हरियाणा के चुनाव को लेकर एक चुटकुला ज़ोरों पर है कि हरियाणा चुनाव ने सबको खुश कर दिया. चाचा खुश है कि परिवार की राजनीतिक दुकानदारी एक तरफ से ना सही दूसरी तरफ से चल निकली है. भतीजा खुश है कि सीट भले ही सिर्फ दस आईं, उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई. अशोक तंवर खुश हैं, कि भूपिंदर हुड्डा सीएम नहीं बन पाए. हुड्डा जी खुश कि मनोहर लाल खट्टर की अगुवाई में बीजेपी 75 पार का अरमान पूरा नहीं कर पाई. खट्टर खुश कि सरकार में रह कर जीना मुश्किल करने वाले कई हार गए. चुनाव आयोग खुश कि कम से कम ईवीएम के सिर किसी ने ठीकरा नहीं फोड़ा.
मजाक एक तरफ, हरियाणा के इस चुनाव ने राजनीतिक पार्टियों को बहुत सारे सबक दे दिए हैं. राजनीति के पंडित अभी सिर्फ बीजेपी के लिए सबक ढूंढ रहे हैं, ढूंढने भी चाहिए, क्योंकि सरकार उन्हीं की थी. लेकिन लोकतंत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि हर वो राजनीतिक पार्टी, जिसे जनता ने पूरी तरह सरकार चलाने लायक सीटें नहीं दीं– बैठ कर मंथन करे कि उनसे कहां कमी रह गई.
बीजेपी के बडे-बड़े मंत्रियों का हार जाना इस बात की तसदीक करता है कि पार्टी और मनोहर सरकार पिछले पांच साल में जनता से वो रिश्ता नहीं बना पाई, जिसके बलबूते पार्टी ने गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तीन-तीन बार चुनाव जीते और सरकारें चलाईं. बीजेपी को बेशक इस बात का फायदा मिला कि उसके मुख्यमंत्री की छवि साफ-सुथरी थी, लेकिन मंत्री? मंत्रियों की जनता से दूरी का नुकसान, सरकार को चुनाव में उठाना पड़ा. सरकार के सलाहकारों ने उन्हें इस बात की हवा तक नहीं लगने दी कि अंदरखाने जनता में उनके खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है. लोकसभा चुनाव के नतीजों की बढ़त पर सवार पार्टी ने जब 75 पार का नारा लगाया, तब भी नेतृत्व...
हरियाणा के चुनाव को लेकर एक चुटकुला ज़ोरों पर है कि हरियाणा चुनाव ने सबको खुश कर दिया. चाचा खुश है कि परिवार की राजनीतिक दुकानदारी एक तरफ से ना सही दूसरी तरफ से चल निकली है. भतीजा खुश है कि सीट भले ही सिर्फ दस आईं, उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई. अशोक तंवर खुश हैं, कि भूपिंदर हुड्डा सीएम नहीं बन पाए. हुड्डा जी खुश कि मनोहर लाल खट्टर की अगुवाई में बीजेपी 75 पार का अरमान पूरा नहीं कर पाई. खट्टर खुश कि सरकार में रह कर जीना मुश्किल करने वाले कई हार गए. चुनाव आयोग खुश कि कम से कम ईवीएम के सिर किसी ने ठीकरा नहीं फोड़ा.
मजाक एक तरफ, हरियाणा के इस चुनाव ने राजनीतिक पार्टियों को बहुत सारे सबक दे दिए हैं. राजनीति के पंडित अभी सिर्फ बीजेपी के लिए सबक ढूंढ रहे हैं, ढूंढने भी चाहिए, क्योंकि सरकार उन्हीं की थी. लेकिन लोकतंत्र की बेहतरी के लिए जरूरी है कि हर वो राजनीतिक पार्टी, जिसे जनता ने पूरी तरह सरकार चलाने लायक सीटें नहीं दीं– बैठ कर मंथन करे कि उनसे कहां कमी रह गई.
