महबूबा सरकार से समर्थन लेते वक्त बीजेपी के बयान में तत्व की बात एक ही थी - 'राष्ट्रहित में लिया गया फैसला.' संदेश साफ था. आगे जो भी होने वाला है उस हर हरकत में राष्ट्रहित के कदम, राष्ट्रवाद का संदेश और देशभक्ति कूट कूट कर भरी हुई देखने को मिलेगी.
वास्तव में बीजेपी की ओर से ये बहुत ही ठोस कदम रहा. मास्टर स्ट्रोक कहें तो ज्यादा ठीक होगा. एक तीर से दो निशाने साधने की बात होती है. ये तो लगता है बीजेपी ने एक ही वार में सारे सियासी दलों की दुनिया ही हिला डाली है.
अब तो ऐसा लगता है कि विपक्ष के नेता बीजेपी के इशारों पर ही नाच रहे हैं और वो दूर से बैठ कर तमाशे का मजा लूट रही है. सेना और सुरक्षा बल अपना काम कर रहे हैं. आतंकवादी जहां कहीं भी सिर उठा रहे हैं जांबाज जवान उन पर कहर बन कर टूट पड़ रहे हैं. एनएसजी ने तो बस अभी कश्मीर की धरती पर कदम ही रखे हैं - आगे आगे देखिये होता है क्या?
फर्ज कीजिए आम चुनाव 2019 में नहीं बल्कि उसके बाद होना होता. तो भी क्या बीजेपी सरकार से समर्थन वापस ले चुकी होती? लगता तो नहीं. ऐसा होता तो जिस बिनाह पर बीजेपी ने सपोर्ट वापस लिया है वैसा माहौल तो जुलाई, 2016 से है - जब हिजबुल कमांडर बुरहान वानी एनकाउंटर में मारा गया था. तब भी महबूबा मुफ्ती का जो बयान आया था उसमें बुरहान के प्रति सहानुभूति भरी बू ही आ रही थी.
असल बात तो ये है कि बीजेपी ने पीडीपी के साथ गठबंधन तोड़ कर एनडीए के साथियों को भी एक तरीके से संदेश दिया है - और पीडीपी सहित दूसरे कश्मीरी नेताओं की असलियत सामने लाने की चाल चली है.
बीजेपी तो सिर्फ महबूबा मुफ्ती की राजनीतिक असलियत सामने लाने की कोशिश में रही, ये कांग्रेस वालों ने तो पहले ही लाइन लगा ली - और विवादित बयानों की झड़ी लगा दी है.
जबान क्यों लड़खड़ाने लगी?
बीजेपी के समर्थन वापस लेने पर कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने बड़ा ही तीखा सवाल पूछा था - "क्या पिछले साढ़े तीन साल से वे राष्ट्रहित के खिलाफ काम कर रहे थे जब पीडीपी के साथ सरकार...
महबूबा सरकार से समर्थन लेते वक्त बीजेपी के बयान में तत्व की बात एक ही थी - 'राष्ट्रहित में लिया गया फैसला.' संदेश साफ था. आगे जो भी होने वाला है उस हर हरकत में राष्ट्रहित के कदम, राष्ट्रवाद का संदेश और देशभक्ति कूट कूट कर भरी हुई देखने को मिलेगी.
वास्तव में बीजेपी की ओर से ये बहुत ही ठोस कदम रहा. मास्टर स्ट्रोक कहें तो ज्यादा ठीक होगा. एक तीर से दो निशाने साधने की बात होती है. ये तो लगता है बीजेपी ने एक ही वार में सारे सियासी दलों की दुनिया ही हिला डाली है.
अब तो ऐसा लगता है कि विपक्ष के नेता बीजेपी के इशारों पर ही नाच रहे हैं और वो दूर से बैठ कर तमाशे का मजा लूट रही है. सेना और सुरक्षा बल अपना काम कर रहे हैं. आतंकवादी जहां कहीं भी सिर उठा रहे हैं जांबाज जवान उन पर कहर बन कर टूट पड़ रहे हैं. एनएसजी ने तो बस अभी कश्मीर की धरती पर कदम ही रखे हैं - आगे आगे देखिये होता है क्या?
