अभी हालिया तीन बड़े चुनावों से बहुत दिलचस्प जनादेश निकलकर आया है. जनता ने साफ़ कर दिया कि पक्ष हो या विपक्ष- अब वह नहीं चाहता कि देश के राजनीतिक मुद्दों का निर्धारण मुसलमान मतदाताओं की वजह से हो. या फिर मुस्लिम मुद्दों पर केंद्रित राजनीति हो. जनादेश स्पष्ट है, लेकिन उसका निष्कर्ष यह नहीं है कि अब राजनीति मुस्लिम विरोधी है. बल्कि आपत्ति मुस्लिमों के राजनीतिक एजेंडा से है, जो दुर्भाग्य से भारत विरोधी दिखता है. जनादेश भले स्पष्ट हो बावजूद विपक्ष उसे लेकर किस तरह उहापोह में है, उसकी चर्चा आगे होगी. यूपी की राजनीति में भी बहुत बड़े बदलाव नजर आने वाले हैं, इस पर भी आगे बात की जाएगी. खैर, यह लगभग तय है कि विपक्ष अब किसी मुस्लिम लेबल के सहारे चुनाव में नहीं उतरना चाहता. बल्कि जनता के मुद्दों पर राजनीति करने की कोशिश के लिए दम लगाना चाहता है. बावजूद कि उसके लिए मुस्लिम मतों का आकर्षण ख़त्म नहीं हुआ है. लेकिन उसे यह भरोसा मिल चुका है कि बिना मुस्लिम फैक्टर के चुनाव जीता जा सकता है. और उसे यह भरोसा असल में किसी और ने नहीं मुस्लिम मतदाताओं ने ही दिया जो आज भी किसी पार्टी या विचार के प्रति ईमानदार नहीं दिखते.
जनादेश से यह स्पष्ट हो चुका है कि विपक्ष अगर चाहे तो मुस्लिम बहुल सीटों पर राष्ट्रीय मुद्दों के साथ बिना किसी मुस्लिम चेहरे के भी चुनाव जीत सकता है. यूपी में रामपुर और गुजरात की तमाम मुस्लिम बहुल सीटों पर तो यही निष्कर्ष निकलता है. यह बहुत बड़ी बात है और यह होना ही था. क्योंकि यह स्वाभाविक है. असल में सिर्फ तीन दशक पहले तक देश में राजनीतिक मुद्दे मौलाना या मौलवी तय किया करते थे. उन्हें यह हैसियत थोक के भाव में किसी पक्ष की तरफ मुसलमानों का वोट घुमा देने की ताकत की वजह से मिला था. तमाम मस्जिदों-मदरसों से फतवे जारी होते थे. चुनाव की घोषणा हुई नहीं कि विपक्षी नेताओं (समाजवादी और वामपंथी भी जो धर्म जाति की राजनीति का विरोध करते नजर आते थे) की कतार मौलानाओं के घर के बाहर लग जाती थी. मौलाना बाकायदा फतवा जारी करते थे कि मुसलमानों को इस बार किसे वोट...
अभी हालिया तीन बड़े चुनावों से बहुत दिलचस्प जनादेश निकलकर आया है. जनता ने साफ़ कर दिया कि पक्ष हो या विपक्ष- अब वह नहीं चाहता कि देश के राजनीतिक मुद्दों का निर्धारण मुसलमान मतदाताओं की वजह से हो. या फिर मुस्लिम मुद्दों पर केंद्रित राजनीति हो. जनादेश स्पष्ट है, लेकिन उसका निष्कर्ष यह नहीं है कि अब राजनीति मुस्लिम विरोधी है. बल्कि आपत्ति मुस्लिमों के राजनीतिक एजेंडा से है, जो दुर्भाग्य से भारत विरोधी दिखता है. जनादेश भले स्पष्ट हो बावजूद विपक्ष उसे लेकर किस तरह उहापोह में है, उसकी चर्चा आगे होगी. यूपी की राजनीति में भी बहुत बड़े बदलाव नजर आने वाले हैं, इस पर भी आगे बात की जाएगी. खैर, यह लगभग तय है कि विपक्ष अब किसी मुस्लिम लेबल के सहारे चुनाव में नहीं उतरना चाहता. बल्कि जनता के मुद्दों पर राजनीति करने की कोशिश के लिए दम लगाना चाहता है. बावजूद कि उसके लिए मुस्लिम मतों का आकर्षण ख़त्म नहीं हुआ है. लेकिन उसे यह भरोसा मिल चुका है कि बिना मुस्लिम फैक्टर के चुनाव जीता जा सकता है. और उसे यह भरोसा असल में किसी और ने नहीं मुस्लिम मतदाताओं ने ही दिया जो आज भी किसी पार्टी या विचार के प्रति ईमानदार नहीं दिखते.