बीजेपी के बडे-बड़े मंत्रियों का हार जाना इस बात की तसदीक करता है कि पार्टी और मनोहर सरकार पिछले पांच साल में जनता से वो रिश्ता नहीं बना पाई, जिसके बलबूते पार्टी ने गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में तीन-तीन बार चुनाव जीते और सरकारें चलाईं. बीजेपी को बेशक इस बात का फायदा मिला कि उसके मुख्यमंत्री की छवि साफ-सुथरी थी, लेकिन मंत्री? मंत्रियों की जनता से दूरी का नुकसान, सरकार को चुनाव में उठाना पड़ा. सरकार के सलाहकारों ने उन्हें इस बात की हवा तक नहीं लगने दी कि अंदरखाने जनता में उनके खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है. लोकसभा चुनाव के नतीजों की बढ़त पर सवार पार्टी ने जब 75 पार का नारा लगाया, तब भी नेतृत्व को किसी ने नहीं समझाया कि ज़मीन पर हालात कुछ और हैं. जबकि हरियाणा को जमीनी तौर पर समझने वाले कई पत्रकार भी इस बात को महसूस कर पा रहे थे कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल और मंत्री अनल विज की सीट को छोड़कर, किसी सीट पर जीत की गारंटी जनता नहीं दे रही थी. कहीं भी उलटफेर संभव था. रही सही कसर, टिकट बंटवारे में मची खींचतान ने पूरी कर दी. बीजेपी नेतृत्व को टिकट बंटवारे में अपने-पराए का फर्क समझना होगा. पैराशूट वाले स्टार उम्मीदवार प्रचार रैलियों में भीड़ भले जुटा लेते हों, वोट पा जाएंगे इसकी गारंटी नहीं होते.
भूपिंदर सिंह हुड्डा ने एक बार फिर ये साबित कर दिया कि हरियाणा की राजनीति पर उनकी पकड़, कांग्रेस पार्टी से ज़्यादा है. शायद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस बात का अंदाज़ा था. इसीलिए चुनाव के ऐन पहले, राहुल गांधी के विश्वासपात्र अशोक तंवर की बलि चढ़ा कर भी पार्टी ने हुड्डा को कमान सौंपी. लेकिन देर से सौंपी. कांग्रेस, यूपीए सरकार के आखरी दौर में जिस बीमारी की चपेट में आ गई थी, उसे नाम दिया गया था – पॉलिसी पैरालिसिस. यानी निर्णय लेने के स्तर पर ढिलाई. हुड्डा के मामले में यही हुआ. समय रहते उनको कमान दे दी गई होती या टिकट बंटवारे में उनका वजन ज़्यादा होता, तो शायद कांग्रेस की स्थिति और बेहतर हो गई होती. ज़्यादातर राज्यों में कांग्रेस अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस न हो कर, हुड्डा कांग्रेस, अमरिंदर कांग्रेस, गहलोत कांग्रेस या कमलनाथ कांग्रेस हो गई है. या तो कांग्रेस को हर राज्य में से क्षत्रप खड़े करने पड़ेंगे जो पार्टी आलाकमान की छाया से बाहर – अपनी पहचान रखते हों, या केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर गांधी परिवार के बाहर कोई विकल्प तलाशना पड़ेगा जो संगठन को फिर से खडा कर सकता हो.
ओमप्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल सबसे बुरे दौर से गुज़र रही है. चौटाला परिवार चाहे तो इस बात से खुश हो सकता है कि दुष्यंत चौटाला ने पार्टी भले ही नई बना ली हो, है तो चौधरी देवीलाल का खून ही. लेकिन मौजूदा दौर में परिस्थितियां ऐसी लगती नहीं हैं. इस चुनाव के नतीजे ने एक बात का इशारा दे दिया है, हरियाणा के लोगों ने इनेलो के विकल्प के तौर पर इकतीस साल के दुष्यंत चौटाला की अगुवाई वाली जननायक जनता पार्टी को अपनी सहमति दे दी है. दस महीने पहले बनी पार्टी को दस सीटों पर मिली जीत इस बात का इशारा करती है कि देवीलाल की राजनीतिक विरासत हरियाणा की जनता, दुष्यंत और दिग्विजय जैसे युवा नेताओं को सौंपना चाहती है.
लेकिन दुष्यंत चौटाला, इंडियन नेशनल लोकदल के मुकाबले हुड्डा परिवार के राजनीतिक वारिस के लिए ज़्यादा बड़ी चुनौती साबित होंगे. हरियाणा की जाट राजनीति में, दीपेंद्र हुड्डा एक लोकसभा चुनाव जीतने के बाद से लगातार सक्रिय हैं. लेकिन इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को तीस सीटों पर मिली जीत का श्रेय उनको नहीं, बल्कि उनके पिता को जाएगा. जबकि दुष्यंत चौटाला, परिवार की छत्रछाया से बाहर से निकल अपने आप को साबित करने में कामयाब रहे हैं. मगर रेस में लंबा दौड़ने के लिए उनको सावधानी बरतनी होगी.
कई बार जब बाज़ार में कोई सामान बिकना बंद हो जाए, तो उसकी पैकेजिंग यानी रंग रूप बदल दिया जाता है. मुगालते में ही सही, जनता कुछ दिन तक उसे बरत लेती है. लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं चलता. अगर दुष्यंत चौटाला की अगुवाई वाली जननायक जनता पार्टी, ओम प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल की बदली हुई पैकेजिंग मात्र है, तो वो बहुत दूर तक शायद न चल पाएं.
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