हिमाचल प्रदेश में भाजपा को कांग्रेस ने नहीं भाजपा ने ही हरा दिया. यूं समझिए कि भगवा सरकार की वापसी होते-होते रह गई. कांग्रेस यहां भाजपा के खिलाफ कोई मुद्दा नहीं बना पाई थी. इसे ऐसे समझें कि पहाड़ी राज्य में सरकारी कर्मचारी हमेशा से बड़ा चुनावी मुद्दा रहते हैं. नतीजों को प्रभावित करते हैं. लेकिन मौजूदा चुनाव में हताशा में डूबी कांग्रेस की नजर उनपर चुनाव से पहले जा भी नहीं पाई थी. यूं भी समझ सकते हैं कि जयराम ठाकुर सरकार ने मौका ही नहीं दिया था इस बार. तो कांग्रेस को पहले से ही पता था कि पहाड़ी राज्य का ट्रेंड इस बार बदलने जा रहा है. यही वजह है कि उसके बड़े नेताओं ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
बहुत आलोचनाओं के बाद बिल्कुल आख़िरी में प्रियंका गांधी वाड्रा मैदान में उतरीं थीं. उन्होंने महज 4 सभाएं की. समझा जा सकता है कि भाजपा से सीधी लड़ाई करने वाली पार्टी के शीर्ष नेता ने सिर्फ 4 सभाएं क्यों कीं? पार्टी के दूसरे बड़े नेता इतने गंभीर थे कि चुनाव में काम करने की बजाए भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ फोटो खिंचाने पहुंचे. हिमाचल में कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व की भूमिका को लेकर आइचौक पर एक अलग विश्लेषण पढ़ने को मिलेगा. मगर उससे पहले पहाड़ी राज्य में भाजपा को किन चीजों से नुकसान पहुंचा समझ लेते हैं. असल में देखें तो भाजपा के लिहाज से हिमाचल में कुछ नया नहीं हुआ है.
हिमाचल में कुछ नया नहीं हुआ, यूपी पैटर्न दिखा, मगर...
पहाड़ी राज्य में वोटिंग से पहले वह सबकुछ हुआ जो यूपी के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था. यूपी में पार्टी के ही एक धड़े ने भितरघात की भरपूर कोशिश की. फर्क बस यह रहा कि यूपी में चीजों को सतह पर नहीं आने दिया गया था. और इसका असर रहा कि नुकसान बहुत मामूली हुए. लेकिन...
हिमाचल प्रदेश में भाजपा को कांग्रेस ने नहीं भाजपा ने ही हरा दिया. यूं समझिए कि भगवा सरकार की वापसी होते-होते रह गई. कांग्रेस यहां भाजपा के खिलाफ कोई मुद्दा नहीं बना पाई थी. इसे ऐसे समझें कि पहाड़ी राज्य में सरकारी कर्मचारी हमेशा से बड़ा चुनावी मुद्दा रहते हैं. नतीजों को प्रभावित करते हैं. लेकिन मौजूदा चुनाव में हताशा में डूबी कांग्रेस की नजर उनपर चुनाव से पहले जा भी नहीं पाई थी. यूं भी समझ सकते हैं कि जयराम ठाकुर सरकार ने मौका ही नहीं दिया था इस बार. तो कांग्रेस को पहले से ही पता था कि पहाड़ी राज्य का ट्रेंड इस बार बदलने जा रहा है. यही वजह है कि उसके बड़े नेताओं ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
बहुत आलोचनाओं के बाद बिल्कुल आख़िरी में प्रियंका गांधी वाड्रा मैदान में उतरीं थीं. उन्होंने महज 4 सभाएं की. समझा जा सकता है कि भाजपा से सीधी लड़ाई करने वाली पार्टी के शीर्ष नेता ने सिर्फ 4 सभाएं क्यों कीं? पार्टी के दूसरे बड़े नेता इतने गंभीर थे कि चुनाव में काम करने की बजाए भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ फोटो खिंचाने पहुंचे. हिमाचल में कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व की भूमिका को लेकर आइचौक पर एक अलग विश्लेषण पढ़ने को मिलेगा. मगर उससे पहले पहाड़ी राज्य में भाजपा को किन चीजों से नुकसान पहुंचा समझ लेते हैं. असल में देखें तो भाजपा के लिहाज से हिमाचल में कुछ नया नहीं हुआ है.
हिमाचल में कुछ नया नहीं हुआ, यूपी पैटर्न दिखा, मगर...
पहाड़ी राज्य में वोटिंग से पहले वह सबकुछ हुआ जो यूपी के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला था. यूपी में पार्टी के ही एक धड़े ने भितरघात की भरपूर कोशिश की. फर्क बस यह रहा कि यूपी में चीजों को सतह पर नहीं आने दिया गया था. और इसका असर रहा कि नुकसान बहुत मामूली हुए. लेकिन पहाड़ी राज्य में बिल्लियों का झगड़ा सार्वजिनक हो गया. बिल्कुल पड़ोसियों के झगड़े की तरह. प्रधानमंत्री तक को हस्तक्षेप करना पड़ा. जेपी नड्डा, पार्टी के अध्यक्ष बनें तो गृहराज्य हिमाचल में उनपर मनमानियों के आरोप लगने शुरू हो गए. नड्डा का कोई जनाधार नहीं था हिमाचल में. बावजूद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष की हैसियत से जनाधार वाले स्थानीय नेताओं के प्रति ईमानदार नहीं दिखाई. इसके पीछे क्या था वही बेहतर बता सकते हैं. भाजपा के और भी कुछ नेताओं में सत्ता संघर्ष साफ़ नजर आया. प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर की भूमिका तो संदेहास्पद है.
