हिमंता बिस्व सरमा (Himanta Biswa Sarma) उन नेताओं के लिए रोल मॉडल बन गये हैं, जो अपनी मातृसंस्था छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर चुके हैं या फिर जहां भी हैं वहीं से ऐसा करने की सोच रहे हैं. वकालत के पेशे से 15 साल कांग्रेस और 5 साल बीजेपी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहने के बाद असम के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे, हिमंता बिस्व सरमा - सपनों के उड़ान का खुशनुमा एहसास लगते हैं, सपनों को हकीकत में बदलने वाली कामयाबी की दास्तां लगते हैं - और अपने जैसे तमाम नेताओं के लिए उम्मीदों की नयी किरण बिखेर रहे हैं.
हिमंता बिस्व सरमा निराश हो चुके मुकुल रॉय और टॉम वडक्कन जैसे नेताओं का आत्मविश्वास बढ़ाने वाली शख्सियत बन गये हैं. शुभेंदु अधिकारी और हाल फिलहाल बीजेपी ज्वाइन करने वाले नेताओं के लिए वो आशा की किरण नजर आ रहे होंगे - और बकाये के भुगतान का बेसब्री से इंतजार कर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं के लिए सकारात्मक सोच की वजह बन गये हैं.
ऐसा भी नहीं कि हिमंता बिस्व सरमा को बैठे बिठाये अच्छे कर्मों को फल मिल गया है, बल्कि उसके लिए सरमा ने साम, दाम, दंड और भेद जैसे सियासी हथियारों और औजारों की बदौलत अपना हक और हिस्सा हासिल किया है.
मान लेते हैं कि देर से ही सही, हिमंत बिस्व सरमा को बीजेपी से एक्सचेंज ऑफर में ही मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है, लेकिन बीजेपी भी कोई कच्ची गोटी तो खेलती नहीं - कुछ भी करने से पहले सौ बार सोच विचार होती है और तब कहीं जाकर तमाम पेंच फंसाते हुए ऐसे फैसले लिये जाते हैं जिनसे प्रभावित होने वाले को फायदा मिले न मिले - एक उम्मीद जरूर बन जाये कि कभी न कभी फायदा मिल तो सकता ही है.
ऐसा लगता है हिमंता बिस्व सरमा, बीजेपी के 'अच्छे दिनों...' के लेटेस्ट वर्जन वाले पॉलिटिकल-टूल-किट के सैंपल के तौर पर पेश किये गये हैं - अब तो ये भी लगता है कि मोदी-शाह (Modi & Shah) के नये एक्शन प्लान (BJP New Political Strategy) से बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों में नये सिरे से भारी तोड़-फोड़ की आशंका तेज रफ्तार...
हिमंता बिस्व सरमा (Himanta Biswa Sarma) उन नेताओं के लिए रोल मॉडल बन गये हैं, जो अपनी मातृसंस्था छोड़ कर बीजेपी ज्वाइन कर चुके हैं या फिर जहां भी हैं वहीं से ऐसा करने की सोच रहे हैं. वकालत के पेशे से 15 साल कांग्रेस और 5 साल बीजेपी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहने के बाद असम के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे, हिमंता बिस्व सरमा - सपनों के उड़ान का खुशनुमा एहसास लगते हैं, सपनों को हकीकत में बदलने वाली कामयाबी की दास्तां लगते हैं - और अपने जैसे तमाम नेताओं के लिए उम्मीदों की नयी किरण बिखेर रहे हैं.
हिमंता बिस्व सरमा निराश हो चुके मुकुल रॉय और टॉम वडक्कन जैसे नेताओं का आत्मविश्वास बढ़ाने वाली शख्सियत बन गये हैं. शुभेंदु अधिकारी और हाल फिलहाल बीजेपी ज्वाइन करने वाले नेताओं के लिए वो आशा की किरण नजर आ रहे होंगे - और बकाये के भुगतान का बेसब्री से इंतजार कर रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं के लिए सकारात्मक सोच की वजह बन गये हैं.
