13 मार्च 2018, मंगलवार की रात दिल्ली के 10 जनपथ पर जो हुआ, उसने भाजपा को सोचने पर मजबूर जरूर किया होगा. यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के घर 20 राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को रात के खाने का न्योता दिया गया था. न्योता भले ही खाने का था, लेकिन मंशा मोदी के खिलाफ एकजुट होने की थी. तब तक ये बात तो हर कोई समझ चुका था कि भाजपा को सत्ता से बाहर करना काफी मुश्किल हो गया है, लेकिन सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर महागठबंधन बनाने की शुरुआत की.
डिनर डिप्लोमेसी करने वाली सोनिया गांधी ये बात भांप चुकी थीं कि अगर सभी एकजुट नहीं हुए तो मोदी का बाल भी बांका नहीं कर पाएंगे. शुरुआती कोशिश रंग लाती भी दिखी और उस न्योते में माकपा, भाकपा, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, सपा, जेडीएस, राजद समेत 20 राजनीतिक पार्टियों के नेता पहुंचे थे. लेकिन इस महागठबंधन को झटका भी पहले ही दिन से लगना शुरू हो गया था, क्योंकि ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और मायावती जैसे बड़े नेता नहीं पहुंच. बावजूद इसके, एक उम्मीद थी कि शायद आने वाले समय में आपसी सहमति से सभी विरोधी पार्टियां मोदी के खिलाफ एकजुट होकर चुनाव लड़ें. देखते ही देखते एक साथ खड़े सभी नेताओं की खींची गई तस्वीर तक सोशल मीडिया पर छा गई. समय बीतता गया और जो बचे-खुचे लोग एकजुट थे, वो भी इधर-उधर होने लगे. अब लोकसभा चुनाव आ गए हैं और महागठबंधन की एकजुटता बिखरी हुई सी साफ दिख रही है.
आपस में काट रहे हैं एक दूसरे के वोट
बात भले ही सपा-बसपा की हो, ममता बनर्जी की हो या फिर खुद राहुल गांधी की क्यों ना हो. यूं लग रहा है कि सबका एटिट्यूड ही महागठबंधन के आड़े आया है. सपा-बसपा पहले ही ये मान चुकी हैं कि यूपी में उन्हें जीतने...
13 मार्च 2018, मंगलवार की रात दिल्ली के 10 जनपथ पर जो हुआ, उसने भाजपा को सोचने पर मजबूर जरूर किया होगा. यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के घर 20 राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को रात के खाने का न्योता दिया गया था. न्योता भले ही खाने का था, लेकिन मंशा मोदी के खिलाफ एकजुट होने की थी. तब तक ये बात तो हर कोई समझ चुका था कि भाजपा को सत्ता से बाहर करना काफी मुश्किल हो गया है, लेकिन सोनिया गांधी ने आगे बढ़कर महागठबंधन बनाने की शुरुआत की.
डिनर डिप्लोमेसी करने वाली सोनिया गांधी ये बात भांप चुकी थीं कि अगर सभी एकजुट नहीं हुए तो मोदी का बाल भी बांका नहीं कर पाएंगे. शुरुआती कोशिश रंग लाती भी दिखी और उस न्योते में माकपा, भाकपा, तृणमूल कांग्रेस, बसपा, सपा, जेडीएस, राजद समेत 20 राजनीतिक पार्टियों के नेता पहुंचे थे. लेकिन इस महागठबंधन को झटका भी पहले ही दिन से लगना शुरू हो गया था, क्योंकि ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और मायावती जैसे बड़े नेता नहीं पहुंच. बावजूद इसके, एक उम्मीद थी कि शायद आने वाले समय में आपसी सहमति से सभी विरोधी पार्टियां मोदी के खिलाफ एकजुट होकर चुनाव लड़ें. देखते ही देखते एक साथ खड़े सभी नेताओं की खींची गई तस्वीर तक सोशल मीडिया पर छा गई. समय बीतता गया और जो बचे-खुचे लोग एकजुट थे, वो भी इधर-उधर होने लगे. अब लोकसभा चुनाव आ गए हैं और महागठबंधन की एकजुटता बिखरी हुई सी साफ दिख रही है.
