प्रशांत किशोर को लेकर राजस्थान के एक मंत्री के ट्वीट के चलते अशोक गहलोत की भी भूमिका समझने की कोशिश हो रही है. सुभाष गर्ग, राजस्थान सरकार में तकनीकी शिक्षा मंत्री हैं और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेहद करीबी माने जाते हैं.
सुभाष गर्ग ने अपने ट्वीट में किसी का भी नाम नहीं लिया है, लेकिन ट्विटर पर अपनी राय बगैर अशोक गहलोत की मंजूरी के जाहिर किये होंगे ऐसा भी नहीं लगता. खास बात ये है कि सुभाष गर्ग कांग्रेस नहीं बल्कि जयंत चौधरी की पार्टी आरएलडी से आते हैं - तो क्या अशोक गहलोत के मन की बात एक गैर कांग्रेसी की तरफ से कहलवायी गयी है?
सुभाष गर्ग ने ये ट्वीट 26 अप्रैल को ही पोस्ट किया है, जिस दिन कांग्रेस और प्रशांत किशोर दोनों तरफ से एक दूसरे के साथ काम न करने की आधिकारिक जानकारी दी गयी है. इन सभी ट्वीट की टाइमिंग भी काफी दिलचस्प लगती है - और फिर नवजोत सिद्धू का आखिरी ट्वीट भी!
ये सभी ट्वीट 26 अप्रैल के ही हैं. टाइमिंग की क्रोनोलॉजी इसे दिलचस्प तो बनाती ही है, रहस्यमय भी बना देती है. सबसे पहले सुभाष गर्ग सुबह 8 बजे बगैर नाम लिये ट्वीट करते हैं और गुमनाम किरदार प्रशांत किशोर ही हैं. फिर शाम को 3.41 बजे कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का ट्वीट आता है, जिसमें प्रशांत किशोर का नाम लेकर उनते इनकार की जानकारी दी जाती है और उनके सुझावों की तारीफ भी होती है.
करीब आधे घंटे बाद चार बज कर पांच मिनट पर प्रशांत किशोर कांग्रेस न ज्वाइन करने पर अपना पक्ष रखते हैं और तंज भरे लहजे में ये भी बताते हैं कि कांग्रेस को एक सही नेतृत्व की सख्त जरूरत है - और करीब दो घंटे बाद पंजाब कांग्रेस के नेता नवजोत सिंह सिद्धू का ट्वीट आता है, 6.06 PM पर - और वो बड़े ही मस्त अंदाज में मुलाकात की बात और जैसे खुशी का इजहार करते लगते हैं.
क्या प्रशांत किशोर, कांग्रेस के साथ डील फाइनल न हो पाने के बाद पार्टी कर रहे थे? ऐसा क्यों लगता है जैसे नवजोत सिंह सिद्धू को कांग्रेस के साथ प्रशांत किशोर की डील पक्की न होने से खुशी हुई हो - सवाल ये है कि कांग्रेस में ऐसे कितने लोग खुशी बना रहे थे?
क्या ये डील पक्की होनी ही नहीं थी?
ऐसे दौर में जबकि गांधी परिवार को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से जबरदस्त चुनौती मिल रही हो, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पंजाब की जीत के साथ ही तरक्की की राह पर रफ्तार पकड़ने की कोशिश कर रहे हों - क्या प्रशांत किशोर की पेशेवर मदद न लेना कांग्रेस के लिए बीजेपी को 2024 के लिए दो साल पहले ही वॉकओवर देने जैसा नहीं लगता?
वीटो किसने लगाया - सोनिया ने या राहुल ने? सचिन पायलट को लेकर अशोक गहलोत भले ही कांग्रेस नेतृत्व की भी सुनने को तैयार न लगते हों, लेकिन सोनिया गांधी के दरबार में उनके दबदबे में कोई कमी नहीं लगती. 20 अप्रैल को ही अशोक गहलोत ने प्रशांत किशोर को लेकर कई बातें कही थी. अपनी तरफ से ये भी साफ कर दिया था कि साफ कर दिया कि प्रशांत किशोर को कांग्रेस में उतनी ही अहमियत मिल सकती है जितनी किसी भी पेशेवर रणनीतिकार को मिलती है.
प्रशांत किशोर पर कांग्रेस नेताओं की राय जानने के क्रम में अशोक गहलोत और भूपेश बघेल को भी बुलाया गया था. बातचीत के दौरान ही अशोक गहलोत ने प्रशांत किशोर के मुंह से ही उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जानने की अपने तरीके से कोशिश भी की.
सोनिया गांधी की मौजूदगी में हो रही मीटिंग के दौरान अशोक गहलोत ने प्रशांत किशोर से पूछा था - 'आप पार्टी में कब तक रहेंगे?'
अशोक गहलोत के सवाल पर प्रशांत किशोर की फौरी प्रतिक्रिया रही, 'ये आप पर निर्भर है कि आप मेरी कितनी सुनते हैं!'
बाकियों को तो प्रशांत किशोर की हाजिरजवाबी गजब की लगी होगी, लेकिन सोनिया गांधी को शायद ही अच्छा लगा होगा. अशोक गहलोत की तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा होगा. वो तो बस यही चाहते होंगे कि प्रशांत किशोर ऐसा कुछ बोल दें जो बाद में भी उनकी दलीलों के मजबूत बना सके.