ऐसा भी नहीं कि हिमंता बिस्व सरमा को बैठे बिठाये अच्छे कर्मों को फल मिल गया है, बल्कि उसके लिए सरमा ने साम, दाम, दंड और भेद जैसे सियासी हथियारों और औजारों की बदौलत अपना हक और हिस्सा हासिल किया है.
मान लेते हैं कि देर से ही सही, हिमंत बिस्व सरमा को बीजेपी से एक्सचेंज ऑफर में ही मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है, लेकिन बीजेपी भी कोई कच्ची गोटी तो खेलती नहीं - कुछ भी करने से पहले सौ बार सोच विचार होती है और तब कहीं जाकर तमाम पेंच फंसाते हुए ऐसे फैसले लिये जाते हैं जिनसे प्रभावित होने वाले को फायदा मिले न मिले - एक उम्मीद जरूर बन जाये कि कभी न कभी फायदा मिल तो सकता ही है.
ऐसा लगता है हिमंता बिस्व सरमा, बीजेपी के 'अच्छे दिनों...' के लेटेस्ट वर्जन वाले पॉलिटिकल-टूल-किट के सैंपल के तौर पर पेश किये गये हैं - अब तो ये भी लगता है कि मोदी-शाह (Modi & Shah) के नये एक्शन प्लान (BJP New Political Strategy) से बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों में नये सिरे से भारी तोड़-फोड़ की आशंका तेज रफ्तार पकड़ने वाली है.
बीजेपी के टूल किट में क्या क्या हो सकता है
आइये अब ये समझने की कोशिश करें कि बीजेपी के लेटेस्ट पॉलिटिकल टूल किट में और क्या क्या हो सकता है - और आने वाले दिनों में वे किस रूप में दिखायी पड़ सकते हैं -
1. ब्रांड मोदी पर निर्भरता कम करने की कोशिश मुमकिन है: आपको याद होगा दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद संघ के मुखपत्र में एक लेख छपा था - बाकी बातों के अलावा बीजेपी को दिये गये सुझावों का लब्बोलुआब यही था कि पार्टी को स्थानीय स्तर पर नेताओं की नयी पौध खुद ही तैयार करनी होगी - मोदी-शाह हैं तो चुनाव जिता ही देंगे, ऐसी मानसिकता को छोड़ कर आगे बढ़ना होगा.
2019 के आम चुनाव के बाद से देखें तो बिहार को छोड़ कर ब्रांड मोदी झारखंड और दिल्ली दोनों ही जगह पूरी तरह फेल रहा - रघुबर दास की हालत तो पहले से ही सबको मालूम थी. ये अमित शाह ब्रांड मोदी पर भरोसा ही था कि वो गठबंधन साथी सुदेश महतो की जरा भी परवाह करते नहीं दिखे और सरयू राय को भी घास नहीं डाली, लेकिन नतीजा क्या हुआ.
असम और पुदुचेरी को छोड़ दें तो बीजेपी को पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में ये कमी ठीक से महसूस हुई है - ऐसे में लगता है कि आगे से बीजेपी में राज्यों में संगठन को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश हो सकती है
2. एजेंडे में बदलाव किये जाने की भी संभावना बढ़ी हुई लगती है: बीजेपी का नेशनल एजेंडा और हिंदू-मुस्लिम संवाद तो असम में भी देखने को मिला ही, लेकिन पश्चिम बंगाल की हार से पार्टी को सबसे बड़ी सबक मिली होगी.
महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड से लेकर दिल्ली विधानसभा चुनावों तक बीजेपी की रैलियों में धारा 370, पाकिस्तान और राम मंदिर का बार बार जिक्र आता रहा, वो भी तब जबकि आम चुनाव से पहले ही बीजेपी राम मंदिर के नाम पर वोट न मांगने का फैसला कर चुकी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद फिर से सब शुरू हो गया.
