राज्य सभा उपसभापति चुनाव में हरिवंश नारायण सिंह की जीत 99.99 फीसदी पक्की थी. हार की एक बहुत ही मामूली गुंजाइश सिर्फ इसलिए बनी हुई थी क्योंकि अगर सारी चीजें मैनेज नहीं हो पातीं तो नतीजा कुछ और भी हो सकता था. आखिर गुजरात में हुए राज्य सभा चुनाव में क्या हुआ था? बीजेपी की ओर से एक छोटी सी चूक को कांग्रेस नेता ने लपक लिया - और फिर खेल हो गया.
राज्य सभा की वो हार मामूली हार नहीं थी. अमित शाह ने अपनी ओर से कोई हथियार ऐसा नहीं था जिसे तब न आजमाया न हो. उस वक्त अमित शाह के भाग्य में चुनावी शिकस्त और कांग्रेस के अहमद पटेल की किस्मत में पक्की जीत लिखी हुई थी. हरिवंश की जीत में अमित शाह का राज्य सभा में होना भी काफी अहम रहा. शाह की राज्य सभा में मौजूदगी से जो जो चीजें संभव हुईं क्या बाहर होते तो और मुश्किल नहीं होतीं?
बीजेपी को सहयोगियों को ज्यादा अहमियत देनी होगी
राज्य सभा उपसभापति के लिए हुए चुनाव में एनडीए उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह को 125 वोट मिले, जबकि विपक्षी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को बचे हुए 105 वोट ही मिल पाये.
सवाल ये है कि जीत हार के जो आंकड़े सामने आये हैं क्या एनडीए उम्मीदवार की सफलता इतनी आसान थी? ऐसा बिलकुल नहीं था. लड़ाई फंसी हुई थी. एनडीए के पक्ष में नंबर पहले से नहीं थे. जीत के लिए अति महत्वपूर्ण वोट आखिरी वक्त में मैनेज हुए - वो भी तब जब बीजेपी ने अपने ट्रंप कार्ड का सही वक्त पर इस्तेमाल किया. ऐसा बीजेपी ने मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के वक्त भी किया था.
बीजेपी के ट्रंप कार्ड यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े ही कम अंतराल में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को दोबारा फोन किया था. इस बारे में कोई...
राज्य सभा उपसभापति चुनाव में हरिवंश नारायण सिंह की जीत 99.99 फीसदी पक्की थी. हार की एक बहुत ही मामूली गुंजाइश सिर्फ इसलिए बनी हुई थी क्योंकि अगर सारी चीजें मैनेज नहीं हो पातीं तो नतीजा कुछ और भी हो सकता था. आखिर गुजरात में हुए राज्य सभा चुनाव में क्या हुआ था? बीजेपी की ओर से एक छोटी सी चूक को कांग्रेस नेता ने लपक लिया - और फिर खेल हो गया.
राज्य सभा की वो हार मामूली हार नहीं थी. अमित शाह ने अपनी ओर से कोई हथियार ऐसा नहीं था जिसे तब न आजमाया न हो. उस वक्त अमित शाह के भाग्य में चुनावी शिकस्त और कांग्रेस के अहमद पटेल की किस्मत में पक्की जीत लिखी हुई थी. हरिवंश की जीत में अमित शाह का राज्य सभा में होना भी काफी अहम रहा. शाह की राज्य सभा में मौजूदगी से जो जो चीजें संभव हुईं क्या बाहर होते तो और मुश्किल नहीं होतीं?
बीजेपी को सहयोगियों को ज्यादा अहमियत देनी होगी
राज्य सभा उपसभापति के लिए हुए चुनाव में एनडीए उम्मीदवार हरिवंश नारायण सिंह को 125 वोट मिले, जबकि विपक्षी उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद को बचे हुए 105 वोट ही मिल पाये.
सवाल ये है कि जीत हार के जो आंकड़े सामने आये हैं क्या एनडीए उम्मीदवार की सफलता इतनी आसान थी? ऐसा बिलकुल नहीं था. लड़ाई फंसी हुई थी. एनडीए के पक्ष में नंबर पहले से नहीं थे. जीत के लिए अति महत्वपूर्ण वोट आखिरी वक्त में मैनेज हुए - वो भी तब जब बीजेपी ने अपने ट्रंप कार्ड का सही वक्त पर इस्तेमाल किया. ऐसा बीजेपी ने मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के वक्त भी किया था.
बीजेपी के ट्रंप कार्ड यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े ही कम अंतराल में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को दोबारा फोन किया था. इस बारे में कोई आधिकारिक बयान तो नहीं आया है, लेकिन सूत्रों के हवाले से मीडिया के पास आ रही खबरें यही बता रही हैं. चुनाव में खास बात रही ना-नुकुर कर रही शिवसेना का एनडीए के पक्ष में खड़ा होना और नाराज शिरोमणि अकाली दल का मान जाना. अमित शाह के संपर्क फॉर समर्थन का भी कुछ न कुछ फायदा जरूर हुआ होगा.