जनादेश से यह स्पष्ट हो चुका है कि विपक्ष अगर चाहे तो मुस्लिम बहुल सीटों पर राष्ट्रीय मुद्दों के साथ बिना किसी मुस्लिम चेहरे के भी चुनाव जीत सकता है. यूपी में रामपुर और गुजरात की तमाम मुस्लिम बहुल सीटों पर तो यही निष्कर्ष निकलता है. यह बहुत बड़ी बात है और यह होना ही था. क्योंकि यह स्वाभाविक है. असल में सिर्फ तीन दशक पहले तक देश में राजनीतिक मुद्दे मौलाना या मौलवी तय किया करते थे. उन्हें यह हैसियत थोक के भाव में किसी पक्ष की तरफ मुसलमानों का वोट घुमा देने की ताकत की वजह से मिला था. तमाम मस्जिदों-मदरसों से फतवे जारी होते थे. चुनाव की घोषणा हुई नहीं कि विपक्षी नेताओं (समाजवादी और वामपंथी भी जो धर्म जाति की राजनीति का विरोध करते नजर आते थे) की कतार मौलानाओं के घर के बाहर लग जाती थी. मौलाना बाकायदा फतवा जारी करते थे कि मुसलमानों को इस बार किसे वोट देना है, किसे हराना है.
मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति में सिंडिकेट कैसे असर डालता है
वह राजनीति का ऐसा दौर था जहां चुनावी सफलता के बहुत आसान ट्रिक्स थे. मसलन किसी पार्टी को थोक के भाव में मुसलमानों का वोट लेना है तो उसे बहुत परिश्रम करने की जरूरत नहीं थी. आजादी के बाद इस तरह के वोट ट्रेंड का भारतीय राजनीति पर बहुत बुरा असर पड़ा. भारत के आतंरिक मामलों, तमाम कानूनों पर असर पड़ा जिससे नागरिकों के अधिकार प्रभावित हुए. राजनीति की दिशा बदली और समाज एक ओढ़े हुए विचार को अपनाने पर विवश हुआ. सामाजिक न्याय के लिहाज से संविधान में दबे कुचले समाज के लिए जो आरक्षण के प्रावधान थे, उसपर भी असर पड़ा. मूल्यांकन करना चाहिए. यह सही वक्त है. अदालतों को सरकारों को अपने फैसले तक वापस लेने पड़े हैं. भारी बहुमत से चुनी गई राजीव गांधी के सरकार का रुख शाहबानो प्रकरण में देख लीजिए. आपको इजरायल के साथ कैसे संबंध रखने हैं- इसका फैसला मुस्लिम मतों के रहनुमाओं को देखकर लिया जाता था.
ईराक युद्ध में क्या भूमिका होगी, अफगानिस्तान में अमेरिका के हमले को लेकर या फिर रूस-फ्रांस के साथ आपके संबंध कैसे होंगे- विदेश नीति सिंडिकेट पॉलिटिक्स निर्धारित करता था. सिंडिकेट इसलिए कि तमाम चीजों में एक व्यवस्थित क्रोनोलाजी दिखती है जिसे कम से कम आज के दौर में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अनगिनत उदाहरण हैं. बावजूद कि राजनीति में तमाम चीजें कभी-कभी मजबूरी में हो जाती हैं, करनी पड़ती हैं और वोट पॉलिटिक्स की विवशता में, शांति और स्थायित्व भरी राजनीति के लिए सभी दलों को करना पड़ता है. किया भी है.
शांति स्थायित्व के लिए तो नरसंहार और ढेरों दंगे तक हुए हैं. हत्याएं हुई हैं. आज कांग्रेस और वाम एक टेबुल पर बैठकर, एक ही प्लेट से राजनीति की मैगी खाना चाहते हैं. लेकिन देखिए कि नक्सलवाद के नाम पर दोनों के बीच अभी आठ साल पहले तक क्या होता था? कुल मिलाकर मुस्लिम मतों ने भारतीय राजनीति को पिछले 75 सालों में कितना विवश किया है आप समझ नहीं सकते. एक बात साफ़ हो जाती है कि इलेक्टोरल राजनीति में बहुतायत मुस्लिम मतदाता स्वस्थ्य भागीदारी के लिहाज से कभी शामिल होते नजर नहीं आए. हालात अब भी काफी हद तक वैसे ही हैं. बस असरदार नहीं रहे.