फर्ज कीजिए आम चुनाव 2019 में नहीं बल्कि उसके बाद होना होता. तो भी क्या बीजेपी सरकार से समर्थन वापस ले चुकी होती? लगता तो नहीं. ऐसा होता तो जिस बिनाह पर बीजेपी ने सपोर्ट वापस लिया है वैसा माहौल तो जुलाई, 2016 से है - जब हिजबुल कमांडर बुरहान वानी एनकाउंटर में मारा गया था. तब भी महबूबा मुफ्ती का जो बयान आया था उसमें बुरहान के प्रति सहानुभूति भरी बू ही आ रही थी.
असल बात तो ये है कि बीजेपी ने पीडीपी के साथ गठबंधन तोड़ कर एनडीए के साथियों को भी एक तरीके से संदेश दिया है - और पीडीपी सहित दूसरे कश्मीरी नेताओं की असलियत सामने लाने की चाल चली है.
बीजेपी तो सिर्फ महबूबा मुफ्ती की राजनीतिक असलियत सामने लाने की कोशिश में रही, ये कांग्रेस वालों ने तो पहले ही लाइन लगा ली - और विवादित बयानों की झड़ी लगा दी है.
जबान क्यों लड़खड़ाने लगी?
बीजेपी के समर्थन वापस लेने पर कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने बड़ा ही तीखा सवाल पूछा था - "क्या पिछले साढ़े तीन साल से वे राष्ट्रहित के खिलाफ काम कर रहे थे जब पीडीपी के साथ सरकार में थे?"
अगस्त, 2016 में गुलाम नबी आजाद ने राज्य सभा में कश्मीर का मुद्दा उठाया था. बड़े ही लच्छेदार और भावपूर्ण भाषण में आजाद ने कहा था, "मुझे मत मजबूर करो ये कहने के लिए कि किसकी वजह से वहां आग लगी है... पर आपका काम आग लगाना रहा है... कश्मीर को फूलों और वादियों के लिए प्यार नहीं करो, वहां बसने वाले लोगों से प्यार करो... अपने मुल्क का ताज जल रहा है पर उसकी गर्मी पीएम मोदी के दिल तक नहीं पहुंचती."
लेकिन अब उन्हीं गुलाम नबी आजाद की जबान लड़खड़ाने लगी है. फिसलने लगी है. जो भाषा बोल रहे हैं बिलकुल वैसी ही जबान दहशतगर्दों की भी होती है. कांग्रेस के ही एक सीनियर नेता हैं सैफुद्दीन सोज जो गुलाम नबी आजाद से भी चार कदम आगे बढ़ कर चीखने लगे हैं. ये तो गजब बोल बोल रहे हैं. पहले भारतीय होंगे जो कारगिल युद्ध के सबसे बड़े कारीकर परवेज मुशर्रफ की 10 साल पुरानी बातों से भी इत्तेफाक जता रहे हैं. सोज ने तो अपने बयान को निजी बताया है, लेकिन गुलाब नबी आजाद को तो कांग्रेस आधिकारिक तौर पर सपोर्ट किया है. जब गुलाम नबी आजाद के 'कत्लेआम' वाले बयान पर बवाल मचा तो रणदीप सुरजेवाला मीडिया के सामने प्रकट हुए और पूछने लगे - जनहित की बात करना देशद्रोह भला कैसे हो सकता है? आखिर कहा तो यही था कि सेना के ऑपरेशन में आतंकवादियों से ज्यादा बेगुनाह मारे जा रहे हैं. जोर देकर पूछते हैं, इसमें गलत क्या है?
गुलाम नबी आजाद की तरह ही जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला की भी जबान चलती रहती है. जब वो श्रीनगर से लोक सभा उपचुनाव लड़ रहे थे तो आतंकवादियों से हक के लिए आगे बढ़ने और खुद उनके पीछे दीवार बन कर खड़े रहने जैसी बातें किया करते थे. बहरहाल, इसका उन्हें फायदा भी मिला. महज पांच फीसदी वोटिंग हुई और वो चुनाव जीत गये. अनंतनाग में तो अब तक वो भी नहीं हो पाया.
