2014 में केंद्र में सत्ता संभालने के बाद और जम्मू कश्मीर में 2016 में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद भाजपा सरकार ने कश्मीर में कई रणनीतियां अपनाकर एक बार फिर बातचीत का सिलसिला शरू करने का फैसला किया है. केंद्र सरकार की तरफ से बोधपुर IB प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर में बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का जिम्मा दिया गया है. लेकिन सवाल यही है कि क्या इस बातचीत की प्रक्रिया से कुछ हासिल होगा या ये सिर्फ समय लेने की एक और कोशिश है ?
जम्मू कश्मीर में पिछले साल 8 जुलाई को बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद से ही घाटी में हालात बिगड़े हुए हैं. कई महीनों तक कश्मीर में अशांति पर काबू पाने के लिए सरकार ने हर तरह की रणनीति अपनायी. लेकिन कश्मीर में अमन शांति लौट नहीं पायी. अब सरकार इसी साल 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री के भाषण में कहे गए- 'न गोली से न गाली से, कश्मीरियों को गले लगाने से समस्या का समाधान निकलेगा' बात पर अमल करने जा रही है.
लेकिन सवाल यहीं खड़ा हो रहा है. क्या भाजपा कश्मीर पर अपनी पॉलिसी बदल रही है और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राह ही पकड़ रही है. कारगिल युद्ध के बावजूद वाजपेयी ने पकिस्तान के साथ-साथ हुर्रियत नेताओं से भी बातचीत की प्रक्रिया शरू की थी. लेकिन हकीकत यही है कि कश्मीर में अभी बातचीत का माहौल नहीं बना है. अधिकतर हुर्रियत नेताओं के खिलाफ एनआईए की जांच चल रही है. कई हुर्रियत नेता दिल्ली की जेलों में बंद पड़े हैं.
आतंकवाद के खिलाफ सेना और सुरक्षा बलों का ऑपेरशन आल आउट जारी है और पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनाव बना हुआ है. बातचीत का माहौल बनाने के लिए ही सरकार को पहले यह साफ़ करना पड़ेगा की वह बातचीत का माहौल कैसे बनाएगी और बातचीत किससे...
2014 में केंद्र में सत्ता संभालने के बाद और जम्मू कश्मीर में 2016 में पीडीपी के साथ सरकार बनाने के बाद भाजपा सरकार ने कश्मीर में कई रणनीतियां अपनाकर एक बार फिर बातचीत का सिलसिला शरू करने का फैसला किया है. केंद्र सरकार की तरफ से बोधपुर IB प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर में बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का जिम्मा दिया गया है. लेकिन सवाल यही है कि क्या इस बातचीत की प्रक्रिया से कुछ हासिल होगा या ये सिर्फ समय लेने की एक और कोशिश है ?
जम्मू कश्मीर में पिछले साल 8 जुलाई को बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद से ही घाटी में हालात बिगड़े हुए हैं. कई महीनों तक कश्मीर में अशांति पर काबू पाने के लिए सरकार ने हर तरह की रणनीति अपनायी. लेकिन कश्मीर में अमन शांति लौट नहीं पायी. अब सरकार इसी साल 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री के भाषण में कहे गए- 'न गोली से न गाली से, कश्मीरियों को गले लगाने से समस्या का समाधान निकलेगा' बात पर अमल करने जा रही है.
लेकिन सवाल यहीं खड़ा हो रहा है. क्या भाजपा कश्मीर पर अपनी पॉलिसी बदल रही है और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की राह ही पकड़ रही है. कारगिल युद्ध के बावजूद वाजपेयी ने पकिस्तान के साथ-साथ हुर्रियत नेताओं से भी बातचीत की प्रक्रिया शरू की थी. लेकिन हकीकत यही है कि कश्मीर में अभी बातचीत का माहौल नहीं बना है. अधिकतर हुर्रियत नेताओं के खिलाफ एनआईए की जांच चल रही है. कई हुर्रियत नेता दिल्ली की जेलों में बंद पड़े हैं.
आतंकवाद के खिलाफ सेना और सुरक्षा बलों का ऑपेरशन आल आउट जारी है और पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनाव बना हुआ है. बातचीत का माहौल बनाने के लिए ही सरकार को पहले यह साफ़ करना पड़ेगा की वह बातचीत का माहौल कैसे बनाएगी और बातचीत किससे होगी? क्योंकि पिछले तीन साल में कई बार गृह मंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर में कई प्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों से मिल चुके हैं. सभी ने उन्हें हुर्रियत से बातचीत की प्रक्रिया आगे बढ़ाने की ही बात कही थी.
पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने भी कई बार कश्मीर दौरे करने के बाद यही सिफारिश सामने रखी थी. तो क्या फिर सरकार अब हुर्रियत से ही बातचीत का मन बना चुकी है? संभावनाएं तो कुछ ऐसी ही हैं. क्योंकि भारत सरकार की तरफ से नियुक्त बोधपुर IB प्रमुख दिनेश्वर शर्मा ने कश्मीर मामलों को उस दौर में संभाला जब आतंकवाद चरम पर था.
सबसे बड़ी समस्या मई 1995 में सरकार के सामने आयी थी, जब मस्त गुल की अगुवाई में 30 विदेशी आतंकियों ने एक महीने तक चरारेशरीफ की मशहूर दरगाह को अपने कब्ज़े में कर रखा था. उनको वहां से निकालने के लिए तब सेना ने एक बड़ा अभियान चलाया था. यहां तक की ख़बरें आयी थी कि तब सरकार ने मस्त गुल सहित कई विदेशी आतंकियों को दरगाह से निकालने के लिए सुरक्षित रास्ता भी दिया गया था. और दरगाह को आतंकियों के चंगुल से छुड़वाया था.
लेकिन देखना अब यही है कि दिनेश्वर शर्मा घाटी कब पहुंचते हैं और कब अपनी रिपोर्ट सरकार को देते हैं...
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