हाल के दिनों में हमारे देश की राजनीति में हिन्दू, मंदिर, कौन ज़्यादा हिन्दू, 'मैं भी हिन्दू' जैसे जुमलों की बौछार आयी हुई है. "कौन ज़्यादा हिन्दू'' प्रतियोगिता में नेताओं के बीच होड़ लगी हुई है. विकास की बात बाद में करेंगे पहले जनेऊ की लम्बाई नाप लेते हैं. भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के साथ ये बहुत ही प्राकृतिक सा लगता है, क्योंकि इनकी पूरी राजनीतिक विरासत ही हिंदुत्व के धरातल पर टिकी हुई है लेकिन जब कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा और राजद जैसी पार्टियां हिंदुत्व का चोला ओढ़ने की कोशिश करते हैं तो अनायास ही मन में एक सवाल उठता है आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
कल तक मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टियां आज ये अचानक से 'सॉफ्ट हिंदुत्व' का दामन क्यों थाम रही हैं. इसका जवाब तलाशने के लिए हमें संघ की उस विचारधारा को समझने की ज़रूरत है, जो कि एक राष्ट्रवादी संगठन के नाते ही इस देश की राजनीति का हिन्दुत्वीकरण करने का बीड़ा जो दशकों पहले उठाया था उसमें आज वो कहीं न कहीं सफल होती हुई दिख रही हैं.
गुजरात चुनाव से लेकर 'आल इंडिया कांग्रेस समिति' के सम्मलेन तक हिंदुत्व का भूत जो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर सवार हुआ है वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है. कभी मंदिर जाने का ढिंढोरा पीटना हो या जनेऊधारी ब्राह्मण होने का दावा पेश करना हो, अक्सर ही वो अपने छिपे हुए आस्तिकता की मार्केटिंग का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं. ये वही राहुल गांधी हैं जो कहा करते थे कि मंदिर जाने वाले ही लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं. तो फिर आज कैसे अचानक से इनके अंदर का हिंदुत्व जग गया और भक्ति भाव के सारे रिकॉर्ड को ध्वस्त कर रहा है, क्या राहुल गांधी को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो गयी?
जी हां राहुल गांधी को...
हाल के दिनों में हमारे देश की राजनीति में हिन्दू, मंदिर, कौन ज़्यादा हिन्दू, 'मैं भी हिन्दू' जैसे जुमलों की बौछार आयी हुई है. "कौन ज़्यादा हिन्दू'' प्रतियोगिता में नेताओं के बीच होड़ लगी हुई है. विकास की बात बाद में करेंगे पहले जनेऊ की लम्बाई नाप लेते हैं. भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना के साथ ये बहुत ही प्राकृतिक सा लगता है, क्योंकि इनकी पूरी राजनीतिक विरासत ही हिंदुत्व के धरातल पर टिकी हुई है लेकिन जब कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा और राजद जैसी पार्टियां हिंदुत्व का चोला ओढ़ने की कोशिश करते हैं तो अनायास ही मन में एक सवाल उठता है आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
कल तक मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टियां आज ये अचानक से 'सॉफ्ट हिंदुत्व' का दामन क्यों थाम रही हैं. इसका जवाब तलाशने के लिए हमें संघ की उस विचारधारा को समझने की ज़रूरत है, जो कि एक राष्ट्रवादी संगठन के नाते ही इस देश की राजनीति का हिन्दुत्वीकरण करने का बीड़ा जो दशकों पहले उठाया था उसमें आज वो कहीं न कहीं सफल होती हुई दिख रही हैं.
गुजरात चुनाव से लेकर 'आल इंडिया कांग्रेस समिति' के सम्मलेन तक हिंदुत्व का भूत जो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर सवार हुआ है वो उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है. कभी मंदिर जाने का ढिंढोरा पीटना हो या जनेऊधारी ब्राह्मण होने का दावा पेश करना हो, अक्सर ही वो अपने छिपे हुए आस्तिकता की मार्केटिंग का कोई मौका नहीं चूक रहे हैं. ये वही राहुल गांधी हैं जो कहा करते थे कि मंदिर जाने वाले ही लड़कियों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं. तो फिर आज कैसे अचानक से इनके अंदर का हिंदुत्व जग गया और भक्ति भाव के सारे रिकॉर्ड को ध्वस्त कर रहा है, क्या राहुल गांधी को ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो गयी?
जी हां राहुल गांधी को राजनीतिक ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो गयी है, अब इस देश में अगर सत्ता का सुख प्राप्त करना है तो 'हरे राम हरे कृष्ण' का जाप करना ही होगा. ऐसा नहीं है कि ये ज्ञान केवल उन्हीं को प्राप्त हुआ है. कभी 'जिहादी दीदी' का तमगा पसंद करने वाली ममता बनर्जी आजकल 'भगवद गीता' का ज्ञान बाट रहीं हैं. मुलायम सिंह यादव के सुपुत्र आज सैफई में भगवान श्री कृष्ण की सबसे ऊंची मूर्ति स्थापित कर रहे हैं. एक बात याद रखिए राजनेता बिना मकसद के एक साइकिल भी बाटना पसंद नहीं करते. चलिए कोई बात नहीं 'परिवर्तन संसार का नियम है'.
संघ का हिंदुत्व आज भारत में अपने स्वर्णिम काल के दौर से गुजर रहा है. सावरकर के हिंदुत्व के बजाए हेडगेवार के हिंदुत्व को आत्मसात करना ही तो संघ के सफलता की कुंजी के रूप में देखा जा सकता है. एक राजनीतिक पार्टी होने के नाते भारतीय जनता पार्टी अपने विरोधियों के इस 'सॉफ्ट हिंदुत्व' से चिंतित हो सकती हैं लेकिन एक हिन्दू समर्पित संगठन के नाते संघ के लिए इससे बड़ी खुशखबरी नहीं हो सकती. आज जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ये बोलते हैं कि अयोध्या में 'राम मंदिर' बनाने का सबसे उत्तम समय यही है तो क्या उसका एक कारण विपक्ष का सॉफ्ट हिंदुत्व के तरफ मुड़ना भी है ?
संघ ने राजनीति का इतना हिन्दुकरण तो कर ही दिया है कि आज कोई भी राजनीतिक पार्टी अयोध्या में मंदिर बनाये जाने के खिलाफ बोलने का साहस शायद ही जुटा पाए. आज देश एक बार फिर भक्ति आंदोलन के दौर से गुज़र रहा है. चाहे वो राष्ट्र भक्ति हो या ईश्वर की भक्ति. बिना इसके पान के शाश्वत सत्ता तक पहुंचना मुश्किल नज़र आता है और जब मौजूदा वक्त में सत्ता ही परम सत्य है तो फिर मंदिर और मठों का दौरा करने में क्या दिक्कत है ? संघ इसका जश्न तो कम से कम मना ही सकता है.
कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न, इंडिया टुडे रिसर्च टीम)
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