वोट ट्रांसफर करने वाले मौलानाओं के फतवों को गठबंधन की राजनीति ने ख़त्म किया. लेकिन उसकी जगह मुस्लिमों के कथित 'रॉबिन हुडों' ने ले ली. कहीं नवाब मलिक और कहीं आजम खान, नसीमुद्दीन सिद्दीकी जैसे नेता मुस्लिमों के नए रहनुमा बन बैठे. जहां इस तरह बड़े चेहरे नहीं मिले वहां कोई अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी या फिर शहाबुद्दीन जैसे माफियाओं ने जगह ली. दर्जनों चेहरे तो ऐसे रहे जो किसी की भी सत्ता में मुस्लिमों के राजनीतिक मुद्दों पर आंच नहीं आए- महज इसलिए दल बदल करते नजर आते हैं. कभी कांग्रेस में कभी सपा में कभी बसपा में कभी आप पार्टी में और कहीं जगह नहीं मिली तो ओवैसी का साथ जिंदाबाद.
ओवैसी के टिकट पर जीतने वाले उन विधायकों की विचारधारा भला क्या होगी जो मुस्लिमों के राजनीतिक मुद्दों को सुरक्षित करने के लिए जरूरत पड़ते ही लालू यादव की राजद में शामिल हो गए. क्या वे रातोरात सेकुलर हो गए? और यह क्या राजनीति है कि अभी कांग्रेस के टिकट पर जीतने वाले 7 मुस्लिम पार्षदों में से 2 भला किस वजह से नतीजे आने के महज तीन दिन के अंदर ही आप पार्टी में शामिल हो गए. जनता इधर से उधर के विचरण को बहुत संदिग्ध होकर देखती है. और यह बिल्कुल ताजा मामला है. पश्चिम यूपी के बाहुबली इमरान मसूद जो मोदी की हत्या के बयान तक दिए पिछले 9 महीने में तीन से ज्यादा पार्टियां बदल चुके हैं.
सिंडिकेट को शायद अभी भी लग रहा है कि देश का बहुसंख्यक वर्ग और विपक्ष मूर्ख है. लेकिन ऐसा है नहीं. जनता मूर्ख नहीं है. जनादेश में विकल्पहीनता की बात भी निकलकर आ जाती है. निसंदेह भाजपा को इसका लाभ भी मिलता है. देश की तमाम पार्टियों को धीरे-धीरे सबक मिल रहा है. और तीन बड़े जनादेश के बाद वे एक फिलहाल एक नई राजनीति खड़ी करने की कोशिश करते दिख भी रहे हैं. बावजूद कि उसमें अब भी बहुत खामियां हैं. जनादेश के ठीक बाद कुछ विपक्षी नेताओं के बयान से राजनीति में मुसलमानों को लेकर एक उहापोह तो नजर आ ही रहा है. बावजूद उम्मीद कर सकते हैं कि प्रत्यक्ष उदाहरणों के मिलने के साथ वक्त ऐसी खामियों को भी दूर कर देगा.
जयंत चौधरी और ओवैसी ने जनादेश से मिले सबक और भविष्य की राजनीतिक दिशा तय कर दी है
नतीजों के बाद रालोद के चीफ और समाजवादी पार्टी के सहयोगी नेता जयंत चौधरी के बयान को गौर से देखना चाहिए. उन्होंने कहा कि खतौली और मैनपुरी से उपचुनाव जीतने का जश्न नहीं मना सकते. जश्न इसलिए नहीं मना सकते कि विपक्ष यूपी में रामपुर का उपचुनाव हार गया. जयंत जैसा बयान यूपी में गठबंधन के दूसरे बड़े नेताओं ने भी दिए हैं. जयंत ने सिर्फ रामपुर को लेकर योगी सरकार पर बेईमानी के आरोप भी लगाए. मैनपुरी और खतौली को लेकर भी आरोप लगे थे मगर चुनाव से पहले. चूंकि मैनपुरी में भारी भरकम जीत हुई और खतौली में एक नजदीकी मुकाबले में जीत मिली तो चुनाव बाद बेईमानी के आरोप नहीं लगे. मैनपुरी स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव की परंपरागत सीट रही है और सपा का गढ़ भी. इसी तरह खतौली भी रालोद का गढ़ ही है भले यह सीट कुछ वक्त से उनके पास ना रही हो.