फिर भी अकाली दल के नरेश गुजराल के लिए गुस्से पर काबू करना मुश्किल हो रहा था. एक कार्यक्रम में नरेश गुजराल का कहना रहा कि 2019 में गठबंधन की ही राजनीति सफल होगी - और एनडीए में सहयोगियों पर बीजेपी को ध्यान देना होगा. नरेश गुजराल की बात को शिवसेना प्रवक्त संजय राउत ने भी जोरदार तरीके से एनडोर्स किया - 'हमें अटल के जमाने का एनडीए चाहिये.'
क्या बीजेडी एनडीए में शामिल होगा
राज्य सभा उपसभापति चुनाव में कई बातें साफ होती दिखी हैं. मसलन, शिवसेना कहीं नहीं जाने वाली अगर उसके सामने मराठा अस्मिता जैसी मजबूरी खड़ी ना हो. अकाली दल की भी अपनी मजबूरी है. अकाली दल अपने बूते खड़े होने की हालत में फिलहाल है नहीं - और कांग्रेस के साथ जाने पर उसके हाथ कुछ लगने वाला नहीं है. राजी होकर या नाराज होकर, चाहे जैसे भी अकाली दल की दाल एनडीए से बाहर नहीं गलने वाली है.
ऐसा लगा था टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस विपक्षी खेमे के साथ जाएंगे, लेकिन अब तक स्टैंड को लेकर वे भी कन्फ्यूज ही नजर आ रहे हैं. एक वजह ये भी हो सकती है कि विपक्ष का मौजूदा स्वरूप उन्हें कमजोर नजर आ रहा हो इसलिए भी.
अच्छा हुआ कि बीजेपी को सद्बुद्धि आयी. बीजेपी ने अपने उम्मीदवार उतारने की जिद वक्त रहते छोड़ दी. क्या हरिवंश की जगह बीजेपी ने अपना उम्मीदवार उतारा होता तो सब कुछ मैनेज हो सकता था? सीधा जवाब तो यही है - हरगिज नहीं.
अकाली दल का सवाल रहा कि जब नरेश गुजराल का नाम तकरीबन फाइनल हो चुका था तो हरिवंश को उम्मीदवार क्यों बनाया? अब अकाली दल को इस सवाल का जवाब जरूर मिल चुका होगा.
अगर हरिवंश की जगह कोई और उम्मीदवार होता तो क्या नवीन पटनायक को फोन करने को नीतीश कुमार तैयार होते? बहुत मुश्किल होता. हां, किसी मजबूरी की बात और होती.
लग तो शुरू से रहा था, लेकिन आखिरी दौर में बीजू जनता दल नेता नवीन पटनायक ही किंग मेकर के तौर पर उभरे. बीजेपी को भी महसूस हुआ कि बगैर नवीन पटनायक के सपोर्ट के वैतरणी पार नहीं लगने वाली.
मालूम हुआ है कि प्रधानमंत्री मोदी ने नवीन पटनायक को फोन कर उपसभापति चुनाव में उनका समर्थन मांगा. इतना ही नहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमान ने भी फोन कर नवीन पटनायक से सपोर्ट करने को कहा.
नवीन पटनायक के सपोर्ट को एक्सचेंज ऑफर के तौर पर देखा जा रहा है. 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में नवीन पटनायक ने भी ऐसे ही नीतीश कुमार को फोन किया था. तब नवीन पटनायक ने यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के खिलाफ विपक्षी प्रत्याशी पीए संगमा को सपोर्ट करने की अपील की थी. पर्दे के पीछे सारी चीजें मैनेज कर रहे अमित शाह ने नवीन पटनायक के एहसान का बदला नीतीश को याद दिला कर पूरा करा लिया. वैसे ये अमित शाह ही हैं जो ओडिशा पहुंच कर नवीन पटनायक और उनकी सरकार को जीभर कोस आते हैं - और अगले चुनाव में कमल खिलने का दावा करते रहे हैं.
कहते हैं कि अविश्वास प्रस्ताव से दूर रहने का बीजेडी ने फैसला प्रधानमंत्री के फोन के बाद ही किया था - और वो मान गये थे. नवीन पटनायक एक बार फिर मान गये हैं. तो क्या अगली बार प्रधानमंत्री मोदी की इच्छा बताकर अगर अमित शाह खुद फोन कर एनडीए में आने का न्योता देंगे तो भी नवीन पटनायक मान जाएंगे या ठुकरा देंगे?
और फिर से मौका चूक गयी कांग्रेस
क्या कांग्रेस चाहती तो उपसभापति चुनाव में बीजेपी की मामूली मुश्किल को बड़ी मुश्किल में तब्दील नहीं कर सकती थी? कांग्रेस चाहती तो बड़ी आसानी से बीजेपी की मुश्किल बढ़ा सकती थी, लेकिन इसके लिए राहुल गांधी को भी अमित शाह की तरह फाइटिंग मोड में हालात को अपने पक्ष में करने की कोशिश करनी होती.
हाल ही में राहुल गांधी के बारे में गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल ने एक टिप्पणी की थी - 'वो फैसला लेने में बड़े स्लो हैं.'
