हेमंत सोरेन (Hemant Soren) की मुश्किलें भी वैसी ही हैं, जैसी देश के ज्यादातर बीजेपी विरोधी मुख्यमंत्रियों के सामने हैं. लिहाजा वो भी संभावित उपायों के जरिये मुकाबले की हर संभव कोशिश कर रहे हैं - देखना है लड़ाई में वो नीतीश कुमार की तरह जीत जाते हैं या फिर उद्धव ठाकरे की तरह उनकी शिकस्त होती है?
अपनी सरकार पर संकट का दावा तो अरविंद केजरीवाल भी कर रहे थे, लेकिन अब उनका दावा है कि आम आदमी पार्टी के विधायकों ने बीजेपी का आपरेशन लोटस फेल कर दिया है. अरविंद केजरीवाल ने भी अशोक गहलोत की ही तरह विधानसभा में विश्वास मत हासिल कर लिया है. जैसे अशोक गहलोत को किसी ने विश्वास मत हासिल करने के लिए नहीं कहा था, अरविंद केजरीाल के साथ भी बिलकुल वैसी ही स्थिति रही, लेकिन वो विश्वास प्रस्ताव पेश कर ही दम लिये.
इसी बीच झारखंड (Jharkhand Political Crisis) से खबर आयी है कि 5 सितंबर को एक दिन के लिए झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया है - क्या हेमंत सोरेन भी अरविंद केजरीवाल की तरह विश्वास मत हासिल करना चाहते हैं?
बीजेपी के निशाने पर होने की वजह से भले ही हेमंत सोरेन भी उसी छोर पर खड़े महसूस कर रहे हों, जहां कुछ दिन पहले उद्धव ठाकरे हुआ करते थे. लेकिन हेमंत सोरेन का मामला बिलकुल अलग है. हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर संकट है, सरकार पर नहीं. उद्धव ठाकरे के खिलाफ तो विधायकों ने ही बगावत कर डाली थी, हेमंत सोरेन के साथ अब तक तो विधायक बने हुए हैं.
वैसे अपने विधायकों बचाये रखने के लिए हेमंत सोरेन ने सरकार में गठबंधन साथी कांग्रेस से मदद भी ली है. गठबंधन के विधायकों को बीजेपी की बुरी नजर से बचाने के लिए हेमंत सोरेन पहले अपने ही यहां एक रिजॉर्ट में ले गये थे. फिर विधायकों को रायपुर शिफ्ट कर दिया गया. विधायकों को रायपुर भेजे जाने की वजह छत्तीसगढ़ में...
हेमंत सोरेन (Hemant Soren) की मुश्किलें भी वैसी ही हैं, जैसी देश के ज्यादातर बीजेपी विरोधी मुख्यमंत्रियों के सामने हैं. लिहाजा वो भी संभावित उपायों के जरिये मुकाबले की हर संभव कोशिश कर रहे हैं - देखना है लड़ाई में वो नीतीश कुमार की तरह जीत जाते हैं या फिर उद्धव ठाकरे की तरह उनकी शिकस्त होती है?
अपनी सरकार पर संकट का दावा तो अरविंद केजरीवाल भी कर रहे थे, लेकिन अब उनका दावा है कि आम आदमी पार्टी के विधायकों ने बीजेपी का आपरेशन लोटस फेल कर दिया है. अरविंद केजरीवाल ने भी अशोक गहलोत की ही तरह विधानसभा में विश्वास मत हासिल कर लिया है. जैसे अशोक गहलोत को किसी ने विश्वास मत हासिल करने के लिए नहीं कहा था, अरविंद केजरीाल के साथ भी बिलकुल वैसी ही स्थिति रही, लेकिन वो विश्वास प्रस्ताव पेश कर ही दम लिये.
इसी बीच झारखंड (Jharkhand Political Crisis) से खबर आयी है कि 5 सितंबर को एक दिन के लिए झारखंड विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया है - क्या हेमंत सोरेन भी अरविंद केजरीवाल की तरह विश्वास मत हासिल करना चाहते हैं?
बीजेपी के निशाने पर होने की वजह से भले ही हेमंत सोरेन भी उसी छोर पर खड़े महसूस कर रहे हों, जहां कुछ दिन पहले उद्धव ठाकरे हुआ करते थे. लेकिन हेमंत सोरेन का मामला बिलकुल अलग है. हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर संकट है, सरकार पर नहीं. उद्धव ठाकरे के खिलाफ तो विधायकों ने ही बगावत कर डाली थी, हेमंत सोरेन के साथ अब तक तो विधायक बने हुए हैं.
वैसे अपने विधायकों बचाये रखने के लिए हेमंत सोरेन ने सरकार में गठबंधन साथी कांग्रेस से मदद भी ली है. गठबंधन के विधायकों को बीजेपी की बुरी नजर से बचाने के लिए हेमंत सोरेन पहले अपने ही यहां एक रिजॉर्ट में ले गये थे. फिर विधायकों को रायपुर शिफ्ट कर दिया गया. विधायकों को रायपुर भेजे जाने की वजह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार होना है.
