हैदराबाद (GHMC Election Results) में बीजेपी (BJP) ने वैसा ही प्रदर्शन किया है, जैसा असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की पार्टी ने अभी अभी बिहार में किया है. ये बात तो कॉमन हुई, फर्क ये है कि असदुद्दीन ओवैसी ने जहां पांच सीटें जीती हैं, वो भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों का इलाका नहीं है, जबकि हैदराबाद असदुद्दीन ओवैसी का गढ़ माना जाता है.
GHMC यानी हैदराबाद नगर निगम चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM की जड़ों पर चोट कर रहा है और अस्तित्व के लिए खतरे का संकेत है. केसीआर के नाम से जाने जाने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव को भी खतरे की घंटी सुनायी दे रही होगी. 2019 के आम चुनाव के बाद के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के असफल रहने पर उसके चुनावी एजेंडे पर सवाल उठने लगे थे, लेकिन हैदराबाद नगर निगम में तो बीजेपी का राष्ट्रीय एजेंडा चल गया है- सवाल ये है कि GHMC जैसे लोकल चुनाव में भी बीजेपी का वोकल नेशनल एजेंडा कैसे चला ?
हैदराबाद में लोकल नहीं, वोकल!
कोई भी एक चुनाव अगले किसी भी चुनाव में नतीजे दोहराये जाने की गारंटी नहीं देता, लेकिन जीतने वाले के लिए भविष्य की जीत और हारने वाले के लिए हार की संभावनाएं तो बढ़ा ही देता है. बिहार चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए झारखंड और दिल्ली विधानसभा से अलग रहे - लेकिन ये भी सच है कि बिहार चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए बीजेपी ने बहुत पापड़ भी बेले थे.
हैदराबाद निकाय चुनाव में बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़ कर सारे दिग्गज नेताओं से रोड शो कराने को लेकर सवाल उठाये जा रहे थे, लिहाजा जब अमित शाह खुद हैदराबाद रोड शो के लिए पहुंचे तो उनसे भी पूछ लिया गया.
अमित शाह का तपाक से जवाब मिला, 'किसी चुनाव को हमारी पार्टी छोटा नहीं मानती है... कई लोकल चुनाव, नगर निकायों के चुनावों में पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं ने हिस्सा लिया है... जहां भी जनता हमें मैंडेट देती है... जहां हमारी आइडियोलॉजी का, डेवलेपमेंट...
हैदराबाद (GHMC Election Results) में बीजेपी (BJP) ने वैसा ही प्रदर्शन किया है, जैसा असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की पार्टी ने अभी अभी बिहार में किया है. ये बात तो कॉमन हुई, फर्क ये है कि असदुद्दीन ओवैसी ने जहां पांच सीटें जीती हैं, वो भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों का इलाका नहीं है, जबकि हैदराबाद असदुद्दीन ओवैसी का गढ़ माना जाता है.
GHMC यानी हैदराबाद नगर निगम चुनाव में बीजेपी का प्रदर्शन असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM की जड़ों पर चोट कर रहा है और अस्तित्व के लिए खतरे का संकेत है. केसीआर के नाम से जाने जाने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर यानी के. चंद्रशेखर राव को भी खतरे की घंटी सुनायी दे रही होगी. 2019 के आम चुनाव के बाद के विधानसभा चुनावों में बीजेपी के असफल रहने पर उसके चुनावी एजेंडे पर सवाल उठने लगे थे, लेकिन हैदराबाद नगर निगम में तो बीजेपी का राष्ट्रीय एजेंडा चल गया है- सवाल ये है कि GHMC जैसे लोकल चुनाव में भी बीजेपी का वोकल नेशनल एजेंडा कैसे चला ?
हैदराबाद में लोकल नहीं, वोकल!
कोई भी एक चुनाव अगले किसी भी चुनाव में नतीजे दोहराये जाने की गारंटी नहीं देता, लेकिन जीतने वाले के लिए भविष्य की जीत और हारने वाले के लिए हार की संभावनाएं तो बढ़ा ही देता है. बिहार चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए झारखंड और दिल्ली विधानसभा से अलग रहे - लेकिन ये भी सच है कि बिहार चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए बीजेपी ने बहुत पापड़ भी बेले थे.
हैदराबाद निकाय चुनाव में बीजेपी की तरफ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को छोड़ कर सारे दिग्गज नेताओं से रोड शो कराने को लेकर सवाल उठाये जा रहे थे, लिहाजा जब अमित शाह खुद हैदराबाद रोड शो के लिए पहुंचे तो उनसे भी पूछ लिया गया.