ताजा मामले में भी चर्चा है कि जब तक कांग्रेस की ओर से बीजेडी और कुछ और विपक्षी नेताओं से संपर्क की कोशिश शुरू हुई उससे पहले वे फैसला ले चुके थे. ऐसा लगा जैसे ड्यूअल सिम वाले फोन के एक नंबर पर एनडीए नेताओं की बातें चल रही थीं और दूसरे नंबर पर उसी वक्त कांग्रेस की ओर से फोन मिलाये जाते रहे - फिर तो स्वीच ऑफ या नेटवर्क के बाहर बताएगा ही. जब फोन कनेक्ट हुआ तो पता चला नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री मोदी ने नवीन पटनायक से पहले ही हामी भरवा ली थी. टीआरएस, टीडीपी और पीडीपी को भी न जाने कांग्रेस के किस फोन से संपर्क किया गया कि वे नेटवर्क के बाहर ही रहे.
और तो और राहुल गांधी ने तो आम आदमी पार्टी का समर्थन भी यूं ही गंवा दिया. राहुल गांधी नकल तो मोदी और केजरीवाल की ही करते रहते हैं, लेकिन मौके पर उनकी टीम पूरी तरह चूक जाती है. ओडिशा में बीजेपी अब तक बीजेडी के विरोध में अलख जगाती आई है, लेकिन मौके पर बात तो उसी से बात करने बन पायी. सिर्फ नकल नहीं राहुल गांधी को बीजेपी नेतृत्व से ये सब भी सीखने की जरूरत है.
आम आदमी पार्टी नेता संजय सिंह ने समर्थन की जो शर्त रखी थी वो भी बड़ी दिलचस्प थी. एक तरफ तो राहुल गांधी भरी संसद में अचानक धावा बोल कर प्रधानमंत्री मोदी से गले मिले और उन्हें सकते में डाल दिये, दूसरी तरफ संजय सिंह का न्योता मिलने के बाद भी अरविंद केजरीवाल के गले नहीं मिले. समझ में नहीं आता बात नफरत के बदले प्यार बांटने की होती है और राजनीति में ऐसी बड़ी चूक हो जाती है.
संजय सिंह की दलील थी कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों ही चुनावों में आम आदमी पार्टी ने विपक्ष के उम्मीदवार का सपोर्ट किया - अब तो कांग्रेस को आपका सपोर्ट तभी मिलेगा जब राहुल गांधी खुद अरविंद केजरीवाल को फोन करेंगे. जाहिर है इस मामले में भी दिल्ली कांग्रेस के नेता ही रोड़ा बने होंगे.
कांग्रेस ने ममता बनर्जी को भी अपने उम्मीदवार बीके हरिप्रसाद के नाम पर मना लिया था. यहां तक कि टीडीपी की ओर से भी एनओसी मिलने की बात सुनी गयी थी. फिर भी सब हाथ से फिसल गया.
बीजेपी की तरह कांग्रेस ने किसी कांग्रेस नेता की जगह एनसीपी की वंदना चव्हाण को उम्मीदवार बनाया होता तो भी बात और होती. एक बार वंदना चव्हाण की चर्चा जोर पकड़ी जरूर थी, लेकिन ऐन वक्त पर उनका नाम छंट गया.
अगर कांग्रेस ने वंदना चव्हाण को विपक्ष का उम्मीदवार बनाया होता तो शिवसेना को विरोध में जाने से पहले दो बार जरूर सोचना पड़ता. कांग्रेस को तो याद होगा ही कि कैसे शिवसेना ने मराठी मानुष के नाम पर लाइन तोड़ कर राष्ट्रपति चुनाव में प्रतिभा पाटील का सपोर्ट किया था. जैसे भी हो, ये तो मानना ही पड़ेगा कि कांग्रेस फिर से चूक गयी.
परोक्ष चुनावों की प्रत्यक्ष चुनावों से कोई तुलना का मतलब नहीं होता. परोक्ष चुनाव में सिर्फ वोटर के नंबर निर्णायक होते हैं - प्रत्यक्ष चुनावों में अनगिनत फैक्टर होते हैं जिनके मिल कर असर डालने से नतीजे तय होते हैं.
राज्य सभा उपसभापति चुनाव का नतीजा भी नंबर से तय होना था. सत्ताधारी एनडीए उम्मीदवार के पक्ष में सीधे सीधे जो वोट नजर आ रहे थे वे जीत के जीत के नंबर से काफी पीछे थे. विपक्षी उम्मीदवार की जीत की आसार बिलकुल नहीं थे.
अगर विपक्ष चाहता तो क्या मोदी सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी नहीं कर सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राष्ट्रपति चुनाव और उप राष्ट्रपति चुनाव की ही तरह कांग्रेस बड़ी भूमिका निभाने से पूरी तरह चूक गयी - और बिखरा विपक्ष एक बार फिर हाथ मलता रह. फिलहाल इसकी कोई खास अहमियत भले न हो, लेकिन अगर 2019 को लेकर तैयारी का लेवल अब भी यही है फिर तो वास्तव में सब 'हरि' भरोसे ही है.
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