हालांकि, JMM विधायक लोबिन हेम्ब्रम के सवाल उठाये जाने पर मंत्रियों को बुलाया भी जाने लगा है. विधायक का सवाल था कि क्या सरकार को अपने सिस्टम पर भरोसा नहीं है? विधायक के सवाल की वजह से हेमंत सोरेन का भी रायपुर दौरे का कार्यक्रम प्रभावित हुआ है.
ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के मामले में चुनाव आयोग ने झारखंड के राज्यपाल (Governor) रमेश बैस को अपनी सिफारिश भेज दी - और फिर राज्यपाल के फैसले का इंतजार होने लगा. हफ्ते भर से चर्चा ये होने लगी कि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा की सदस्यता रद्द कर दी है.
ऐसे में ये भी कहा जाने लगा कि हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे सकते हैं. अब बताया जा रहा है कि हेमंत सोरेन के इस्तीफा देने का फैसला होल्ड हो गया है - और ये सत्ताधारी गठबंधन के प्रतिनिधिमंडल के राज्यपाल से मुलाकात के बाद फैसला लिया गया है.
राज्यपाल को घेरने की कोशिश
झारखंड में सत्ताधारी गठबंधन के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल से मिल कर हेमंत सोरेन की सदस्यता को लेकर अपडेट सार्वजनिक करने की अपील की है. हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं के मुताबिक, राज भवन की तरफ से बताया गया है कि दो दिन में पूरी स्थिति स्पष्ट कर दी जाएगी.
प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल को 5 पेज का ज्ञापन सौंपते हुए राज्यपाल के ऑफिस पर गंभीर आरोप लगाया है. ज्ञापन में कहा गया है, आपके कार्यालय से एक खास तथ्य के लीक होने की वजह से झारखंड में अस्थिरता का माहौल है... राजनीतिक तबके से लेकर प्रशासनिक जगत तक अनिश्चय की स्थिति बन गयी है.
अपनी शिकायत में हेमंत सोरेन के साथियों का कहना है कि 25 अगस्त से ही मीडिया में चर्चा है कि राज्यपाल ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की विधानसभा की सदस्यता रद्द कर दी है, लेकिन राजभवन से अब तक कोई औपचारिक जानकारी नहीं दी गयी है. ज्ञापन के साथ स्थानीय अखबारों की कटिंग भी दी गयी है. राज्यपाल से मुलाकात के बाद बाहर आने पर कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा ने मीडिया को बताया कि राजभवन की ओर से बताया गया है कि महामहिम राज्यपाल अभी कानूनी सलाह ले रहे हैं.
राज्यपाल को दिये गये पत्र में कई और भी बातें हैं. ये भी आरोप है कि राज भवन से आधिकारिक तौर पर सही जानकारी न दिये जाने की वजह से जनता की चुनी हुई झारखंड सरकार को अस्थिर करने की साजिशें भी चल रही हैं.
लगे हाथ ये भी बता दिया गया है कि हेमंत सोरेन की सदस्यता रद्द होने से सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है - मतलब, ज्यादा से ज्यादा मुख्यमंत्री बदल जाएगा, लेकिन गठबंधन सत्ता पर काबिज रहेगा. पत्र में कहा गया है, आपको मालूम है कि मुख्यमंत्री की सदस्यता रद्द होने का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है... क्योंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन को बहुमत हासिल है.
आगे जो भी हो, लेकिन अभी जो राजनीतिक हालात बने हुए हैं उसकी जिम्मेदारी तो हेमंत सोरेन ने राज्यपाल पर डाल ही दी है. राज्यपाल को कठघरे में खड़े करने का सीधा मतलब है, केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को चैलेंज करना.
हेमंत सोरेन मौजूदा राजनीतिक संकट से तो जूझ ही रहे हैं, पहले से ही उनके कई साथी केंद्रीय जांच एजेंसियों के निशाने पर हैं. ऐसे साथियों में मंत्री और विधायकों के अलावा कई नौकरशाह भी बताये जाते हैं.
यही वजह रही कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देवघर यात्रा के दौरान हेमंत सोरेन की मुलाकात में भावपक्ष पर ज्यादा ध्यान दिया गया. मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं की मुस्कुराहट को भी पढ़ने की कोशिश की गयी. ये भी देखा गया कि सिर्फ हेमंत सोरेन ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते नहीं थक रहे थे, बल्कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी झारखंड सरकार को लेकर कोई ऐसी वैसी बात नहीं कही.
