जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस (JK Congress) के भीतर से जो आग निकल कर सामने आ गयी है, वो करीब-करीब पंजाब जैसी ही धधक रही है - और वहां भी पहले राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे ही धुएं निकल रहे थे.
अव्वल तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को घाटी में कांग्रेस के भीतर की आग की तपिश पहले ही मालूम पड़ जानी चाहिये थी, लेकिन जाने अनजाने वो तो वैसे ही घी डालते रहे जैसे हरियाणा और मध्य प्रदेश से असम तक व्यवहार करते रहे - और उनके फैसलों के साइड इफेक्ट समय समय पर उभर कर आ जाते रहे.
कांग्रेस के भीतर दिल्ली सहित देश के तमाम हिस्सों में जो असंतोष व्याप्त है, जम्मू-कश्मीर में उसी का विस्फोटक स्वरूप देखने को मिला है - दिल्ली में अगर वो G-23 के रूप में दिखा है तो पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू उस विरोध की आवाज बने हैं. राजस्थान में सचिन पायलट और छत्तीसगढ़ में टीएस सिंहदेव के रूप में.
चूंकि गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) भी पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह बुजुर्ग होने के बावजूद हार मानने को तैयार नहीं हैं - और कांग्रेस के बागी होने के चलते केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के फेवरेट नेता बन सकते हैं, अगर हालात आखिर तक अनुकूल रहे तो वो जम्मू-कश्मीर में भी वैसी ही भूमिका निभा सकते हैं जैसा नॉर्थ-ईस्ट में हिमंता बिस्वा सरमा को रोल मिला हुआ है.
बड़ा सवाल ये है कि ये क्या सिर्फ कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी का नतीजा है या साइडलाइन किये जाने की वजह से गुलाम नबी आजाद की महात्वाकांक्षा बढ़ने लगी है या फिर ये सब कांग्रेस मुक्त भारत मुहिम के जरिये ताक में बैठी बीजेपी की ही परदे के पीछे की किसी करामात का रिजल्ट है?
जम्मू-कश्मीर कांग्रेस में बगावत की नौबत कैसे आयी
सोनिया गांधी को पूर्णकालिक कांग्रेस अध्यक्ष की डिमांड के साथ चिट्ठी लिख कर G-23 के नेता बने गुलाम नबी आजाद ने फरवरी में ही जम्मू-कश्मीर पहुंच कर गांधी ग्लोबल फेमिली के बैनर तले शांति सम्मेलन आयोजित किया गया था - और बगैर किसी का नाम लिये ही गांधी परिवार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंक रहे थे.
गुलाम नबी आजाद के बुलावे पर कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, विवेक तन्खा, राज बब्बर और भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने कांग्रेस के भीतर विरोध के आवाज को बुलंद करने की कोशिश की. मंच से भी किसी भी नेता ने राहुल गांधी या सोनिया गांधी का नाम तो नहीं लिया, लेकिन जो कुछ भी बोला उससे ये समझना मुश्किल नहीं था कि निशाने पर कौन है - नेताओं के बयान बड़े ही तल्ख रहे और ये संदेश देने की कोशिश भी लगी कि असली कांग्रेस वही हैं - और कांग्रेस भी उनसे ही है.
कांग्रेस नेतृत्व को गुलाम नबी आजाद को राज्य सभा न भेजे जाने के फैसले पर नेताओं ने गहरी नाराजगी जतायी और मौके की नजाकत देखते समझते हुए गुलाम नबी आजाद ने ये भी साफ कर दिया कि वो राज्य सभा से रिटायर हुए हैं - लेकिन राजनीति से नहीं और ये कोई पहली बार नहीं हुआ है. ध्यान रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह भी गांधी परिवार को ऐसा ही मैसेज देते रहे हैं कि वो 80 साल के होकर भी 40 साल जैसा ही महसूस करते हैं.
कांग्रेस में G-23 का कश्मीर शक्ति परीक्षण तो विस्फोटक है!
जाहिर है कांग्रेस नेतृत्व की भी इन गतिविधियों पर नजर तो होगी ही, हालांकि अगस्त में जब राहुल गांधी जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गये थे तो गुलाम नबी आजाद को भी साथ देखा गया. तब भी जबकि राहुल गांधी ने गुलाम नबी के विरोधी गुट के गुलाम अहमद मीर के मेहमान बने थे. दरअसल, तब राहुल गांधी गुलाम अहमद मीर के बेटे की शादी में शामिल हुए थे - और अगले ही दिन 10 अगस्त को वहां कांग्रेस कार्यालय का उद्घाटन किया था.
