बीते दिन 5 राज्यों के चुनाव नतीजे आए और आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी की पूरी टीम गुजरात पहुंच गई. जहां अगला चुनाव होना है. शाम को जश्न मनाया, रात को थकान भी न उतरी होगी और निशाने पर अगला चुनाव है. मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती यह केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नहीं सुनी होगी बल्कि कांग्रेसियों ने भी सुना होगा. सुनने और करने में फ़र्क होता है. जिस स्तर पर BJP के आला नेता मेहनत करते हैं कांग्रेस के लिए दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. लोग कह रहे हैं कि जब सुबह BJP की बड़ी टीम अगले किले को फतह करने के लिए उतर चुकी है तो फिर कांग्रेस के नेता क्या कर रहे होंगे. आप सोच रहे होंगे कि सदमा लगा हैं मातम मना रहे होंगे. पर वाकई ऐसा है क्या. अभी मैं समाजशास्त्र से पत्राचार से एमए कर रहा था जिसमें यह बताया गया था कि इंसान हमेशा अपनी इच्छाओं से दूसरे की सोच के बारे में कल्पना करता है. ठीक वैसे हीं जैसे हवालात में गुमसुम बैठे आरोपी को देखकर बाहर वाला सोचता है कि वह अपने किए पर पछता रहा है इसलिए दुखी है जबकि वह सोचता है कि किस गलती से मैं पकड़ा गया. वैसे होता तो ऐसा नही होता.
इसलिए यह भी हो सकता है कि सुबह-सुबह गांधी परिवार के आला सदस्य कॉफी लेकर दूसरे दर्जे के नेताओं पर हरवा देने का ग़ुस्सा निकाल रहे हों. चर्चा कर रहे हों कि फलां ने फलां जगह कांग्रेस को हरवा दिया है. वैसे यह बात कांग्रेस के सूरज, रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कल हीं कह दी थी कि यह हार तो कांग्रेसियों के लिए सोचने का विषय है जो पार्टी में रहकर पार्टी के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं.
सोशल मीडिया पर लोग लिखने लगे कि किसके बारे में बोल रहे हो. चलो उत्तर...
बीते दिन 5 राज्यों के चुनाव नतीजे आए और आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत बीजेपी की पूरी टीम गुजरात पहुंच गई. जहां अगला चुनाव होना है. शाम को जश्न मनाया, रात को थकान भी न उतरी होगी और निशाने पर अगला चुनाव है. मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती यह केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नहीं सुनी होगी बल्कि कांग्रेसियों ने भी सुना होगा. सुनने और करने में फ़र्क होता है. जिस स्तर पर BJP के आला नेता मेहनत करते हैं कांग्रेस के लिए दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं दे रहा है. लोग कह रहे हैं कि जब सुबह BJP की बड़ी टीम अगले किले को फतह करने के लिए उतर चुकी है तो फिर कांग्रेस के नेता क्या कर रहे होंगे. आप सोच रहे होंगे कि सदमा लगा हैं मातम मना रहे होंगे. पर वाकई ऐसा है क्या. अभी मैं समाजशास्त्र से पत्राचार से एमए कर रहा था जिसमें यह बताया गया था कि इंसान हमेशा अपनी इच्छाओं से दूसरे की सोच के बारे में कल्पना करता है. ठीक वैसे हीं जैसे हवालात में गुमसुम बैठे आरोपी को देखकर बाहर वाला सोचता है कि वह अपने किए पर पछता रहा है इसलिए दुखी है जबकि वह सोचता है कि किस गलती से मैं पकड़ा गया. वैसे होता तो ऐसा नही होता.
इसलिए यह भी हो सकता है कि सुबह-सुबह गांधी परिवार के आला सदस्य कॉफी लेकर दूसरे दर्जे के नेताओं पर हरवा देने का ग़ुस्सा निकाल रहे हों. चर्चा कर रहे हों कि फलां ने फलां जगह कांग्रेस को हरवा दिया है. वैसे यह बात कांग्रेस के सूरज, रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कल हीं कह दी थी कि यह हार तो कांग्रेसियों के लिए सोचने का विषय है जो पार्टी में रहकर पार्टी के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं.
