सुबह से देख रहा हूं कि सोशल मीडिया की दीवारें 'प्रताप' के सहारे ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने वाले हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी की पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करने वाली तस्वीरों से पटी पड़ी हैं. दरअसल, 'प्रताप' अखबार के जरिये सैकड़ों-हजारों लोगों को आजादी के आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी की 25 मार्च यानी आज पुण्यतिथि है. दरअसल, आज ही के दिन 25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक दंगे की एक घटना हुई थी. इन सांप्रदायिक दंगों में पत्रकारिता के मापदंड स्थापित करने वाले गांधीवादी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गई थी. विद्यार्थी जी दंगाईयों की 'भीड़' को समझाने अकेले ही आगे बढ़ गए थे. लेकिन, अचानक ही आई एक भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी की तेज धार वाले हथियारों से नृशंस हत्या कर दी.
बताया जाता है कि दो-तीन दिन बाद उनकी लाश एक कूड़े के ढेर में पड़ी मिली. शव की गत कुछ इस कदर बिगड़ी थी कि विद्यार्थी जी के उनके खादी के कपड़ों, हाथ में गुदे टैटू और जेब में उनकी लिखी 3 चिट्ठियों से पहचाना गया था. सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसते कानपुर को बचाने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गए. लेकिन, ये रहस्य आज भी कायम है कि 1931 में गणेश शंकर विद्यार्थी किस 'सांप्रदायिकता' की भेंट चढ़े थे? गणेश शंकर विद्यार्थी से जुड़े तमाम लेखों और खबरों में खोजने के बाद भी यही पाया कि विद्यार्थी जी की हत्या एक 'उन्मादी भीड़' ने कर दी थी. जबकि, गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के चश्मदीद गवाह रहे गणपत सिंह ने इस घटना में मुसलमानों की एक उग्र भीड़ की बात कही थी. गणेश शंकर विद्यार्थी पर लिखी गई कुछ ही किताबों में इसका जिक्र मिलता है. बाकी हर जगह उन्मादी भीड़ से ही काम चला लिया जाता है.
सुबह से देख रहा हूं कि सोशल मीडिया की दीवारें 'प्रताप' के सहारे ब्रिटिश सरकार को चुनौती देने वाले हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा गणेश शंकर विद्यार्थी की पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करने वाली तस्वीरों से पटी पड़ी हैं. दरअसल, 'प्रताप' अखबार के जरिये सैकड़ों-हजारों लोगों को आजादी के आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी की 25 मार्च यानी आज पुण्यतिथि है. दरअसल, आज ही के दिन 25 मार्च 1931 को कानपुर में सांप्रदायिक दंगे की एक घटना हुई थी. इन सांप्रदायिक दंगों में पत्रकारिता के मापदंड स्थापित करने वाले गांधीवादी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी गई थी. विद्यार्थी जी दंगाईयों की 'भीड़' को समझाने अकेले ही आगे बढ़ गए थे. लेकिन, अचानक ही आई एक भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी की तेज धार वाले हथियारों से नृशंस हत्या कर दी.
बताया जाता है कि दो-तीन दिन बाद उनकी लाश एक कूड़े के ढेर में पड़ी मिली. शव की गत कुछ इस कदर बिगड़ी थी कि विद्यार्थी जी के उनके खादी के कपड़ों, हाथ में गुदे टैटू और जेब में उनकी लिखी 3 चिट्ठियों से पहचाना गया था. सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसते कानपुर को बचाने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गए. लेकिन, ये रहस्य आज भी कायम है कि 1931 में गणेश शंकर विद्यार्थी किस 'सांप्रदायिकता' की भेंट चढ़े थे? गणेश शंकर विद्यार्थी से जुड़े तमाम लेखों और खबरों में खोजने के बाद भी यही पाया कि विद्यार्थी जी की हत्या एक 'उन्मादी भीड़' ने कर दी थी. जबकि, गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या के चश्मदीद गवाह रहे गणपत सिंह ने इस घटना में मुसलमानों की एक उग्र भीड़ की बात कही थी. गणेश शंकर विद्यार्थी पर लिखी गई कुछ ही किताबों में इसका जिक्र मिलता है. बाकी हर जगह उन्मादी भीड़ से ही काम चला लिया जाता है.
जबकि, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कथित बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों ने घटनाओं को चुन-चुनकर सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की हरसंभव कोशिश की है. असहिष्णुता की आड़ लेकर हर छोटी-बड़ी घटनाओं को हिंदुओं से जोड़ा जाने लगा है. हत्या, बलात्कार, आत्महत्या, मॉब लिंचिंग जैसे क्रूर अपराधों को सेलेक्टिव तरीके से उठाते हुए बहुसंख्यक हिंदुओं को दोषी ठहराया जाने लगा है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या से लेकर आज तक जो लोग 'उन्मादी भीड़' कहलाते थे. उसका रूपांतरण चुन-चुनकर धार्मिक रंग देते हुए 'हिंदू कट्टरपंथियों' के तौर पर किया जाने लगा. वहीं, जब इस एकतरफा दोषारोपण के प्रोपेगेंडा के खिलाफ आवाज उठाई जाने लगी, तो इसे हिंदुत्व के उभार के तौर पर पेश कर दिया गया.
हाल ही में रिलीज हुई एक फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' को भी मुस्लिमों के खिलाफ नफरत भड़काने वाली प्रोपेगेंडा फिल्म कहा जा रहा है. और, कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन से जुड़े दर्द को 'झूठ' तक करार दे दिया गया है. तमाम राजनेताओं, अभिनेताओं और कथित बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों को इस देश के उस सामाजिक ताने-बाने की चिंता सताने लगी है. जिसे उन्होंने 2014 के बाद से खुद ही बिगाड़ा है. गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत पर महात्मा गांधी ने कहा था कि 'बलिदान में बहा उनका खून, दो समुदायों के बीच दरार को जोड़ने वाली सीमेंट की तरह काम करेगा. उनकी यह शहादत, पत्थर में भरे गए जहर को धोएगी.' लेकिन, 1931 के बाद से वर्तमान तक हुई घटनाओं से ये दरार भरती नजर नहीं आई. बल्कि, इसे और बढ़ावा दिया गया. हालांकि, 1931 में गणेश शंकर विद्यार्थी किस 'सांप्रदायिकता' की भेंट चढ़े थे, इस पर सवाल पूछना आज भी गलत ही माना जाएगा.
21वीं सदी की युवा पीढ़ी गणेश शंकर विद्यार्थी के बारे में कितना जानती है? इसका अंदाजा कानपुर में फीलखाना क्षेत्र के कमला टावर के पास स्थित तकरीबन जर्जर हो चुकी उस इमारत से लगाया जा सकता है. जहां से कभी चार रुपये महीने के किराये पर प्रताप अखबार निकाला जाता था. अंग्रेजी हुकूमत के हर संभव दमन के बावजूद कानपुर में प्रताप की धार सत्ता के खिलाफ कुंद नहीं हुई थी. लेकिन, प्रताप प्रेस बिल्डिंग के नाम से जानी जाने वाला ये पवित्र स्थान अब पेशाब की गंध और गंदगी से घिरा खंडहर बन चुका है. हालांकि, राज्य की सरकारों ने बहुत पहले ही कानपुर मेडिकल कॉलेज का नाम गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम पर कर दिया था. लेकिन, विद्यार्थी की इस धरोहर को सहेजने के लिए आगे नहीं आ सकी. खैर, गणेश शंकर विद्यार्थी की पुण्यतिथि पर उन्हें मेरा भी शत शत नमन.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.