अमित शाह का तपाक से जवाब मिला, 'किसी चुनाव को हमारी पार्टी छोटा नहीं मानती है... कई लोकल चुनाव, नगर निकायों के चुनावों में पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं ने हिस्सा लिया है... जहां भी जनता हमें मैंडेट देती है... जहां हमारी आइडियोलॉजी का, डेवलेपमेंट का, मोदी के विजन का प्रचार करना होता है हम करते हैं.'
लोकल लेवल पर इस तरह राष्ट्रीय पार्टी के चुनाव लड़ने को लेकर अमित शाह ने राजनीतिक विरोधियों को टारगेट करते हुए कहा, 'ये हमारा अधिकार है और हम हैदराबाद के चुनाव को छोटा नहीं मानते हैं - जो लोग इसे गली का चुनाव मानते हैं वे गली साफ करना भूल गये हैं... इसलिए, उनको थोड़ी प्रॉब्लम है. गली साफ कर दी होती तो इनको इतनी बड़ी प्रॉब्लम नहीं होती.'
महाराष्ट्र और हरियाणा में कम विधानसभा सीटें पाने, झारखंड में सत्ता गंवा देने और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के आगे बौने साबित होने के बाद, बीजेपी बिहार को लेकर बहुत दबाव में थी. पांच साल पहले का अनुभव तो और भी डरावना था. दिल्ली के बाद बिहार में भी दिल्ली जैसा ही हाल हुआ था.
कहा जाने लगा था कि आम चुनाव की कौन कहे, बीजेपी विधानसभा चुनाव भी राष्ट्रीय एजेंडे के साथ लड़ती है, जबकि उसके विरोधी राजनीतिक दल लोकल मुद्दे उठाते हैं - और बीजेपी हार जाती है, भले ही वो हार कांग्रेस जैसी न होती हो. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म किया जाना और अपने हिंदुत्व और राष्ट्रवादी मुद्दों के साथ ही आगे बढ़ना - ये सब ही बीजेपी के लिए चुनावी रैलियों के भाषण के मुख्य कंटेंट होते हैं.
हैदराबाद में भी तो बीजेपी ने वही किया - रोहिंग्या मुसलमानों का मुद्दा उठाया और हैदराबाद का नाम बदलने को लेकर बहस होने लगी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो सरल शब्दों में समझा भी आये कि ये बिलकुल वैसे ही हो सकता है जैसे इलाहाबाद अचानक एक दिन प्रयागराज हो गया - ठीक वैसे ही अगर बीजेपी नगर निगम चुनाव जीत जाती है तो हैदराबाद की जगह शहर का नाम भाग्यनगर हो जाएगा.
एक मामूली जीत भी न जाने कितने सवालों का सटीक जवाब होती है. बीजेपी के राष्ट्रीय एजेंडे के साथ लोकल चुनाव भी लड़ जाने की नीति अब तो सफल मानी जानी चाहिये. आखिर दूसरों को सवाल उठाने का क्या हक है जब जनता को बीजेपी का काम करने की स्टाइल और विचारधारा भी अच्छी लगती है. बेशक पंजाब के किसान और और हरियाणा के किसान, केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हों, लेकिन उन 3 कृषि कानूनों की चर्चा तो बिहार चुनाव में भी रही - फिर भी नतीजे बीजेपी के पक्ष में ही आये.
अब हैदराबाद नगर निगम चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दों के साथ उतरी बीजेपी का कहीं नहीं से ओवैसी के गढ़ में उनकी पार्टी को पछाड़ते हुए नंबर दो बन जाना तो यही बता रहा है कि लोगों का संघ और बीजेपी की विचारधारा में भरोसा कम नहीं हुआ है, या फिर तेलंगाना के लोग केसीआर की टीआरएस और ओवैसी से अब ऊबने लगे हैं.
KCR और ओवैसी की चुनौती बढ़ी
बिहार विधानसभा में 5 सीटें जीतने के बाद असदुद्दीन ओवैसी अगर सातवें आसमान तक उछलने लगे थे तो गलत क्या था? जहां 16 फीसदी दलितों की आबादी में 5 फीसदी पासवान लोगों के बूते राजनीति करने वाले चिराग पासवान एक सीट जीत पाते हैं, मायावती की पार्टी बीएसपी भी एक से आगे नहीं बढ़ पाती और उपेंद्र कुशवाहा से लेकर पप्पू यादव तक पुराने दिग्गज धराशायी हो जाते हैं, ओवैसी की जीत बहुत मायने रखती है.