सोशल मीडिया पर लोग लिखने लगे कि किसके बारे में बोल रहे हो. चलो उत्तर प्रदेश की मान लेते हैं कि वहां पर कांग्रेस की ज़मीन बहुत पहले ख़त्म हो चुकी थी और दोतरफा मुकाबले में प्रियंका गांधी की सॉफ्ट पॉलिटिक्स ने काम नहीं किया. अब कैसे कोई समझाए कांग्रेसियों को कि सॅाफ़्ट पॉलिटिक्स या फिर पार्ट टाइम पॉलिटिक्स का ज़माना लद गया है.
अब तो उस मोदी के BJP से मुक़ाबला है और जो लाव लश्कर लेकर निकलने के लिए सुबह का भी इंतज़ार नहीं करते हैं. कल बीजेपी दफ्तर में बोलते समय आवाज में थकान थी मगर जोश में कमी नही थी. राहुल गांधी जो जोश बैडमिंटन के मैदान या समुद्र में तैरने में दिखाते हैं वो चुनाव मैदान में क्यों नही दिखाते. यह आपकी प्राथमिकता दिखाती है.
पांच राज्यों के समुद्रमंथन से जब कांग्रेस के हिस्से जो विष निकला है उसे कांग्रेस किसे पिलाएगी, पता नहीं. मगर यह ज़रूर है कि राहुल गांधी एक बार फिर से शिव नहीं बनेंगे. जहर का प्याला किसी और को पिलाया जाएगा. बाक़ी राज्यों को छोड़ भी दें तो कम से कम दो राज्यों में दो कांग्रेसी मान कर चल रहे थे कि हम सरकार बना लेंगे. मगर फिर ऐसा क्या हुआ कि वहां भी सूपड़ा साफ़ हो गया.
क्यों हारे पंजाब?
फिर से अध्यक्ष बनने के लिए आतुर राहुल गांधी यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि उनके पास ज़मीनी फीडबैक नहीं है. वह पॉलिटिक्स में रोमांटिक आइडयलिज्म में जीते हैं जिसे ड्राइंग रूम में तो सराहा जा सकता है मगर वह पब्लिक डिस्कोर्स का हिस्सा नहीं बन सकता. राहुल गांधी ऐसे ही कुछ आइडियाज़ सामने रख देते हैं और उसके आस पास जमी चमचों की भीड़ इसे मास्टरस्ट्रोक बताने में लग जाती है जबकि वह घिसा- पिटा, फूंका हुआ कारतूस होता है.
अमरिंदर सिंह और उनके सभी 25 उम्मीदवार जिस तरह से हारे हैं, उससे साफ़ है कि पंजाब में कांग्रेस बहुत पहले हार चुकी थी. आम आदमी पार्टी की आंधी को देखकर लगता है कि कांग्रेस मुक़ाबले से काफी पहले बाहर हो चुकी थी. मगर तब राहुल गांधी क्या कर रहे थे. दरअसल कांग्रेस को यह तब सोचना चाहिए था जब 75 साल के अमरिंदर सिंह को फिर से मुख्यमंत्री बनाया था.
आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चाहे जितना हंस लीजिए और चाहे जितना मीम बना लीजिए मगर सच तो यही है कि नरेंद्र मोदी का फ़ॉर्मूला BJP में बहुत कारगर हुआ है कि 70 पार संभालें अपना घर बार. राहुल गांधी का पिटा फॅार्मूला आख़िर में जब सब कुछ ख़त्म हो चुका था तब राहुल गांधी दलित कार्ड के नाम पर चरणजीत सिंह चन्नी को लेकर आए और चन्नी को लेकर ऐसे नाचने लगे जैसे आर्कमिडिज हौद में नहाते हुए फ़ोर्स ऑफ बॉयोंसी यानी उत्पलावन बल खोजकर यूरेका यूरेका चिल्लाया था.
देश के लोग चन्नी के दोनों जगहों से चुनाव हारने के बादजानना चाहते हैं कि राहुल गांधी ने यह नायाब हीरा कैसे खोजा था तो मैं बता देता हूं आपको. चन्नी पंजाब का मुख्यमंत्री बनाने के बाद अगले हीं दिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिलने आ रहे थे.