बीजेपी के लिए भला इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है कि ये नेता खुद को ही एक्सपोज कर दें. ये तो तय है कि कश्मीरी नेताओं को इस तरह की बयानबाजी से कश्मीर में उन्हें जितना फायदा मिलेगा उससे कहीं ज्यादा बीजेपी को पूरे देश में और खास तौर पर 2019 में मिलेगा. मालूम नहीं ऐसे नेताओं को ये क्यों नहीं समझ में आ रहा कि ऐसा वैसा बोल कर वो बीजेपी की चाल में ही फंसते जा रहे हैं. इनकी हर हरकत वैसी ही हो रही है जैसा बीजेपी चाहती है.
महबूबा भी बैक टू पैवेलियन होने वाली हैं
महबूबा मुफ्ती दफ्तर में काम में व्यस्त रहीं. तभी जम्मू कश्मीर के गवर्नर का संदेश मिला. मालूम हुआ बीजेपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया है.
तब एक सहज और स्वाभाविक सवाल सबके मन में उठा - आखिर बीजेपी के किसी नेता ने महबूबा को इसकी सूचना खुद क्यों नहीं दी? पूछे जाने पर बीजेपी नेता कविंदर गुप्ता ने सफाई दी कि महबूबा को बताया जाता उससे पहले गवर्नर ने उन्हें बता दिया. अच्छी बात है. आधिकारिक सूचना तो गवर्नर को ही दी जानी जरूरी थी.
ये पूरा वाकया इतना तो बता ही रहा है कि ऐन पहले कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था. मालूम हुआ है कि ये सब होने से पहले जम्मू कश्मीर के सियासी वार्ताकार बीजेपी नेता राम माधव ने महबूबा मुफ्ती को कई बार फोन किया था. महबूबा ने राम माधव की कॉल को इग्नोर किया. फिर वो मीडिया के सामने गये और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी.
सरकार गिर जाने के बाद महबूबा मुफ्ती और उनके साथी नये सिरे से तैयारी में जुट गये हैं. पीडीपी नेताओं को उम्मीद है कि गवर्नर रूल में कामकाज तो ठीक से होने से रहा - और ऐसा होने पर जल्द ही उसके फिर से सत्ता में लौटने का रास्ता साफ हो सकेगा.
इकनॉमिक टाइम्स से बातचीत में पीडीपी के एक नेता का कहना था, "हमारी राजनीति अब शुरू हुई है. कश्मीर में ताकत की नीति नहीं चलने वाली बात कह कर महबूबा ने अपनी राजनीति के लिए माहौल बना लिया है. वो अब आजाद हैं."
इसी तरह एक अन्य नेता का कहना रहा, "कश्मीर के लोगों को जल्द ही समझ आ जाएगा कि महबूबा उनके और सेना के बीच में खड़ी थीं."
इससे ये तो साफ हो ही जाता है कि महबूबा और उनके साथियों के इरादे क्या हैं? समझ जाना चाहिये कि बुरहान वानी के मारे जाने का उन्हें कितना अफसोस हुआ होगा. बस मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे होने के चलते महबूबा पहले की तरह आतंकियों के परिवार वालों को रोने के लिए कंधा नहीं दे सकीं. मैसेज तो दे ही दिया था - 'मुझे पता होता तो रोकने की कोशिश करती.'
ये सब जानने के बाद ही समझ आता है कि जम्मू कश्मीर के डीजीपी ने क्यों कहा था कि अब काम करने में आसानी होगी. तकनीकी तौर पर तो वो सीजफायर खत्म होने और सुरक्षा बलों के ऑपरेशन शुरू होने को लेकर बयान दिया था, लेकिन उसी दरम्यान उनके 'मन की बात' भी झलक रही थी. ये सब बीजेपी की कामयाबी नहीं तो क्या है? गुलाम नबी आजाद के सवालों का जवाब तो पीडीपी के नेताओं के पास ही है.
वैसे जवाबी हमले में जम्मू-कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष रविंद्र रैना ने सनसनीखेज दावा तो कर ही दिया है. रैना के मुताबिक, "सैफुद्दीन सोज और कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद के तार लश्कर-ए-तैयबा चीफ हाफिज सईद और जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मौलाना मसूद अजहर से जुड़े हैं."
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