हेमंत सोरेन की बातों से कुछ ऐसा लगा कि मोदी सरकार के सहयोग से वो झारखंड को आने वाले कुछ ही साल में चमका देंगे. अक्सर ये भी देखने को मिलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जब भी किसी गैर-बीजेपी शासन वाले राज्य के दौरे पर होते हैं भ्रष्टाचार से लेकर तमाम तरह के आरोप फटाफट जड़ देते हैं. हाल ही के तेलंगाना दौरे को देखें तो मोदी-शाह ने जो हाल कर रखा है, मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव सीधी लड़ाई के लिए अलग अलग राज्यों के मुख्यमंत्रियों और नेताओं से जा जाकर मिल रहे है. केसीआर की ऐसी ताजातरीन मुलाकात पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हुई है.
जैसी खबरें आ रही हैं, हेमंत सोरेन और उनकी टीम को ये तो तय लग रहा है कि सदस्यता नहीं बचने वाली है. राज्यपाल से प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात महज एक काउंटर अटैक की रणनीति लगती है - और ये भी मालूम चला है कि गठबंधन में नये मुख्यमंत्री की तलाश भी शुरू हो गयी है.
राबड़ी देवी जैसा प्रयोग चल नहीं पाएगा
हेमंत सोरेन के सामने अभी तो वैसी स्थिति नहीं है जैसे चारा घोटाले में फंसने के बाद लालू यादव की हो गयी थी - और जेल जाने की सूरत में लालू यादव ने अपनी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया था.
एहतियाती तौर पर झारखंड में नये मुख्यमंत्री की जो तलाश शुरू हुई है उसमें सबसे ऊपर जो नाम है वो कल्पना सोरेन बताया जा रहा है. कल्पना सोरेन, हेमंत सोरेन की पत्नी हैं - अब सवाल ये है कि जब बड़े बड़े मुख्यमंत्री सर्वाइवल के लिए जूझ रहे हैं, कल्पना सोरेन कब तक टिकेंगी?
राबड़ी देवी जिस दौर में मुख्यमंत्री बनीं ऑपरेशन लोटस जैसा सामने न तो कोई चैलेंज था, न ही ऐसा कोई हौव्वा. जेल जाने से पहले लालू यादव ने हर संभव पुख्ता इंतजाम कर दिया था. सीनियर, करीबी और भरोसेमंद नेताओं से लेकर अफसरों तक की मजबूत टीम बना दी थी - और राबड़ी देवी को उनके मशविरे के बगैर न तो कुछ बोलने की सलाह दी गयी थी, न कहीं दस्तखत करने की.
अगर कल्पना सोरेन भी राबड़ी देवी की तरह झारखंड की सत्ता संभालती हैं तो उनके सामने चुनौतियों का अंबार लग सकता है. ये ठीक है कि उनकी मदद के लिए हेमंत सोरेन विधानसभा तो नहीं, लेकिन बाकी समय साथ तो होंगे ही - लेकिन अनुभव न होने की वजह से रोजाना की राजनीतिक मुश्किलों से वो कैसे निबट पाएंगी, आशंका इसी बात को लेकर है.
ऐसे दौर में जब गलाकाट राजनीतिक प्रतियोगिता में उद्धव ठाकरे जैसा नेता चूक जाते है. बचपन से जानने मानने वाले शिवसैनिक रातोंरात साथ छोड़ देते हैं. और जिस शिवसेना विधायक पर वो आंख मूंद कर भरोसा करते रहे वो पलटी मार कर खुद मुख्यमंत्री बन जाता है.
जब नीतीश कुमार जैसे धुरंधर राजनीतिज्ञ को कुर्सी बचाने के लिए नया पैंतरा लेना पड़ता है. जिस तेजस्वी यादव को भ्रष्टाचार के आरोप लगने पर छोड़ दिये थे, उसे ही फिर से साथ लेकर काम करना पड़ता है. नीतीश कुमार के लिए तब भी तेजस्वी यादव का मुद्दा तो हाथी दांत जैसा ही था, असल में तो वो लालू यादव के दखल से परेशान हो उठे थे. और एक बार फिर वो लालू यादव के ही दबाव में एक ऐसे विधायक को मंत्री पद की शपथ उसी दिन दिलाने को मजबूर होते हैं जिस पर अपहरण का आरोप लगा होता है - और बीजेपी के निशाने पर आ जाते हैं. वैसे कार्तिकेय सिंह ने इस्तीफा दे दिया है.
बीजेपी विरोध की राजनीति करने वालों के लिए फिलहाल इतनी मुश्किल है, जिसका एहसास कल्पना सोरेन को दफ्तर पहुंचते ही होने लगेगा. अब तक तो वो बाहर से ही देख रही होंगी कि कैसे हेमंत सोरेन ही नहीं, अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसी नेता कदम कदम पर राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं - जो हालात हैं कल्पना सोरेन की संभावित राह राबड़ी देवी से कहीं ज्यादा मुश्किल लग रही है.
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