गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) की भी कश्ती वहीं डूब जाती है जहां पानी बहुत कम होता है. 2009 में गुप्तेश्वर पांडे आखिरी क्षण में राजधानी एक्सप्रेस नहीं पकड़ पाये थे - और 2020 में बक्सर-पटना स्पेशल भी छूट गयी है. बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने ये तो ठीक कहा है कि 'मेरा जीवन संघर्ष में ही बीता है', लेकिन उनके बेटिकट राजनीतिक सफर के दोनों पड़ावों की कहानी अलग अलग है. लोक सभा का टिकट वो इसलिए नहीं हासिल कर पाये थे क्योंकि तत्कालीन सांसद ने गुप्तेश्वर पांडेय को चुनाव से पहले ही राजनीतिक पटखनी दे दी, लेकिन नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने जो किया है वो बिलकुल अलग है.
ये मान कर चलना तो ठीक नहीं होगा कि चुनाव लड़ने के लिए टिकट न मिलना गुप्तेश्वर पांडेय के राजनीतिक कॅरियर पर फुल स्टॉप लगा देगा, हां, इसे तात्कालिक तौर पर सेटबैक के रूप में जरूर देखा जा सकता है. ये जरूर है कि ओपनिंग पारी के लिए ये एक बेहतरीन मौका था, लेकिन इसका वो फायदा नहीं उठा पा रहे हैं.
टिकट मिलने का क्या है - कौन सोच रहा होगा कि मुजफ्फपुर बालिका गृह में यौन शोषण को लेकर मचे बवाल के बीच इस्तीफा देने वाली मंजू वर्मा फिर से जेडीयू की उम्मीदवार होंगी? और वैसे ही न तो गुप्तेश्वर पांडेय और न ही उनके समर्थक ही ये सोच रहे थे कि उनका टिकट कट जाएगा - लेकिन ये दोनों ही हुआ है.
समझने और समझाने के लिए बातें तो बहुत तरीके से बनायी जा सकती हैं, लेकिन जब सुशांत सिंह राजपूत केस ही चुनावी मुद्दा नहीं रहा तो गुप्तेश्वर पांडेय की उम्मीदवारी से क्या फायदा? असल बात तो ये है कि सुशांत सिंह राजपूत केस (Sushant Singh Rajput Case) में खादी धारण करने से पहले खाकी में ही गुप्तेश्वर पांडेय को सड़क पर अति उत्साह के साथ प्रदर्शन की भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
अगर सुशांत सिंह केस चुनावी मुद्दा बना रहता
एनसीपी नेता अनिल देशमुख का दावा है कि महाराष्ट्र सरकार के दबाव के चलते ही गुप्तेश्वर पांडेय को टिकट नहीं मिला है. महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने...
गुप्तेश्वर पांडेय (Gupteshwar Pandey) की भी कश्ती वहीं डूब जाती है जहां पानी बहुत कम होता है. 2009 में गुप्तेश्वर पांडे आखिरी क्षण में राजधानी एक्सप्रेस नहीं पकड़ पाये थे - और 2020 में बक्सर-पटना स्पेशल भी छूट गयी है. बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय ने ये तो ठीक कहा है कि 'मेरा जीवन संघर्ष में ही बीता है', लेकिन उनके बेटिकट राजनीतिक सफर के दोनों पड़ावों की कहानी अलग अलग है. लोक सभा का टिकट वो इसलिए नहीं हासिल कर पाये थे क्योंकि तत्कालीन सांसद ने गुप्तेश्वर पांडेय को चुनाव से पहले ही राजनीतिक पटखनी दे दी, लेकिन नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने जो किया है वो बिलकुल अलग है.
ये मान कर चलना तो ठीक नहीं होगा कि चुनाव लड़ने के लिए टिकट न मिलना गुप्तेश्वर पांडेय के राजनीतिक कॅरियर पर फुल स्टॉप लगा देगा, हां, इसे तात्कालिक तौर पर सेटबैक के रूप में जरूर देखा जा सकता है. ये जरूर है कि ओपनिंग पारी के लिए ये एक बेहतरीन मौका था, लेकिन इसका वो फायदा नहीं उठा पा रहे हैं.