जम्मू-कश्मीर की धरती से राहुल गांधी ने सूबे का पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग तो की ही, खुद कश्मीरी पंडित भी बता डाला था जिस पर काफी चर्चा हुई थी, लेकिन बताते हैं कि स्थिति में ज्यादा बदलाव तब आया जब रजनी पाटिल को कांग्रेस ने राज्य में पार्टी का प्रभारी बना दिया.
रजनी पाटिल ने कामकाज संभालते ही गुलाम नबी आजाद को किनारे लगाना शुरू कर दिया. पार्टी से जुड़े किसी भी मामले में सलाह लेना तो दूर गुलाम नबी को तो जैसे डिस्कनेक्ट किया जाने लगा था. हो सकता है ऐसा गांधी परिवार के इशारे पर हो रहा हो, या फिर ये भी हो सकता है कि ये सब रजनी पाटिल सोनिया गांधी और राहुल गांधी को खुश करने के लिए कर रही हों. वैसे उनसे पहले प्रभारी रहीं अंबिका सोनी भी तो गुलाम नबी की चिट्ठी के बाद दस्तखत करने वाले सारे ही साथियों के खिलाफ एक्शन लेने की मांग करने लगी थीं. खुल कर ये चीज सामने तब आयी जब अक्टूबर में राज्य के दौरे पर गयीं रजनी पाटिल ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मुंह से बात बात पर गुलाम नबी आजाद का नाम सुनने पर फटकार लगाई थी.
जम्मू-कश्मीर कांग्रेस से करीब 20 नेताओं के इस्तीफे के बाद सोनिया गांधी ने पार्टी को संकट से उबारने का जिम्मा अपने हाथ में ले लिया है. कांग्रेस से बगावत कर सामूहिक रूप से इस्तीफा देने वाले नेताओं में चार ऐसे हैं जो पिछली सरकारों में मंत्री रह चुके हैं और तीन विधायक रहे हैं.
सोनिया गांधी की कोशिश गुलाम नबी आजाद के साथ साथ पीसीसी अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर और प्रभारी रजनी पाटिल सहित महत्वपूर्ण नेताओं को समझा-बुझा कर बगावत खत्म करा कर नेताओं को साथ रखने की है. ये सभी नेता गुलाम नबी आजाद के समर्थक बताये जाते हैं और अनदेखी के कारण नाराजगी जाहिर कर चुके हैं. इस्तीफा देने वाले नेताओं की असली नाराजगी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गुलाम अहमद मीर से ही है.
कश्मीर में कांग्रेस के कैप्टन-कांड का नेक्स्ट लेवल है
जम्मू-कश्मीर कांग्रेस में सामूहिक इस्तीफे का दौर ऐसे वक्त देखने को मिला है जब गुलाम नबी आजाद काफी दिनों से राज्य में सक्रिय नजर आ रहे हैं. दीपावली के बाद से तो वो वहीं डटे हुए हैं और जगह जगह घूम रहे हैं. इसी दौरान वो पब्लिक मीटिंग के जरिये लोगों से बातचीत भी कर रहे हैं. गुलाम नबी की सभाओं में जो भीड़ जुट रही है उसे उनके शक्ति प्रदर्शन के तौर पर भी देखा जा रहा है - बड़ी संख्या में लोगों का प्रतिनिधिमंडल भी रोजाना गुलाम नबी आजाद से मिलने के लिए पहुंच रहा है.
गुलाम नबी आजाद की ये सक्रियता तो यही संकेत दे रही है कि जम्मू-कश्मीर में बहुत जल्दी चुनाव कराये जाने की संभावना है. हाल ही में जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गये केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा कि संसद में किये गये वादे पूरे करेंगे - और परिसीमन के बाद चुनाव कराये जाएंगे. फिर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की भी बारी आएगी.
जून, 2021 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दिल्ली में हुई मुलाकात के दौरान भी कश्मीरी नेताओं ऐसे ही संकेत दिये गये थे. हालांकि, गुलाम नबी आजाद सहित सभी नेताओं की मांग रही कि पहले जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा दिया जाये उसके बाद ही परिसीमन और चुनाव कराये जायें.
जम्मू-कश्मीर कांग्रेस में जो ताजा उठापटक हुई है उसके भी रिंग मास्टर गुलाम नबी आजाद ही हैं - और जिस कदर एक्टिव हैं वो पंजाब कैप्टन अमरिंदर सिंह के लेवल से भी चार कदम आगे नजर आ रहे हैं - पंजाब में तो अभी तक ये भी नहीं मालूम कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ कौन कौन कांग्रेस नेता जा सकते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर में तो खुल नेताओं ने रजनी पाटिल और सोनिया गांधी को इस्तीफे भेज दिये हैं.