असल में जयंत या सेकुलर पॉलिटिक्स करने वाले दूसरे विपक्षी नेता यह कह रहे हैं कि- "अब चुनाव आजम खान जैसे लोगों के चेहरे पर नहीं जीता जा सकता. बल्कि उसके लिए किसी जयंत चौधरी, किसी अखिलेश यादव या किसी मायावती की जरूरत हमेशा बनी रहेगी." रालोद नेता बिल्कुल यही कह रहे हैं- कह रहे हैं कि देखो- खतौली जीत लिया, मैनपुरी भी रिकॉर्ड मतों से जीत लिया. लेकिन जिन वोटों के सहारे आप (आजम खान) राजनीति के अफलातून बनकर दबाव डालते थे- वो काम नहीं आए. हमारे बिना आप कुछ भी नहीं हो. जयंत साफ़ कह रहे हैं कि आजम के जिस चेहरे की वजह से उनकी जेब में थोक के वोट पड़े हैं, उसी चेहरे की वजह से उनके विपक्षियों की जेब में भी थोक के वोट पहुंच जाते हैं. और वे ऐसा नहीं चाहते. कुल मिलाकर वे यह संदेश दे रहे कि चुनाव आजम खानों पर निर्भर नहीं है. वे चाहें तो सिंडिकेट पॉलिटिक्स में सेकुलर राजनीति के लिए वोट बने रह सकते हैं. पर अब चेहरा नहीं हो सकते. रामपुर और उसके आसपास के इलाकों में समाजवादी पार्टी का मतलब अखिलेश यादव नहीं बल्कि आजम खान ही हैं. कुछ महीने पहले जेल से रिहा होने पर आजम ने कहा भी था कि सपा उनके खून पसीने से खड़ी हुई, सपा ने आजम को नेता नहीं बनाया.
जयंत की प्रतिक्रिया में छिपे रहस्य समझने के लिए इन्हीं चुनावों से जुड़े असदुद्दीन ओवैसी की एक प्रतिक्रिया पर जाना होगा. एक दिन पहले हमारे सहयोगी चैनल एजेंडा आजतक पर ओवैसी ने जयंत की बातों को अपने अंदाज में साफ़ ही कर दिया. हालांकि यहां उनका मकसद मुस्लिम मतों को अपनी पार्टी की तरफ आकर्षित करना था. ओवैसी ने कहा- अखिलेश और दूसरे विपक्षी नेता असल में मुसलमानों का बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं. किसी को मुसलमानों की फ़िक्र तक नहीं है. उन्होंने सवाल उठाया कि आप मैनपुरी-खतौली जीत जाते हैं, लेकिन रामपुर क्यों हारना पड़ता है. कुछ ही महीनों के अंदर रामपुर में आजम खान की यह लगातार दूसरी हार है. ओवैसी ने गुजरात का भी जिक्र किया और साफ़ कहा कि सिर्फ भाजपा ही नहीं सेकुलर के नाम पर राजनीति करने वाली सभी पार्टियां मुसलमानों के वोट को ठग रही हैं. गुजरात में किसी ने भी बिल्किस बानो का मुद्दा नहीं उठाया. मुसलमानों की बात नहीं की. यहां तक कि मुसलमानों को मुस्लिम बहुल सीटों पर भी टिकट देने से बचा गया. मुसलमान राजनीति को लेकर ओवैसी ने समूचे विपक्ष पर आरोप लगाए. किसी को नहीं छोड़ा.