कांग्रेस सूत्रों के हवाले से एनडीटीवी ने बताया है कि सोनिया गांधी ने प्रशांत किशोर पर राय जानने के लिए जो कमेटी बनायी थी, उसकी राय भी वैसी बंटी हुई रही जैसा ऐसे सभी मामलों मे होता है. ऐसा लगता है जैसे सोनिया गांधी ने बहुमत की राय के आधार पर ही फैसला लिया होगा.
सोनिया गांधी ने निश्चित तौर पर इस बात पर भी ध्यान तो दिया ही होगा कि प्रशांत किशोर पर किसने क्या राय दी है. रिपोर्ट के मुताबिक, ऐसे मामलों में सबसे मजबूत राय देने वाला समझे जाने वाले एके एंटनी ने अपनी कोई राय ही नहीं दी - और कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने भी उनको भी फॉलो करने का फैसला किया.
दिग्विजय सिंह, मुकुल वासनिक, रणदीप सुरजेवाला और जयराम रमेश का नाम खुल कर विरोध जताने वाली की सूची में मिला है - जाहिर है सोनिया गांधी ने ये भी सोचा ही होगा कि विरोध के पीछे उनकी क्या मंशा रही होगी.
जिन दो नेताओं को प्रशांत किशोर के प्रस्ताव के पक्ष में बताया जा रहा है, वे हैं - अंबिका सोनी और प्रियंका गांधी वाड्रा. अंबिका सोनी को गांधी परिवार का बेहद करीबी माना जाता है. चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाये जाने से पहले अंबिका सोनी के नाम का ही प्रस्ताव आया था. G-23 के नेताओं की चिट्ठी पर सबसे ज्यादा शोर मचाने वालों में भी अंबिका सोनी सबसे आगे रहीं और बागी नेताओं को कड़ा सबक सिखाने की मांग कर रही थीं.
बड़ी बात ये है कि सोनिया गांधी ने प्रियंका गांधी की राय को भी नामंजूर कर दिया. क्या ऐसा इसलिए हुआ होगा क्योंकि सोनिया गांधी पर अपने सलाहकारों का ज्यादा असर है या फिर राहुल गांधी की राय के चलते प्रियंका गांधी की आवाज दब कर रह गयी होगी?
प्रशांत किशोर किसके मददगार हैं? प्रशांत किशोर के कामकाज का तरीका पेशेवर माना जाता है, लेकिन उनके विरोधी एक कारोबारी की तरह ट्रीट करते रहे हैं. प्रशांत किशोर के अब तक के तीन कैंपेन बेहद सफल लगते हैं - 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का चुनाव कैंपेन, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी और उनके भरोसेमंद साथी अमित शाह के खिलाफ बिहार में नीतीश कुमार का इलेक्शन कैंपेन - और 2021 में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की चुनावी मुहिम. नीतीश कुमार और ममता बनर्जी का कैंपेन पूरी तरह बीजेपी के खिलाफ रहा और नतीजे भी वैसे ही रहे.
फिर भी रह रह कर लोग शक भी जताते हैं कि प्रशांत किशोर के ये पेशेवर प्रदर्शन हाथी के दांत जैसे भी हो सकते हैं. ऐसा ही एक पोल फिलहाल दलित एक्टिविस्ट दिलीप मंडल भी ट्विटर पर करा रहे हैं - "क्या आपको भी लगता है कि @PrashantKishor BJP/RSS का एजेंट है?"
दिलीप मंडल ने कई ट्वीट भी किये हैं - और हैरानी जता रहे हैं कि अगर प्रशांत किशोर वास्तव में बीजेपी के विरोध में हैं तो उनके खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियां वैसा व्यवहार क्यों नहीं करतीं जैसे बाकी बीजेपी विरोधी नेता शिकार होते रहते हैं?
अपनी फेसबुक पोस्ट में भी दिलीप मंडल सवाल उठाते हैं, "जब तक प्रशांत किशोर की करोड़ों-अरबों रुपये की इलेक्शन मैनेजमेंट कंपनी I-PAC पर सीबीआई, ED, IT का छापा नहीं पड़ता, तब तक मैं ये नहीं मान सकता कि ये आदमी बीजेपी को कोई नुकसान पहुंचा रहा है."
दिलीप मंडल ने आगे लिखते हैं, "नेताओं का पैसा इस तक पहुच रहा है... और बीजेपी इसको दबोच भी नहीं रही है... अगर ये बीजेपी को नुकसान पहुंचा रहा होता तो बीजेपी अब तक इसकी गर्दन मरोड़ चुकी होती... राजनीतिक पैसा लेने वालों की गर्दन मरोड़ना कौन सा मुश्किल काम है? ...ऐसा होता है क्या?"
कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं. लोग मिलते हैं. मिल कर आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं. एक बार फेल होते हैं तो भी बाद में नये सिरे से कोशिश करते हैं. अब तक प्रशांत किशोर और गांधी परिवार भी ऐसा ही करते लगते हैं. एक बार फिर रिश्ता पक्का होते होते ब्रेक-अप हो गया है, लेकिन ऐसा भी नहीं लगता कि फिर ऐसी कोशिश नहीं होगी. लेकिन अभी ये नहीं मालूम कि ये 2024 से पहले होगी या बाद में.
कई सवाल हैं. क्या वास्तव में अशोक गहलोत और उनकी तरह असुरक्षित महसूस करने वाले कांग्रेस नेताओं ने कांग्रेस और प्रशांत किशोर का मेल नहीं होने दिया? क्या प्रशांत किशोर के प्रस्ताव में कोई ऐसा फैक्टर रहा जो सोनिया गांधी को परेशान कर रहा था और बहाने से मामला टाल दिया गया - या दोनों मिले ही थे बिछड़ जाने को?
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