अब तक सवाल यही रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2019 में कौन चैलेंज करेगा? चैलेंज करने वाला कोई नेता होगा या बगैर चेहरे का कोई महागठबंधन या तीसरा मोर्चा नाम का राजनीतिक दलों का समूह? एक ऐसा समूह जो अलग अलग राज्यों सीटों पर तालमेल के साथ चुनाव लड़ने वाली पार्टियों का महागठबंधन.
मोदी को चुनौती देने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी दिनों दिन निखर रहे हैं, लेकिन उनके नेतृत्व पर अभी आम राय अब तक नहीं बन पायी है. डीएमके नेता एमके स्टालिन 2019 के लिए राहुल गांधी के नाम का प्रस्ताव रखते हैं तो अखिलेश यादव से लेकर ममता बनर्जी तक सिरे से खारिज कर देते हैं.
जहां तक राजनीतिक दलों के गठबंधन का सवाल है, एनडीए और यूपीए दोनों ही अपडेट मोड में हैं और जल्द ही इनके नये वर्जन आने वाले हैं. वस्तुस्थिति क्या समझी जाये, तस्वीर साफ तो नहीं है. फिर भी ये समझने की कोशिश जरूर है कि 2019 में मोदी के सपोर्ट में और मुकाबले में सियासी गोलबंदी कैसी हो सकती है?
मजबूरी और समझौतों का खेल है गठबंधन
हाल ही में महाराष्ट्र के एक संस्थान के प्रमुख ने आरएसएस को पत्र लिख कर नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मांग की है. पत्र के जरिये कहा गया है कि अगर बीजेपी 2019 का चुनाव जीतना चाहती है तो नरेंद्र मोदी की जगह नितिन गडकरी को नेतृत्व का मौका दिया जाये. पत्र लिखने वाला नितिन गडकरी का समर्थक भी हो सकता है - और नरेंद्र मोदी का विरोधी भी. ये भी हो सकता है कि पत्र लिखने वाला कोई तटस्थ भाव रखने वाला शख्स हो और बीजेपी की भलाई को देखते हुए अपनी संघ को अपनी राय दी हो. राय देने से भला किसी को कौन रोक सकता है. महाराष्ट्र में बीजेपी की ही सरकार है और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री हैं. अगर बीजेपी सरकार के संस्थान से ऐसी कोई बात उठती है तो जाहिर है सवाल नितिन गडकरी के सामने भी उठेगा ही.
जब नितिन गडकरी से 2019 में बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार को लेकर न्यूज एजेंसी ANI ने सवाल पूछा तो केंद्रीय मंत्री ने सिरे से खारिज कर दिया....
अब तक सवाल यही रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 2019 में कौन चैलेंज करेगा? चैलेंज करने वाला कोई नेता होगा या बगैर चेहरे का कोई महागठबंधन या तीसरा मोर्चा नाम का राजनीतिक दलों का समूह? एक ऐसा समूह जो अलग अलग राज्यों सीटों पर तालमेल के साथ चुनाव लड़ने वाली पार्टियों का महागठबंधन.
मोदी को चुनौती देने वाले नेता के रूप में राहुल गांधी दिनों दिन निखर रहे हैं, लेकिन उनके नेतृत्व पर अभी आम राय अब तक नहीं बन पायी है. डीएमके नेता एमके स्टालिन 2019 के लिए राहुल गांधी के नाम का प्रस्ताव रखते हैं तो अखिलेश यादव से लेकर ममता बनर्जी तक सिरे से खारिज कर देते हैं.
जहां तक राजनीतिक दलों के गठबंधन का सवाल है, एनडीए और यूपीए दोनों ही अपडेट मोड में हैं और जल्द ही इनके नये वर्जन आने वाले हैं. वस्तुस्थिति क्या समझी जाये, तस्वीर साफ तो नहीं है. फिर भी ये समझने की कोशिश जरूर है कि 2019 में मोदी के सपोर्ट में और मुकाबले में सियासी गोलबंदी कैसी हो सकती है?