चन्नी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद जयपुर आने के प्लान पर लोगों ने पूछा कि चन्नी मुख्यमंत्री निवास जयपुर में आने के लिए इतने आतुर क्यों है. उस दिन नहीं आ पाए तो फिर बाद में जरूर आए. फिर गहलोत ने बताया कि उन्हें चन्नी क्यों पसंद है.
गहलोत ने कहा कि जब मैं पिछली बार पंजाब चुनाव में स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन था तब चरणजीत सिंह चन्नी नेता प्रतिपक्ष थे और टिकट बंटवारे के समय उन्होंने मीटिंग में एक लाइन नहीं बोली थी. कहा जो आलाकमान कहे वही ठीक. वो कांग्रेस के इतने निष्ठावान नेता हैं.
नवजोत सिंह सिद्धु को रोकने के लिए गहलोत-सुरजेवाला की जोड़ी ने राहुल गांधी को चन्नी खोजकर सौंपा. आप सोच लीजिए कांग्रेस में मुख्यमंत्री बनने के लिए क्या आहर्ता है, किस तरह की क़ाबिलीयत आपके अंदर होनी चाहिए. अगर इस क़ाबिलीयत पर चन्नी मुख्यमंत्री बने थे तो फिर कैसे जीत जाते.
राहुल गांधी को बताया गया था कि पूरे देश के दलित कांग्रेस- कांग्रेस करने लगेंगे. राहुल गांधी को समझना चाहिए था कि देश की राजनीति की दलित नेता मायावती जब हाशिये पर जा रही है तो फिर घिसे -पिटे पुराने कार्ड को खेलने का क्या मतलब है. मगर राहुल गांधी जड़ों से कटे हुए हैं और सुरजेवाला- गहलोत- अजय माकन- वेणुगोपाल जैसे सलाहकारों से घिरे हुए हैं.
उत्तराखंड की हार
उत्तराखंड में भी कांग्रेस गुमान में थी कि इस बार बीजेपी सरकार से जनता में भारी नाराज़गी है तभी तो BJP ने तीन -तीन बार मुख्यमंत्री बदले हैं. चुनाव से पहलेमुख्यमंत्री बनने के लिए ऐसे लड़ने लगे जैसे जनता इनके दरवाज़े पर तिलक करने के लिए तैयार बैठी हो. 73 साल के हरीश रावत बोले कि पंजाब से जल्दी मुक्त करोमैं उत्तराखंड जाना चाहता हूं.
जिस उम्र में उन्हें घर बैठना चाहिए उस उम्र में वह मुख्यमंत्री बनने के लिए ऐसे नाराज़ हुए कि 73 साल के व्यक्ति को उत्तराखंड के चुनाव अभियान समिति का चेयरमैन बना दिया गया. सोचिए जो व्यक्ति पिछली बार मुख्यमंत्री रहते हुए दो जगहों से चुनाव हार गया हो उस पर कांग्रेस का कैसा भरोसा है.
चुनाव के समय जो एक वोट भी दिलवाने के लायक होता है बीजेपी वाले उसे भी लेकर आते हैं भले ही वह प्रियंका गांधी की पोस्टर गर्ल ही क्यों नहो जिनका BJP में कोई उपयोग नहीं हो. मगर हारिश रावत हरक सिंह रावत को रोकने के लिए ऐसे अड़े जैसे पता नहीं उनके आने से कांग्रेस सत्ता में आने से रुकजाती.
कहने लगे ग़द्दार था छोड़कर चला गया था. चुनाव कोई संतों का काम नहीं है यहां एक- एक वोट के लिए जुगाड़ करना पड़ता है. मगर हरीश रावत अगर ऐसा समझते होते तो इस बार भी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार होते हुए चुनाव नहीं हार जाते. इस उम्र में ये पंजाब के प्रभारी थे जो चुनाव के तीन महीने पहले पता लगा पाए कि कैप्टन खत्म हो चुके हैं.
उनसे उत्तराखंड का नब्ज जानने का भरोसा कांग्रेस कैसे कर सकती है. अभी भी कह रहे हैं कि बूथ-बूथ पर काम करूंगा. कोई क्या करे इन कांग्रेसियों को जो 73 साल में भी सीएम बनने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं. दरअसल ऐसा लगता है कि गांधी परिवार हमेशा डरा हुआ रहता है इसलिए ऐसे बुजुर्गों की फ़ौज खड़ी कर रखी है जिसका कोई उपयोग नहीं है.