बिहार की कामयाबी के बूते ही ओवैसी पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश सहित दूसरे राज्यों में भी मुस्लिम राजनीति को उभारने की कोशिश में जुट गये थे. अब जब किले पर ही हमला हुआ है और वो भी बीजेपी की तरफ से तो अंदर तक हिल उठना भी स्वाभाविक है. ये भी मान कर चलना होगा कि बीजेपी के इस अटैक से तमतमाये ओवैसी और केसीआर को हाथ मजबूती से मिलाये रखने की कोशिश करनी होगी.
29 नवंबर को हैदराबाद पहुंचे बीजेपी नेता अमित शाह ने भाग्यलक्ष्मी मंदिर जाने के बाद सिकंदराबाद में रोड शो किया था और उसके बाद प्रेस कांफ्रेंस किये तो ओवैसी और के. चंद्रशेखर राव दोनों ही उनके निशाने पर बारी बारी भी और एक साथ भी आये.
बोले, 'चंद्रशेखर राव जी से पूछना चाहता हूं कि आप ओवैसी की पार्टी से समझौता करते हैं, इससे हमें कोई दिक्कत नहीं है. लोकतंत्र में किसी भी पार्टी से समझौता या गठबंधन किया जा सकता है - दिक्कत है कि आपने एक कमरे में ईलू-ईलू करके सीटें बांट लीं.
ओवैसी को रोहिंग्या मुसलमानों के नाम पर निशाना बनाते हुए, अमित शाह ने कहा था- 'जब मैं एक्शन लेता हूं, तो वो संसद में बवाल करते हैं... उनसे कहिये कि मुझे लिखकर दें कि रोहिंग्या और बांग्लादेशियों को निकाला जाना है.'
ग्रेटर हैदराबाद में हिंदू आबादी करीब 65 फीसदी है, जबकि 30 फीसदी मुस्लिम आबादी है - बाकी दूसरे धर्म और समुदाय के लोग हैं. हालांकि, पुराने हैदराबाद के कुछ हिस्सों में मुस्लिम आबादी 50 फीसदी से भी ज्यादा है - यही वजह है कि असदुद्दीन ओवैसी अब तक हमेशा ही फायदे में रहे हैं.
2018 में टीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव ने सत्ता में शानदार वापसी की थी, लेकिन अभी जो हुआ है वो सत्ता विरोधी लहर का ही नतीजा लगता है. साथ ही, ये भी लगता है कि हैदराबाद के लोग ओवैसी से भी निराश होने लगे हैं - और बीजेपी में हैदराबाद के लोगों को एक उम्मीद दिखी है.
अब तो ऐसा लगता है जैसे ओवैसी को तो केसीआर के मदद की जरूरत होगी ही, केसीआर को ओवैसी की ज्यादा जरूरत होने वाली है. ऐसा सिर्फ नगर निगम चुनाव के नतीजे ही संकेत नहीं दे रहे हैं, दुब्बाक उप चुनाव में बीजेपी की जीत पहले से ही सबूत पेश कर रही है.
बीजेपी के लिए भी 2023 में तेलंगाना में सरकार बनाने के हवाई किले बनाना ठीक नहीं होगा क्योंकि ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है. ऐसा प्रयोग ओडिशा में बीजेपी 2017 में कर चुकी है. तब इतने बड़े स्तर पर तो नहीं, लेकिन बीजेपी ने तत्कालीन मुख्यमंत्रियों रमन सिंह और रघुबर दास के अलाव केंद्र से धर्मेंद्र प्रधान को भी तैनात किया था. धर्मेंद्र प्रधान तो ओडिशा से ही आते भी हैं.
2012 में जिला परिषद में बीजेपी के पास सिर्फ 36 सीटें थीं, लेकिन 2017 में बीजेपी ने 853 में से 297 सीटों पर फतह हासिल कर ली. ये बीजेपी की आक्रामक स्टाइल रही कि पांच साल पहले 651 सीटों पर जीत हासिल करने वाली बीजेडी 473 सीटों पर सिमट गयी - नतीजा ये हुआ कि 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी राज्य में नवीन पटनायक की बीजेडी के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गयी.
ओडिशा के हिसाब से देखें तो बीजेपी तेलंगाना में भी फायदे में होगी ही. 2023 में बीजेपी कांग्रेस को पछाड़ कर ओडिशा की तरह दूसरी सबसे बड़ी पार्टी तो बन ही सकती है, भले ही सत्ता हासिल न कर पाये - और जैसे ओडिशा में अपने हिसाब से लोहा गर्म होने का इंतजार कर रही है, तेलंगाना में भी प्रतिक्षा कर सकती है - और ‘पंचायत से पार्लियामेंट तक राज...’ का रास्ता भी तो ऐसे ही होकर गुजरता है. तब बीजेपी के अध्यक्ष रहे अमित शाह ने ये बाद सार्वजनिक तौर पर पहली बार ओडिशा में ही कही थी.
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