टिकट मिलने का क्या है - कौन सोच रहा होगा कि मुजफ्फपुर बालिका गृह में यौन शोषण को लेकर मचे बवाल के बीच इस्तीफा देने वाली मंजू वर्मा फिर से जेडीयू की उम्मीदवार होंगी? और वैसे ही न तो गुप्तेश्वर पांडेय और न ही उनके समर्थक ही ये सोच रहे थे कि उनका टिकट कट जाएगा - लेकिन ये दोनों ही हुआ है.
समझने और समझाने के लिए बातें तो बहुत तरीके से बनायी जा सकती हैं, लेकिन जब सुशांत सिंह राजपूत केस ही चुनावी मुद्दा नहीं रहा तो गुप्तेश्वर पांडेय की उम्मीदवारी से क्या फायदा? असल बात तो ये है कि सुशांत सिंह राजपूत केस (Sushant Singh Rajput Case) में खादी धारण करने से पहले खाकी में ही गुप्तेश्वर पांडेय को सड़क पर अति उत्साह के साथ प्रदर्शन की भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
अगर सुशांत सिंह केस चुनावी मुद्दा बना रहता
एनसीपी नेता अनिल देशमुख का दावा है कि महाराष्ट्र सरकार के दबाव के चलते ही गुप्तेश्वर पांडेय को टिकट नहीं मिला है. महाराष्ट्र के गृह मंत्री अनिल देशमुख ने बीजेपी के बिहार प्रभारी देवेंद्र फडणवीस से सवाल किया था कि क्या वो गुप्तेश्वर पांडेय के लिए चुनाव प्रचार करेंगे? अनिल देशमुख का कहना रहा कि अगर देवेंद्र फडणवीस ने मुंबई पुलिस को नीचा दिखाने वाले गुप्तेश्वर पांडेय के लिए अगर चुनाव प्रचार करते हैं तो महाराष्ट्र के लोग उनको कभी माफ नहीं करेंगे.
क्या सही में ऐसा हुआ है? अनिल देशमुख के दावे का राजनीतिक तौर पर तो कोई मतलब नहीं है, लेकिन गुप्तेश्वर पांडेय के टिकट कटने के पीछे आधा सच ये जरूर लगता है. गुप्तेश्वर पांडेय के टिकट कटने में सुशांत सिंह केस का बड़ा रोल तो है ही - और इस बात से शायद ही कोई इंकार कर पाये. यहां तक कि गुप्तेश्वर पांडेय भी.
अव्वल तो गुप्तेश्वर पांडेय वीआरएस लेकर बड़े आराम से जेडीयू के टिकट पर चुनाव लड़ते और विधायक भी बन सकते थे, लेकिन सुशांत सिंह केस को लेकर उनका अति उत्साह ही भारी पड़ा है. जैसे ही सुशांत सिंह केस में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच की मंजूरी दी, तत्कालीन डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय बढ़ चढ़ कर कैमरे पर बोलने लगे थे. नीतीश कुमार की सरेआम चापलूसी में रिया चक्रवर्ती की औकात भी बता डाली थी.
अब तो खैर रिया चक्रवर्ती जेल में महीना भर बिता कर घर भी लौट आयी हैं, ये बात अलग है कि रिया को सीबीआई ने नहीं बल्कि नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने जेल भेजा था. सीबीआई तो अभी प्रोफेशनल तरीके से जांच पड़ताल कर ही रही है.
वैसे एम्स के मेडिकल पैनल के हेड डॉक्टर सुधीर गुप्ता के ये कह देने के बाद कि सुशांत सिंह राजपूत केस में हत्या की कोई आशंका नहीं बनती. एक तरीके से एम्स पैनल ने मान लिया है कि सुशांत सिंह केस खुदकुशी का ही मामला है, हत्या का तो कतई नहीं. साथ ही, जिस तरीके से एनसीबी ने ड्रग्स ऐंगल की जांच की है उसमें भी सुशांत सिंह राजपूत की छवि खराब ही हुई है. एनसीपी की जांच के हिसाब से देखें तो जांच पड़ताल ने सुशांत सिंह की छवि एक नशेड़ी के तौर पर ही पेश कर दी है.