मल्लिकार्जुन खड़गे लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष रहते हुए हारे तो राज्यसभा में लाकर नेता प्रतिपक्ष बना दिया. दीपेंद्र हुड्डा और मनीष तिवारी बैठे रह गए. राहुल गांधी से कोई पूछे क्या कर्नाटक चुनाव में भी खड़गे की कोई उपयोगिता है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक ग़हलोत चुनाव में जाएंगे तो उनकी उम्र 73 साल की होगी और वह अगले पांच साल के लिए ख़ुद को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके जाना चाहते हैं.
जबकि दो बार मुख्यमंत्री रहते हुए कांग्रेस राजस्थान में अपने इतिहास की सबसे बड़ी हार हारी है, पर जैसे चन्नी को लेकर आए थे लोग चर्चा करते हैं कि क्या पता राजस्थान में भी नेता बदले तो सचिन पायलट की जगह कहीं किसी दलित नेता के नाम परपीडब्लूडी मंत्री भजन लाल जाटव को लेकर न आ जाए.
अब कांग्रेस को समझना होगा कि वह दिन लद गए जब किसी को भी मुख्यमंत्री बना दें और जनता वोट दे देगी. अब जनता को नेता में करंट चाहिए. गांधी परिवार को इस डर से बचना होगा कि करंट हमें न लग जाए. सचिन पायलट को अगर अभी से सता नहीं दी तो एक बार फिर से मलाल के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा.
सारे नौजवान नेता कांग्रेस को छोड़कर चले गये और राहुल गांधी कहते रहे कि जाने वाले को टाटा बाय-बाय. जिन्हे लेकर आए हैं उनसे भी डरते हैं कि वो आगे न आ जाए. कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेंवाणी और हार्दिक पटेल जैसे नेता घर बैठे तमाशा देख रहे हैं.
गोवा-मणिपुर भी गया
आख़िर क्यों गोवा और मणिपुर जैसे राज्यों में जहाँ पिछली बार कांग्रेस को ज़्यादा सीटें मिली थी और आपका कहना है कि धनबल और बाहुबल के बल पर हमसे जनमत छीना गया था वहां भी लोगों ने BJP पर भरोसा किया है. इसलिए कि लोग समझने लगे कि कांग्रेसी बिकाऊ है. इनको वोट देने का कोई फ़ायदा नहीं है.
गोवा में टीएमसी ने कांग्रेस को हरवा दिया. इसलिए केवल बीजेपी को गाली देने से काम नहीं चलेगा. यूपी में बीजेपी और पंजाब में आप की जीत को अलगाववादी नीति की जीत कह कर बचना चाहते हैं तो फिर गोवा और मणिपुर में क्या हुआ जहां न हिंदुवादी थे और न खालिस्तानी थे.
गुजरात में क्या बचा है
अब अगला चुनाव गुजरात में है. वहां क्या होने वाला है सब जानते हैं. कांग्रेस दूसरे नंबर पर रहेगी या तीसरे नंबर पर रहेगी इसे लेकर हर जगह बहस चल रही है. आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से स्थानीय निकाय के चुनावों में प्रदर्शन किया है आप को BJP के विकल्प के रूपमें गुजरात में लोग देखने लगे हैं.
देश के आम कांग्रेसी सामने कुछ भले ही न बोलें मगर अब यह कहने लगे हैं कि राहुल गांधी जी बस अब बख्श दीजिए. राहुल गांधी के लिए तय किया गया था कि पंजाब और उत्तराखंड की जीत के बाद जीत का सेहरा इन्हें पहनाते हुए कांग्रेस अध्य़क्ष पद पर ताजपोशी कर दी जाएगी मगर अब राहुल गांधी क्या करेंगे.
आम चुनाव में खारिज कर देने के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया था. तो फिर हालात तो वही बन गए. कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल तब ऊंचा होता जब कल की करारी हार के बाद मोदी की जगह राहुल गांधी गुजरात में होते. मगर दिवार के इस पार और उस पार बैठे व्यक्तियों की सोच और सोचने के तरीके में आसमान-जमीन का फर्क हो सकता है.
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