जो वस्तुस्थिति है उसमें ज्यादातर विकल्प गुलाम नबी आजाद के फेवर में ही दिखायी पड़ रहे हैं. दिल्ली की तरफ से प्रदेश कांग्रेस पर नजर रख रहीं रजनी पाटिल ने तो जैसे कांग्रेस का बेड़ा ही गर्क कर दिया है. दिल्ली में सोनिया गांधी ने जैसा व्यवहार नहीं किया होगा उससे भी बुरा सलूक गुलाम नबी के साथ जम्मू-कश्मीर में हुआ लगता है और वो बैकफायर कर गया है.
ये ठीक है कि गुलाम अहमद मीर को राहुल गांधी पसंद करते हैं, लेकिन राज्य से बाहर तो सब लोग गुलाम नबी आजाद को ही जानते हैं. कहने का मतलब वो गुलाम नबी के मुकाबले के नेता तो हैं नहीं. अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार के बाद देखें तो गुलाम नबी आजाद का ही जम्मू कश्मीर की राजनीति में बड़ा चेहरा नजर आता है.
अब सवाल है कि गुलाम नबी आजाद के आगे का क्या प्लान हो सकता है या उनके सामने कैसे विकल्प बचे हो सकते हैं - और कांग्रेस नेतृत्व के हाथ में कितना कुछ बचा समझें?
1. कांग्रेस सम्मानपूर्वक स्वीकार कर ले: जम्मू-कश्मीर का होने की वजह से दिल्ली में सत्ता धारी बीजेपी नेतृत्व तो लगता है गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस से भी ज्यादा सम्मान देता है - गांधी परिवार को भी संसद के भीतर के वे आंसू और तारीफों के बांधे गये पुल भूले नहीं होंगे.
एक तो जम्मू-कश्मीर में विपक्षी राजनीति के लिए वैसे भी कोई स्कोप फिलहाल नहीं है और गुलाम नबी आजाद को गंवा देने के बाद तो कांग्रेस के हिस्से में बहुत कुछ बचने वाला भी नहीं है. बेहतर तो यही होगा कि कांग्रेस नेतृत्व गुलाब नबी को गंवा देने जैसा दुस्साहस दिखाने की कोशिश न करे.
लेकिन कांग्रेस नेतृत्व की एक मुश्किल ये है कि अगर वो गुलाम नबी आजाद को वैसे ही कांग्रेस की कमान सौंप देता है जैसे 2017 में पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को और 2019 में हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को तो कांग्रेस के पास भी राजनीतिक जमीन बची रहेगी.
2. कैप्टन की तरह आजाद भी पार्टी बना लें: जिस तरीके से गुलाम नबी आजाद के जम्मू-कश्मीर में एक्टिव होने की खबरें आ रही हैं, ये तो साफ है कि मौजूदा हालात में भी वो कैप्टन अमरिंदर सिंह से बेहतर स्थिति में हैं.
अब ये गुलाम नबी आजाद पर ही निर्भर करता है कि वो अपनी नयी कोई पार्टी बनाते हैं या कोई गठबंधन करके छोटे छोटे दलों का मोर्चा खड़ा करते हैं और चुनाव बाद अपनी हैसियत के हिसाब से तात्कालिक राजनीति परिस्थितियों में बारगेन करते हैं.
3. कैप्टन के उलट गुलाम नबी बीजेपी ज्वाइन करें: गुलाम नबी आजाद की भी राष्ट्रवादी छवि कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसी ही है. अगर फारुक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती से तुलना करें तो तस्वीर ज्यादा साफ दिखायी देती है.
अब कैप्टन और बीजेपी नेतृत्व के बीच बात नहीं बन पायी या कैप्टन अमरिंदर का बीजेपी ने ज्वाइन करने का निजी फैसला रहा, लेकिन गुलाम नबी आजाद के सामने परिस्थितियां थोड़ी अलग हैं. देखा जाये तो बीजेपी को भी कश्मीर से गुलाम नबी आजाद जैसे किसी बुलंद आवाज की जरूरत है. ये ठीक है कि जम्मू में बीजेपी का अपना जनाधार है, लेकिन कश्मीर में डीडीसी चुनावों में अच्छे प्रदर्शन के बावजूद ऐसी स्थिति तो नहीं ही है कि अपने कश्मीरी नेताओं के बूते बीजेपी बहुत कुछ कर पाये.
कश्मीर जैसी अति महत्वपूर्ण जगह से बीजेपी को एक ऐसे चेहरे की दरकार है जिसे वो धारा 370 खत्म करने के बाद की बेहतर स्थिति को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रोजेक्ट कर सके - गुलाम नबी आजाद भी अगर राजी हो जायें तो उनके सामने भी हिमंत बिस्वा सरमा बनने का पूरा स्कोप है.
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