आपस में काट रहे हैं एक दूसरे के वोट
बात भले ही सपा-बसपा की हो, ममता बनर्जी की हो या फिर खुद राहुल गांधी की क्यों ना हो. यूं लग रहा है कि सबका एटिट्यूड ही महागठबंधन के आड़े आया है. सपा-बसपा पहले ही ये मान चुकी हैं कि यूपी में उन्हें जीतने से कोई नहीं रोक सकता, इसीलिए तो कांग्रेस को भी अपने गठबंधन में शामिल नहीं किया, जबकि आरएलडी को कर लिया. यहां ये बात समझनी जरूरी थी कि यूपी में भाजपा के खिलाफ पड़ने वाले सभी वोट एक जगह पड़ने चाहिए, ना कि आपस में ही कटने चाहिए. यूपी में इस लोकसभा चुनाव में यही होगा, भाजपा के खिलाफ पड़ने वाले वोट कांग्रेस और सपा-बसपा-आरएलडी के गठबंधन में बंटेंगे, जिसका सीधा फायदा मोदी सरकार को होगा. ममता बनर्जी ने भी शुरुआत से ही ये साफ कर दिया था कि वह कांग्रेस के साथ नहीं आएंगी और नतीजा ये हुआ कि पश्चिम बंगाल में जिस भाजपा के पास पैर रखने की जगह नहीं थी, उसने अपनी जमीन बनानी शुरू कर दी है.
अरविंद केजरीवाल की ओर से राहुल गांधी को पहले दिल्ली में गठबंधन का ऑफर मिला, फिर हरियाणा में भी गठबंधन करने का ऑफर दिया गया, लेकिन वह नहीं माने. यूं लग रहा है जैसे राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में मिली जीत कांग्रेस के सिर चढ़ गई है, तभी तो राहुल गांधी ओवरकॉन्फिडेंट नजर आने लगे हैं. राहुल गांधी को तो विपक्ष को एकजुट करने की जिम्मेदारी निभानी चाहिए थी, लेकिन वह खुद ही केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़ने जा पहुंचे और अपनी पुरानी सहयोगी लेफ्ट के खिलाफ खड़े हो गए हैं.
कमजोर विरोधी ही मोदी की ताकत
2014 के चुनावों में मोदी लहर चली और सब कुछ बहाकर ले गई. लेकिन पिछले 5 सालों में लोगों का विश्वास मोदी सरकार पर थोड़ा डगमगाया जरूर है, जिसे विरोधियों को मिलकर भुनाना चाहिए था, लेकिन वो तो आपस में ही लड़ रहे हैं. ये कमजोर विरोधी ही पीएम मोदी और भाजपा की असली ताकत हैं. टाइम्स नाऊ-वीएमआर के ओपिनियन पोल में तो भाजपा को 279 सीटें मिलने की संभावना भी जता दी गई है. वहीं यूपीए को 149 और अन्य सभी पार्टियों को 115 सीटें मिलने का अनुमान है. इन आंकड़ों से भी ये बात साफ है कि अगर सारे विरोधी एक साथ मिल जाते तो मोदी सरकार को कड़ी टक्कर दे सकते थे और मुमकिन था कि जीत भी जाते, लेकिन अफसोस, अब जीत का लड्डू भाजपा के हिस्से में ही जाएगा.
महागठबंधन की राह में मुश्किलें कम नहीं हैं, इस बात का अंदाजा भी सोनिया गांधी को पहले से ही था. उन्होंने माना था कि विपक्ष की पार्टियां धरातल पर एक दूसरे की विरोधी रही हैं. लेकिन सपा-बसपा के गठबंधन को यूपी के फूलपुर और गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में जीत हासिल होना ये दिखा चुका था कि विरोधी पार्टियां अगर साथ मिल जाएं तो भाजपा से लोहा लिया जा सकता है. खैर, सोनिया गांधी की कोशिश फिलहाल घुटने टेक चुकी है. कांग्रेस ने कुछ अन्य पार्टियों से गठबंधन तो किए हैं, लेकिन पूरे विपक्ष को साथ लेकर चलने और एकजुट करने की जिम्मेदारी निभाने में राहुल गांधी फेल हो गए हैं. अब 21 मई को आने वाले चुनाव परिणाम में 'मोदी-मोदी' के नारे लगना तय ही समझिए, क्योंकि मोदी सरकार को सत्ता से हटाने का सिर्फ एक ही रास्ता था- गठबंधन, जो अब नहीं रहा.
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