उत्तर प्रदेश गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर लोकसभा उप-चुनाव के नतीजे भले ही बीजेपी और समर्थकों के लिए चौंकाने वाले रहे हों, लेकिन इन सीटों का इतिहास बताता है कि ये सीटें कभी सत्ता पक्ष के लिए मुफीद नहीं रहीं हैं. गोरखपुर की सीट योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई है तो फूलपुर की सीट केशव प्रसाद मौर्या के उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद. जहां गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ पांच बार सांसद रहे हैं वहीं केशव प्रसाद मौर्या फूलपुर से एक बार सांसद रहे हैं.
ऐसे में यह दोनों सीट बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण थीं और प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थीं. इन दोनों ही सीटों के ऐतिहासिक आंकड़े विपक्ष के पक्ष में ही थे. इसे विपक्ष ने कुशलता से भुनाया भी. साथ ही सपा और बसपा का एक दूसरे को समर्थन यूपी में 1992 वाले सियासी समीकरण को दोहराता दिख रहा है. लगतार जीत से उत्साहित बीजेपी के लिए गोरखपुर और फूलपुर दोनों ही सीटों ने हार का दंश दे ही दिया हैं. इसका कारण रहा इन दोनों सीटों का सत्ता विरोधी होने का इतिहास और ऐन इन उप-चुनावों के पहले बुआ-भतीजे का समर्थन के लिए गठबंधन.
गोरखपुर से सांसद महंत दिग्विजय नाथ के निधन के बाद उपचुनाव में उनके शिष्य और योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ जीते तो लेकिन फिर 1970 के चुनाव में कांग्रेस के नरसिंह नारायण पांडेय से हार गए. इसी तरह जब 1969 में फूलपुर से सांसद विजय लक्ष्मी पंडित के संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रतिनिधि चुनी गईं तो यहां उप चुनाव हुआ और नेहरु सरकार में मंत्री रहे केशव देव मालवीय समाजवादी पुरोधा जनेश्वर मिश्र से चुनाव हार गए. ऐसे में ऐतिहासिक आंकड़े विपक्ष का मनोबल बढ़ाने के लिए काफी...
उत्तर प्रदेश गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर लोकसभा उप-चुनाव के नतीजे भले ही बीजेपी और समर्थकों के लिए चौंकाने वाले रहे हों, लेकिन इन सीटों का इतिहास बताता है कि ये सीटें कभी सत्ता पक्ष के लिए मुफीद नहीं रहीं हैं. गोरखपुर की सीट योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई है तो फूलपुर की सीट केशव प्रसाद मौर्या के उप-मुख्यमंत्री बनने के बाद. जहां गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ पांच बार सांसद रहे हैं वहीं केशव प्रसाद मौर्या फूलपुर से एक बार सांसद रहे हैं.
ऐसे में यह दोनों सीट बीजेपी के लिए महत्वपूर्ण थीं और प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुकी थीं. इन दोनों ही सीटों के ऐतिहासिक आंकड़े विपक्ष के पक्ष में ही थे. इसे विपक्ष ने कुशलता से भुनाया भी. साथ ही सपा और बसपा का एक दूसरे को समर्थन यूपी में 1992 वाले सियासी समीकरण को दोहराता दिख रहा है. लगतार जीत से उत्साहित बीजेपी के लिए गोरखपुर और फूलपुर दोनों ही सीटों ने हार का दंश दे ही दिया हैं. इसका कारण रहा इन दोनों सीटों का सत्ता विरोधी होने का इतिहास और ऐन इन उप-चुनावों के पहले बुआ-भतीजे का समर्थन के लिए गठबंधन.
गोरखपुर से सांसद महंत दिग्विजय नाथ के निधन के बाद उपचुनाव में उनके शिष्य और योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ जीते तो लेकिन फिर 1970 के चुनाव में कांग्रेस के नरसिंह नारायण पांडेय से हार गए. इसी तरह जब 1969 में फूलपुर से सांसद विजय लक्ष्मी पंडित के संयुक्त राष्ट्रसंघ में प्रतिनिधि चुनी गईं तो यहां उप चुनाव हुआ और नेहरु सरकार में मंत्री रहे केशव देव मालवीय समाजवादी पुरोधा जनेश्वर मिश्र से चुनाव हार गए. ऐसे में ऐतिहासिक आंकड़े विपक्ष का मनोबल बढ़ाने के लिए काफी थे और एकजुट होकर संयुक्त रणनीति के तहत मजबूत विकल्प के रूप में उभरा भी.
मजबूत विकल्प के लिए विपक्षी एकता थी जरूरी
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा उप-चुनाव विपक्षी पार्टियों के लिए लोकसभा 2019 चुनावों के पहले एकजुटता दिखाने का अंतिम मौक़ा था. बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनावों के बाद अपना अपराजित रहने का रिकॉर्ड कायम रखा है (दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों को छोड़कर). हाल ही में संपन्न हुए यूपी निकाय चुनाव और गुजरात विधान सभा चुनावों में मिली जीत के बाद गोरखपुर और फूलपुर सीट बचाए रखना बीजेपी के लिए नाक का सवाल बना हुआ था, जिसमें बीजेपी सफल नहीं रही. उधर लगतार बीजेपी की जीत से तितर-बितर हुए विपक्ष के लिए अब यह एक सुनहरा मौक़ा बन गया है कि एकजुट होकर 2019 में बीजेपी को चुनौती दें और यह दोनों सीट छीनकर बीजेपी के अश्वमेध यज्ञ को रोक दें.