पश्चिम बंगाल में मोदी-शाह और नड्डा सहित तमाम बीजेपी नेताओं ने कट मनी और तोलाबाजी जैसे स्थानीय मुद्दों को खूब उछाला, लेकिन ममता बनर्जी के बंगाली अस्मिता और बंगाल की बेटी बनाम बाहरी की लड़ाई में ढेर हो गये. बाद में ममता बनर्जी ने बंगाल के लोगों को वैक्सीन न मिलने और बीजेपी नेताओं की वजह से राज्य में कोरोना वायरस फैलने का बार बार जिक्र भी लोगों के मन में बैठ गया - निश्चित तौर पर बीजेपी नये सिरे से अपना एजेंडा तक करने के बारे में सोच सकती है.
3. विरोधी क्षेत्रीय नेताओं ताकत की पैमाइश के बाद ही आगे बढ़ने का फैसला लेगी: लगातार जीत किसी में भी जोश भर देती और फिर लोग विरोधी को कम करके आंकने लगते हैं - अरविंद केजरीवाल से लेकर ममता बनर्जी तक बीजेपी को क्षेत्रीय नेताओं की ताकत का एहसास चुनाव नतीजे आने के बाद ही हो रहा है.
ये वैसे ही है जैसे गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में आजमाने के लिए साथ आये मायावती और अखिलेश यादव को योगी आदित्यनाथ ने माना कि बीजेपी ने उनको जरा हल्के में ले लिया था.
हो सकता है बीजेपी भविष्य के विधानसभा चुनाव में विरोधी क्षेत्रीय नेता की हर चाल पर पूरा ध्यान दे और काफी सोच विचार के बाद ही आगे बढ़ने का फैसला करे - क्योंकि फिर सावधानी हटते ही दुर्घटना होगी ही.
4. आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी का CM फेस पर फोकस हो सकता है: बीजेपी को भी अब ये तो समझ आ ही रहा होगा कि पश्चिम बंगाल में अगर उसके पास मुख्यमंत्री का कोई चेहरा होता तो नतीजे अलग हो सकते थे.
ऐसा भी नहीं कि बीजेपी ने कोशिश नहीं की. सौरव गांगुली को लेकर तो मन बना ही लिया था, लेकिन उनकी तबीयत के चलते पीछे हट जाना पड़ा. चुनावों में मिथुन चक्रवर्ती का इस्तेमाल देख कर भले ही न लगा हो, लेकिन जिस तरह से संघ प्रमुख मोहन भागवत मिलने के लिए उनके घर तक चल कर पहुंचे थे, कैसे माना जाये कि बीजेपी मिथुन को लेकर कुछ बड़ा नहीं सोची होगी.
बीजेपी के पास पहले से ही दिलीप घोष थे और फिर नंदीग्राम में शुभेंदु अधिकारी भी मिल ही गये - क्या बीजेपी चाहती तो दोनों में से किसी एक को प्रोजक्ट नहीं कर सकती थी?
हिमंता बिस्व सरमा के असम के मुख्यमंत्री बनने से पहले तो नहीं, लेकिन अब तो लगता है कि बीजेपी आगे भूल सुधार जरूर करेगी. उत्तराखंड में एक्सपेरिमेंट तो पुराना शगल रहा है - और पंजाब में अकाली दल का साथ छूट जाने के बाद बीजेपी को नये सिरे से विचार करना होगा.
5. ओवैसी जैसे नेताओं को आजमाने से परहेज की जा सकती है: AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी को लेकर एक आम धारणा बन चुकी है कि हैदराबाद को छोड़ कर उनकी पूरी राजनीति बीजेपी के लिए मददगार ही होती है. ये तोहमत थोड़ा हल्का करने के लिए ही बीजेपी नेता अमित शाह हैदराबाद की सड़कों पर पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले पूरे लाव लश्कर के साथ उतरे थे.
बंगाल में जिस तरह से ओवैसी के सभी सातों उम्मीदवारों की जमानत जब्त हुई है, बिहार की जीत का जश्न भी फीका पड़ने लगा है. बिहार चुनाव के बाद से ही ओवैसी की पार्टी की हरकत यूपी में बढ़ी हुई थी, लेकिन लगता नहीं कि बीजेपी आगे भी ओवैसी पर ज्यादा भरोसा कर पाएगी.