बिहार चुनाव में देवेंद्र फडणवीस और गुप्तेश्वर पांडेय दोनों की ही अहमियत सुशांत सिंह राजपूत केस के चुनावी मुद्दा बनने की सूरत में ही बढ़ी थी. चूंकि बीजेपी ने देवेंद्र फडणवीस को बिहार चुनाव के लिए प्रभारी बना दिया था, तो उसके लिए पीछे हटना गलत मैसेज देता - लेकिन गुप्तेश्वर पांडेय के मामले में नीतीश कुमार ने जान बूझ कर हाथ खींच लिये, ऐसा लगता है. अब जिस तरीके से बीजेपी और जेडीयू के नेता और खुद नीतीश कुमार भी सुशांत सिंह राजपूत केस को हत्या का मामला बता कर पेश कर रहे थे, उसके हिसाब से तो उनकी खामोशी भी बैकफुट पर आने जैसा ही है. ऐसे में गुप्तेश्वर पांडेय को जेडीयू उम्मीदवार बनाने के फैसले को नीतीश कुमार के लिए सही ठहराना भी काफी मुश्किल होता.
ये तो ऐसा ही लगता है कि जिस सुशांत सिंह राजपूत केस को लेकर गुप्तेश्वर पांडेय इंसाफ की लड़ाई में फ्रंटफुट पर खड़े थे वो तो चुनावी मुद्दा रहा ही नहीं - फिर गुप्तेश्वर पांडेय की वो तात्कालिक अहमियत तो खत्म ही हो चुकी है - और यही उनके टिकट मिलने की संभावना भी ले डूबा है.
खुद को सोशल मीडिया पर प्रमोट करते हुए गुप्तेश्वर पांडेय ने ही तो कहा था - '...चुनाव सामने है. ऐसी स्थिति में अगर मैं चुनाव कराता, तो विपक्ष चुनाव आयोग से मेरी शिकायत करता - और अगर चुनाव आयोग मुझे हटा देता तो कितनी बेइज्जती होती?'
टिकट में क्या रखा है?
किसी पुलिस अफसर के लिए डीजीपी का पद भी वैसा ही होता है जैसे किसी विधायक के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी और किसी सांसद के लिए प्रधानमंत्री की. आईपीएस अधिकारी गुप्तेश्वर पांडेय बिहार के डीजीपी के के पद तक पहुंचने का भी करीब करीब यही किस्सा है.
एक चर्चा ये भी रही कि अभी उनके लिए वाल्मीकि नगर उपचुनाव का मौका बचा हुया है. शर्त ये है कि अगर वैद्यनाथ प्रसाद महतो के बेटे चुनाव लड़ने से मना कर दें तभी ये संभव है. वैसे महतो परिवार की तरफ से खबर आयी है कि अभी कुछ भी पक्का नहीं है.
इस बीच गुप्तेश्वर पांडेय ने मायूसी के साथ एक फेसबुक पोस्ट में बताया है कि वो इस बार विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. ये बताते हुए कि उनका जीवन संघर्षों में बीता है, गुप्तेश्वर पांडेय ने भरोसा दिलाया है कि लोग धैर्य रखें क्योंकि उनका जीवन बिहार की जनता के लिए समर्पित है.
कहां गुप्तेश्वर पांडेय दावा कर रहे थे कि दर्जन भर विधानसभा क्षेत्रों से उनको चुनाव लड़ने के ऑफर मिल रहे हैं - और कहां एक भी जगह से टिकट हासिल करने से चूक गये. गुप्तेश्वर पांडेय को निश्चित तौर पर काफी बुरा लग रहा होगा, लेकिन राजनीति में ऐसा कोई स्थायी भाव नहीं होता. खासकर मंजू वर्मा को टिकट मिलने के बाद गुप्तेश्वर पांडेय को निराश होने की जरूरत नहीं होनी चाहिये.
मंजू वर्मा बिहार के बालिका गृह कांड से चर्चा में आयी थीं जब बालिका गृह के 34 लड़कियों के यौन शोषण की घटना सामने आई थी. बहरहाल, नीतीश कुमार ने सारी बातों को नजरअंदाज करते हुए मंजू वर्मा को चेरिया बरियारपुर से उम्मीदवार घोषित किया है.