उपचुनाव के दौरान दिखे झगड़े को नजरअंदाज क्यों किया गया?
दोनों नेता जयराम ठाकुर की ताजपोशी के वक्त से परेशान थे और अंदरुनी विरोध कर रहे थे. वे नहीं चाहते थे कि जयराम जीतकर आएं. हिमाचल का उपचुनाव याद ही होगा. इसी भितरघात और गुटबाजी की वजह से बीजेपी को उपचुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा था. लेकिन पार्टी ने समय रहते उसे गंभीरता से नहीं लिया. बावजूद कि पार्टी फोरम पर प्रमुखता से मुद्दा उठा और एक सहमति भी बनी. लगा कि धूमल और अनुराग ठाकुर शांत हो चुके हैं. मगर टीम वर्क के लिहाज से विधानसभा चुनाव में उनका अपेक्षित सहयोग कहानी के दूसरे सिरे को समझाने के लिए पर्याप्त है. उन्होंने वाजिब मेहनत नहीं की जितनी की उनसे अपेक्षा थी. उनकी जिम्मेदारी भी थी. वे कांटे की लड़ाई को निर्णायक बनाने में सक्षम थे.
हिमाचल में भाजपा का यह झगड़ा आज का नहीं है. पांच साल से पार्टी के अंदर वर्चस्व को लेकर आतंरिक घमासान मचा हुआ है. तस्वीर अब दिल्ली तक ज्यादा साफ़ और ज्यादा स्पष्ट है. चुनाव से पहले भी पार्टी के पूर्व उपाध्यक्ष और पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार ने नड्डा पर आरोप लगाए थे कि वे लगातार अपमान कर रहे हैं. केंद्रीय नेतृत्व को अंधेरे में रखे हुए हैं. कार्यकर्ताओं की नहीं सुन रहे और केंद्रीय नेतृत्व को मनमानी रिपोर्ट दे रहे हैं. एक लॉबी के इशारे पर संबंधित नेता का टिकट काटा भी गया. बावजूद नड्डा एंड कंपनी के विरोध में उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पर्चा भरा. भाजपा के केंद्रीय नेताओं ने उनसे नाम वापसी के लिए आग्रह किया मगर उन्होंने मना कर दिया. हालांकि उन्होंने पार्टी और मोदी के नेतृत्व में सार्वजनिक आस्था जताई और साफ़ किया कि वे हर हाल में चाहते हैं कि फिर से भाजपा की सरकार बनें. दूसरे बागियों की राय भी यही थी.
भाजपा के बागियों का असर देख लीजिए, हार की वजह पता चल जाएगी
सिर्फ परमार ही नहीं बल्कि 17 नेताओं ने टिकट वितरण को लेकर बगावती तेवर दिखाए. बहुत सारे बागी नेता नड्डा के व्यवहार से खिन्न थे. नतीजों में दिख भी रहा है कि भाजपा को सिर्फ बगावत की भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. पार्टी के अंदर ही वर्चस्व की लड़ाई दिख रही है. पार्टी ने सोचा था कि चीजें वक्त के साथ थम गई हैं. लेकिन वह तूफ़ान से पहले का सन्नाटा था. यह भी समाने आ रहा कि भाजपा आतंरिक रूप से जिस तरह जूझ रही थी अगर मोदी ने वहां आक्रामक मोर्चा नहीं संभाला होता तो नतीजे और भयवाह होते. अगर प्रेम कुमार धूमल और अनुराग ठाकुर ने अपेक्षाओं के अनुरूप मेहनत की होती, नड्डा पर की गई शिकायतों का ध्यान रखा जाता तो शायद यही नतीजे आरपार की लड़ाई बन जाते और इतिहास में पहली बार हिमाचल का ट्रेंड बदल जाता.
अब आगे क्या?
हिमाचल में भाजपा जीतते-जीतते हारी है. पार्टी को यह बात पता है. हार जीत का अंतर और वोट शेयरिंग के आंकड़े आने के साथ चीजें और स्पष्ट होंगी. लेकिन इतना तय है कि भाजपा के अंदरखाने बड़े बदलाव का सबब बनेंगे नतीजे. जेपी नड्डा, प्रेम कुमार धूमल, अनुराग ठाकुर और तमाम बगावती नेता पार्टी के रडार पर होंगे. अब देखना है कि क्या पार्टी जिम्मेदारों पर कोई कार्रवाई करती है. नड्डा का कोई जनाधार नहीं है. उन्हें मोदी-शाह का करीबी माना जाता है. मगर उनपर जैसे सार्वजनिक आरोप लगे हैं वैसे आरोप किसी पार्टी अध्यक्ष पर अब तक नहीं लगाए गए हैं. यह गंभीर मसला है. भाजपा भितरघात करने वाले पार्टी के दूसरे नेताओं को भी सबक सिखा सकती है. हिमाचल के नतीजों से पार्टी के अंदर एक संदेश तो दिया जाएगा.
देखना यह है कि वह संदेश क्या होगा?
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