नये जुमले गढ़े जाने की संभावना बढ़ गयी है
पिछले कई चुनावों से पहले बीजेपी नेतृत्व रजनीकांत पर डोरे डालता आ रहा है - हो सकता है बीजेपी भी बाकियों की तरह सोचती हो कि तमिलनाडु की राजनीति में सुपरस्टार रजनीकांत कुछ भी कर सकते हैं.
हाल के विधानसभा चुनाव से पहले भी जब अमित शाह का चेन्नई दौरा हुआ तो मीडिया रिपोर्ट में मुलाकातों को लेकर काफी खबरें रहीं - आखिरी खबर यही रही कि अमित शाह और रजनीकांत की मुलाकात नहीं हुई. हालांकि, ये जरूर बताया गया कि एक स्थानीय बीजेपी नेता ने मुलाकात कर बहुत सारी बातें की थी.
लेकिन कमल हासन का जो हाल चुनाव में तमिलनाडु के लोगों ने किया है, लगता है रजनीकांत अपने सुपर इन्ट्यूशन से बहुत पहले ही पता लगा चुके होंगे और तभी किसी तरह के पचड़े में पड़ने से पहले ही खुद को आइसोलेट कर लिया था. देखा जाये तो रजनीकांत ने साबित कर दिया है कि वो बीजेपी को कोई झूठी उम्मीद या आश्वासन नहीं देना चाहते थे - जैसा बीजेपी को किरण बेदी और ई. श्रीधरन की वजह से निराशा हाथ लगी.
2015 का दिल्ली चुनाव हारने के बाद बीजेपी नेतृत्व ने किरण बेदी को पुदुचेरी ले जाकर जैसे तैसे ऐडजस्ट तो कर लिया था, लेकिन चुनावों के ऐन पहले दिल पर पत्थर रख कर ही सही हटाने का फैसला करना पड़ा - और फायदा भी हुआ, किरण बेदी के पुदुचेरी छोड़ते ही बीजेपी ने केंद्र शासित क्षेत्र को कांग्रेस मुक्त भी कर ही दिया.
जैसे मुकुल रॉय को काफी इंतजार के बाद बीजेपी का उपाध्यक्ष बनाया गया - अब शुभेंदु अधिकारी को भी निराश होने की जरूरत नहीं है - बीजेपी की बंगाल में सरकार नहीं बनवा पाये तो क्या ममता को नंदीग्राम में शिकस्थ देने का गालिब ख्याल और उसको हकीकत में बदलना बुरा भी तो नहीं है.
देखा जाये तो बीजेपी ने दूसरे दलों से बीजेपी में आने को लेकर उधेड़बुन में पड़े लोगों को बीजेपी ने हिमंता बिस्व सरमा मॉडल के जरिये नये सिरे से खुला ऑफर दे दिया है. अब आओ और चिंता की बात नहीं. अब वास्तव में 'सबका साथ और सबका विकास होगा' - ये बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे हिंदुत्व के इर्द गिर्द ही नहीं सिमटा होगा और संघ वालों जैसी सुविधाएं अब हर किसी को मिलेगी. बस एक ही सवाल बचता है. बड़ा सवाल है. ये सारी सुविधाएं तात्कालिक तौर पर ही मिलेंगी - या स्थायी तौर पर?
ऐसी सुविधाएं आगे से बीजेपी ज्वाइन करते ही मिल जाएंगी - या हिमंता बिस्व सरमा की तरह पहले खुद की काबिलियत साबित करनी होगी और फिर हक की लड़कर ही सब कुछ हासिल करना होगा?
बाकी बातें अपनी जगह है, लेकिन एक बड़ी आशंका ये भी लगती है कि बीजेपी के ऑपरेशन लोटस का नया वैरिएंट - विपक्षी खेमे के राजनीति दलों में व्यापक स्तर पर तोड़ फोड़ मचा सकता है.
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