बीजेपी कमजोर और बिखरे विपक्ष के चलते ही एक मजबूत विकल्प बनकर उभरी है. ऐसे में विपक्ष के पास लोकसभा चुनावों से पहले यह आखिरी मौक़ा होगा जब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में उसकी दोनों सीटें छीनकर जनता को विपक्ष और विकल्प दोनों की वापसी का सन्देश दे सकें. गुजरात चुनावों में भी आंशिक विपक्षी एकता के चलते ही आंशिक सफलता मिलती दिखाई दी है, जिसका फायदा उठाकर विकल्प के तौर पर वापसी करती दिखी है. इस समय राजनितिक हालात यही इशारा कर रहे हैं कि गैर-बीजेपी दल जितनी जल्दी एक होंगे, बीजेपी को उतनी जल्दी एक मजबूत चुनौती मिलेगी.
हाल ही में सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसी विपक्षी एकता का जिक्र किया था. उन्होंने गुजरात में तीन लड़कों- हार्दिक, जिग्नेश और कल्पेश से यूपी के दो लड़कों-राहुल और अखिलेश की तुलना पर इन पांचों के के होने का इशारा भी किया था. ऐसे में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी हो जाता है कि गैर-बीजेपी दलों का एक मजबूत मोर्चा बने. हालांकि इससे पहले सिकन्दरा उप चुनाव में विपक्ष यह मौक़ा गवां चुका था. ऐसे में लोकसभा उप-चुनावों के बाद भी विपक्षी पार्टियों सपा, बसपा और कांग्रेस को एक मिलीजुली रणनीति बनानी ही होगी.
गोरखपुर में भी बीजेपी नहीं रही अपराजित
जहां तक गोरखपुर सीट का सवाल है, वहां पिछली पांच बार से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही सांसद रहे हैं. वे पहली बार 1998 में वहां से सांसद चुने गए थे और तब से 2014 तक उनको मिलने वाले वोटों के प्रतिशत में लगातार वृद्धि होती रही है. योगी से पहले भी उनके गुरु महंत अवैद्यनाथ 1970, 1989, 1991 और 1996 में यहां से सांसद चुने गए थे. इस बीच उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा था और उनसे पहले महंत दिग्विजयनाथ 1969 में चुनाव जीते थे.
हालांकि महंत दिग्विजयनाथ को इस जीत से पहले 1952, 1957 और 1962 में तीन बार हार का सामना करना पड़ा था राजनितिक पंडित भले इस सीट पर बीजेपी का कब्जा बरकरार रहने की उम्मीद जताते रहे, लेकिन बीजेपी के हाथ से गोरखपुर सीट निकल ही गई. बीजेपी के लिए इन लोकसभा उप चुनावों की हार अब सीधे 2019 के लोकसभा चुनावों पर असर डालेगी. बीजेपी गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ का उत्तराधिकारी देने में असफल रही.
फूलपुर से भी हार चुके हैं बड़े नाम
दूसरी तरफ, फूलपुर सीट भी बीजेपी के लिए चुनौती थी क्योंकि वहां पहली बार पार्टी को जीत केशव प्रसाद मौर्या ने ही दिलाई थी. फूलपुर को देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु का संसदीय क्षेत्र होने के कारण पहले से ही वीआईपी सीट माना जा रहा था. इस सीट पर यदि क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले अतीक अहमद और कपिल मुनि करवरिया को अपवाद मानकर अलग किया जाए तो भारतीय राजनीति के इतिहास के बड़े नाम ही यहां से चुनाव लड़ते रहे हैं.
1952, 1957 और 1962 में यहां से देश जवाहरलाल नेहरु चुने गए. इस सीट पर पंडित नेहरू की बहन विजय लक्ष्मी पंडित, जनेश्वर मिश्र और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह का चुना जाना इस सीट के महत्व को लगातार बढ़ाता चला गया. इस सीट के महत्व को ऐसे भी समझा जा सकता है कि यहां से डॉ. राम मनोहर लोहिया और नेहरू सरकार में मंत्री रहे केशव देव मालवीय से लेकर बसपा संस्थापक कांशीराम जैसे राजनितिक रसूख वाले व्यक्तित्व भी चुनाव नहीं जीत पाए.
यहां से बीजेपी कभी नहीं जीती, लेकिन 2014 की मोदी लहर में केशव प्रसाद मौर्य ने इस सीट पर तीन लाख से अधिक वोटों से जीत हासिल की थी. अब उपचुनावों में बीजेपी की हार ने इस सीट के भी सत्ता विरोधी होने के ऐतिहासिक तथ्य को सही साबित कर दिया है.
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