मजबूरी और समझौतों का खेल है गठबंधन
हाल ही में महाराष्ट्र के एक संस्थान के प्रमुख ने आरएसएस को पत्र लिख कर नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मांग की है. पत्र के जरिये कहा गया है कि अगर बीजेपी 2019 का चुनाव जीतना चाहती है तो नरेंद्र मोदी की जगह नितिन गडकरी को नेतृत्व का मौका दिया जाये. पत्र लिखने वाला नितिन गडकरी का समर्थक भी हो सकता है - और नरेंद्र मोदी का विरोधी भी. ये भी हो सकता है कि पत्र लिखने वाला कोई तटस्थ भाव रखने वाला शख्स हो और बीजेपी की भलाई को देखते हुए अपनी संघ को अपनी राय दी हो. राय देने से भला किसी को कौन रोक सकता है. महाराष्ट्र में बीजेपी की ही सरकार है और देवेंद्र फडणवीस मुख्यमंत्री हैं. अगर बीजेपी सरकार के संस्थान से ऐसी कोई बात उठती है तो जाहिर है सवाल नितिन गडकरी के सामने भी उठेगा ही.
जब नितिन गडकरी से 2019 में बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार को लेकर न्यूज एजेंसी ANI ने सवाल पूछा तो केंद्रीय मंत्री ने सिरे से खारिज कर दिया. नितिन गडकरी बोले, 'इसकी कोई संभावना ही है. मैं जहां हूं, वहां खुश हूं. मुझे पहले गंगा के काम को पूरा करना है. चार धाम और अन्य स्थानों के लिए बेहतर रोड बनाना मेरी प्राथमिकता है... मैं इन कामों को करने में खुश हूं और इन्हें जल्द पूरा करना चाहता हूं.'
गठबंधन की राजनीति पर अपनी राय देते हुए नितिन गडकरी ने कहा कि ये मजबूरियों, समझौतों और सीमाओं का खेल है. नितिन गडकरी ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने उन लोगों को गले मिलने पर मजबूर कर दिया है जो कभी एक दूसरे को देखना तक नहीं चाहते थे.
मोदी के लिए बड़ा चैलेंज तो एनडीए के भीतर ही है
2015 में बीजेपी के बिहार चुनाव हारने के बाद भी नेतृत्व पर सवाल उठे थे. तीन राज्यों में सत्ता गंवाने के बाद नेतृत्व को ऐसे सवालों का सामना तो नहीं करना पड़ा है, लेकिन एनडीए में असर दिखने लगा है. टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू तो पहले ही अलग हो चुके थे, एक अरसे से बीजेपी नेतृत्व पर सवाल उठाते रहे उपेंद्र कुशवाहा भी एनडीए छोड़ कर महागठबंधन में शामिल हो चुके हैं.
उपेंद्र कुशवाहा ने एनडीए को अलविदा कहने के लिए खास मौका चुना. चुनाव नतीजों की पूर्वसंध्या पर ही उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी से दूर हो लिये - अब असर ये हो रहा है कि रामविलास पासवान कुलांचे भरने लगे हैं.
लोक जनशक्ति पार्टी के लिए ज्यादा सीटों की मांग तो पासवान पहले से ही कर रहे थे, अब चिराग पासवान ने भी मोर्चा संभाल लिया है. विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की जीत को लेकर राहुल गांधी की तारीफ कर बीजेपी नेतृत्व को टारगेट करने लगे हैं. कुशवाहा के बाद पासवान पिता-पुत्र की जोड़ी नया दबाव डालने लगी है.
2014 में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मुकाबले बीजेपी ने 40 में से 31 सीटें हासिल की तो उसमें उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा. गठबंधन के कारण बिहार में बीजेपी को अगड़ी जातियों के साथ साथ पिछड़ों और दलितों के भी वोट मिले थे. बीजेपी के अच्छी बात ये है कि उपेंद्र कुशवाहा के जाने से पहले नीतीश कुमार एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं.
ऐसा भी नहीं कि नीतीश कुमार के होने और उपेंद्र कुशवाहा के चले जाने को हिसाब बराबर जैसा समझा जाएगा. दोनों नेताओं की अपनी अपनी खासियत है. नीतीश कुमार का चेहरा बड़ा है तो उपेंद्र कुशवाहा के पास उनका जातीय वोट बैंक है. वैसे भी नीतीश और कुशवाहा का एक खेमे में ज्यादा दिन टिके रहना मुमकिन भी नहीं है.
नीतीश कुमार के साथ साथ महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और पंजाब में बादल परिवार पर बीजेपी की निर्भरता बढ़नी तय है. जहां तक शिवसेना की बात है तो वो लाख शोर मचाये न तो वो एनडीए छोड़ने वाली है - और न ही बीजेपी नेतृत्व उसे गंवाने का रिस्क लेगा. किसानों के मुद्दे पर शिवसेना और बीजेपी में मतभेद जरूर हैं, लेकिन हिंदुत्व की राजनीति दोनों के बीच रिश्ते की मजबूत डोर बन रही है.