जब इस कांड का भंडाफोड़ हुआ तब मंजू वर्मा नीतीश सरकार में समाज कल्याण विभाग की मंत्री थीं - और बालिका गृह उनके ही विभाग का मामला था. मंजू वर्मा को टिकट दिये जाने के बाद नीतीश कुमार के विरोधी आक्रामक हो गये हैं.
आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी कहते हैं, 'मंजू वर्मा को क्यों अपना पद छोड़ना पड़ा था और उनके घर से क्या बरामद हुआ था, ये सबको मालूम है. इसके बावजूद जेडीयू ने उन्हें टिकट देने में गुरेज नहीं किया और अपना उम्मीदवार बनाया है.'
जेडीयू की तरफ से बचाव में प्रवक्ता अभिषेक झा ने तकनीकी आधार पर दलील पेश की है, 'मंजू वर्मा पर जब आरोप लगे थे तो नैतिकता के आधार पर उन्होंने अपने मंत्री पद से इस्तीफा दिया था. न्यायिक प्रक्रिया के तहत उन्हें गिरफ्तार भी किया गया और जेल भी जाना पड़ा. मगर अब तक उनके खिलाफ कोई भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ है.'
बात तो सही है, इस्तीफा तो नैतिकता के आधार पर ही दिया था - टिकट देने की तो कोई नैतिकता होती नहीं है. ये सब सुनने के बाद तो गुप्तेश्वर पांडेय को कतई निराश होने की जरूरत नहीं है. जब मंजू वर्मा को टिकट मिल सकता है तो गुप्तेश्वर पांडेय तो कानून व्यवस्था के रखवाले ही रहे हैं. अब अगर कोई ये कहे कि खाकी वर्दी पहन कर वो सुशांत सिंह केस की सीबीआई जांच की सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी मिलने पर खुशी से सड़क पर ही नाच रहे थे, तो कोई चाहे तो उसमें भी नैतिकता खोजता फिरे. चिराग पासवान के आरोपों को लेकर नीतीश कुमार का कहना रहा कि कोई क्या कहता है उन बातों पर वो ध्यान नहीं देते. इस प्रसंग में भी नैतिकता की दुहाई देने वाले सही जवाब और बयान के तौर पर ले सकते हैं.
मंजू वर्मा ही नहीं, पूर्व आईपीएस सुनील कुमार को टिकट मिल सकता है तो गुप्तेश्वर पांडेय के टिकट कटने को कैसे समझा जाये?
दलित परिवार से आने वाले सुनील कुमार को गोपालगंज की भोरे सीट से जेडीयू ने उम्मीदवार बनाया है. सुनील कुमार के भाई अनिल कुमार ही फिलहाल भोरे से विधायक हैं. 2015 में वो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे. पहली बार अनिल कुमार आरजेडी उम्मीदवार के तौर पर विधायक बने थे, लेकिन इस बार वो चुनाव मैदान में नहीं हैं क्योंकि महागठबंधन में भोरे सीट सीपीआई-एमएल के खाते हिस्से में आयी है.
किसी भी राजनीतिक पार्टी में उम्मीदवारों का चयन काफी सोच विचार और माथापच्ची के बाद तय होता है - और कोई टिकट फाइनल करते वक्त नेतृत्व के दिमाग में महज कोई एक फैक्टर नहीं होता. पहली शर्त ये जरूर होती है कि उम्मीदवार जिताऊ तो है ना, लेकिन ये भी समझना जरूरी होता है कि व्यक्ति विशेष की उम्मीदवारी से आस पास की सीटों के साथ पूरी पार्टी पर क्या असर पड़ सकता है - ऐसी सारी संभानाओं का पूर्वाकलन जरूरी होता है.
निश्चित तौर पर नीतीश कुमार ने मंजू वर्मा और सुनील कुमार को टिकट देते वक्त और गुप्तेश्वर पांडेय का टिकट काटते वक्त ऐसी तमाम संभावनाओं पर विचार जरूर किया होगा.
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