बाहरी चैलेंज में बिखराव तो है, पर हमेशा के लिए नहीं
लुढ़कतीं, उठतीं, लड़खड़ातीं और बार बार उभरती चुनौतियां 2019 तक मुश्किलें खड़ी करेंगी ही इसमें कोई शक नहीं है. कांग्रेस की ताजा चुनावी जीत ने विपक्षी खेमे में राहुल गांधी की अहमियत बढ़ा दी है.
वैसे कांग्रेस की ताजा जीत उसकी शर्तों पर गठबंधन खड़े होने की गारंटी भी नहीं है. 2015 में बिहार में जब महागठबंधन बना था तब सिर्फ तीन पार्टियां शामिल थीं - आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस. अब नीतीश कुमार के अलग होने के बावजूद आरजेडी और कांग्रेस के अलावा जीतनराम मांझी का हिंदुस्तान अवाम मोर्चा और उपेंद्र कुशवाहा की आरएसएलपी को मिलाकर चार दल हो गये हैं.
बीएसपी नेता मायावती ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी विरोध के नाम पर कांग्रेस को सपोर्ट जरूर कर रही हैं, लेकिन यूपी में क्या होगा ये नहीं बता रही हैं. अब तक बस इतना ही लगता है कि अखिलेश यादव 2019 में मायावती के साथ मिल कर ही चुनाव लड़ेंगे. ऐसे में अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी के भी इन्हीं दोनों के साथ बने रहने की संभावना है. रहा सवाल कांग्रेस का तो मामला सीटों पर ही अटक रहा है.
अगर मायावती और अखिलेश को लगता है कि अजीत सिंह के साथ मिल कर 2019 में यूपी से ज्यादा लोक सभा सीटें जीत सकते हैं तो वे कांग्रेस को हिस्सेदार क्यों बनायें. मीडिया रिपोर्ट में तो कांग्रेस के लिए सिर्फ अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ने की खबर आ रही है. चुनाव नजदीक आते आते मायावती क्या रुख अपनाएंगी, कहना मुश्किल है.
यूपी और बिहार के साथ साथ दिल्ली में भी नये समीकरण बनने की संभावना जतायी जा रही है. फिलहाल दिल्ली की सभी सात सीटें बीजेपी के पास हैं. विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी से हार का बदला बीजेपी राजौरी गार्डन उपचुनाव और एमसीडी चुनाव जीत कर ले ही चुकी है - लेकिन यही बात कांग्रेस और आप को करीब भी ला रही है.
जंतर मंतर पर किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल को मंच शेयर करते भी देखा जा चुका है. अब इससे बड़ी बात क्या होगी कि दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को भी अरविंद केजरीवाल के साथ गठबंधन से कोई ऐतराज नहीं है.
आप के साथ गठबंधन की संभावनाओं पर शीला दीक्षित कहती हैं, ‘मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है. इस पर आलाकमान को निर्णय लेना है. उनका जो भी निर्णय हो, मैं उस पर प्रश्न नहीं उठाऊंगी.’
शीला दीक्षित को ये कहते भी सुना गया है कि अरविंद केजरीवाल के खिलाफ उन्होंने कभी कुछ नहीं कहा. ये अरविंद केजरीवाल ही रहे जो शीला दीक्षित के खिलाफ दिल्ली में चुनाव लड़े और शिकस्त दे डाली. बीजेपी नेता विजय गोयल ने तो इस पर खुला पत्र लिख कर कटाक्ष भी किया है - 'जिस अरविंद केजरीवाल ने आपको महाभ्रष्ट बताया, उसी के साथ आप गठबंधन की बात कर रही हैं.'
दिल्ली में आप और कांग्रेस के बीच चुनावी तालमेल को लेकर पहले भी बातचीत की चर्चा रही है, लेकिन हर बार उसमें अजय माकन बाधा बन कर खड़े हो जाते रहे हैं. हालांकि, सेहत खराब होने की वजह से अजय माकन दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफे की पेशकश भी कर चुके हैं जो अभी तक स्वीकार नहीं किया गया है. इस बीच शीला दीक्षित को फिर से दिल्ली की कमान सौंपने की बात चलने लगी है - और शीला दीक्षित ने भी एक तरीके से हामी भर दी है.
कुल मिला कर देखें तो 2019 में कौन पूरी तरह किस जगह खड़ा होगा अभी मालूम नहीं हो रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को विपक्ष कितनी एकजुटता के साथ चुनौती देगा ये तो बाद की बात है, पहले तो ये भी साफ नहीं है कि एनडीए के बैनर तले कौन कौन चुनाव लड़ने जा रहा है.
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