अगले लोकसभा चुनाव तक मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप से बचने के लिए ही गुजरात में नहीं उतरे राहुल गांधी
अब विपक्ष भाजपा की तरह भगवामय हो चुका है या नहीं- यह तय नहीं कहा जा सकता. बावजूद सच्चाई है कि हालिया चुनावों में मुसलमानों के मुद्दे उठे ही नहीं. यह जानबूझकर ही हुआ होगा. क्योंकि यह राजनीतिक बिसात पर एक रणनीति है. गुजरात की अनेकों मुस्लिम बहुल सीटों पर भाजपा, आप और कांग्रेस ने हिंदू उम्मीदवारों को ही टिकट दिए. सभी विपक्षी नेताओं ने मुस्लिम मुद्दों पर बात रखने से संकोच किया. गुजरात में मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप ना लगे- राहुल गांधी चुनाव में उतरे ही नहीं. यात्रा रूट पर सूरत और राजकोट में वह जरूर नजर आए. गांधी परिवार दूर ही रहा. मल्लिकार्जुन खड़गे भी बिल्कुल आख़िरी वक्त में पहुंचे. बिल्किस बानो मामले में तो कांग्रेस के बड़े नेताओं ने कई दिनों तक कोई बयान ही नहीं दिया. भारी शोर शराबे के बाद बिल्किस पर कांग्रेस ने फौरी प्रतिक्रिया जाहिर की. आप ने जरूर बिल्किस के मामले को उठाया, लेकिन उसे मुस्लिम मुद्दे के रूप में नहीं बल्कि एक पीड़ित महिला के सवाल की तरह उठाया. ऐसे ही उठना चाहिए. पीड़ित की पहचान सिर्फ पीड़ा है और कुछ नहीं. समझा जा सकता है कि असल में विपक्षी नेता किस चीज से वहां बच रहे थे.
अब गुजरात के नतीजों को देखिए. मुस्लिम बहुल सीटों पर तीनों प्रमुख पार्टियों के मुस्लिम उम्मीदवार होने के बावजूद भाजपा उम्मीदवारों ने भारी अंतर से जीत हासिल की. हार जीत के मार्जिन को चेक किया जा सकता है. और जिन सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार कांग्रेस या विपक्ष की तरफ से थे, वहां भी भाजपा ने ज्यादातर सीटें जीती हैं. बिहार के कुढ़नी उपचुनाव में भी समूचा महागठबंधन एक था. बावजूद बीजेपी ने लालू-नीतीश के साथ वाम और महागठबंधन राजनीति के मुस्लिम फैक्टर की हवा निकालकर जीत हासिल की. कुढ़नी का जनादेश बहुत कुछ कहता है. जहां तक बात मैनपुरी और खतौली की है अगर सपा और रालोद यह सीटें भी जीतेंगी तो उनकी राजनीति का क्या मतलब है. वह तो उन्हें जीतना ही था.
असल में यह साफ़ संकेत है कि विपक्ष की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ रही है. जमीन पर जनता क्या सोच रही है, समाज क्या सोच रहा है- राजनीतिक दलों को उसे स्वीकार करना पड़ेगा. वे अपने तरीके से कोशिश भी कर रहे हैं. जनादेश उन्हें सैम्पल भी दिख रहा होगा. यह दूसरी बात है कि ओवैसी को इसमें विपक्ष की भगवा राजनीति नजर आ रही है. जो काम ओवैसी भारत जैसे देश में कर सकते हैं भला दूसरे नेताओं को उससे क्यों बचना चाहिए. इलेक्टोरल पॉलिटिक्स की तो जरूरतें ही स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा और भागीदारी है. थोक के वोट के विचार या फिर प्रेसर पॉलिटिक्स को जगह ना देना ही असल में लोकतंत्र को विशेष बनाता है. संविधान में उल्लिखित सहअस्तित्व और सामंजस्य की भावना तो यहीं से आएगी. लोकतंत्र तो वह है ना जहां किसी हिंदू बहुल सीट पर कोई अल्पसंख्यक सांसद या विधायक बन सके और मुस्लिम बहुल सीट पर हिंदू. जिन जातियों की संख्या कम हो, लोक कल्याणकारी नीति है तो वह भी प्रतिनिधित्व करे. बिना सामंजस्य और सहअस्तित्व के आप जीत नहीं सकते. बहुलतावाद में भरोसा रखने वाले समाज की बेहतरी के लिए भला इससे अच्छा और क्या होगा.
विपक्ष आजम खानों को नेतृत्व देने से बचेगा, मगर उहापोह का शिकार भी है
राजनीति में मुसलमानों को लेकर विपक्ष के विचार असल में साफ हैं. लेकिन वह अभी भी उहापोह में है. जयंत और दूसरे विपक्षी नेताओं के बयान बताते हैं कि वे सेकुलर मूल्यों पर राजनीति करते हुए मुसलमानों का वोट चाहते हैं, उन्हें प्रतिनिधित्व भी देंगे- लेकिन नेतृत्व देने को लेकर अब आशंकाएं हैं. अब आजम खान जैसे चेहरे को चमकाने से बचेंगे. बावजूद विपक्ष का मुस्लिम मोह अभी ख़त्म नहीं हुआ है. राज्यसभा में अभी हाल में यूसीसी को लेकर जो प्राइवेट बिल आया है, विपक्ष का रुख तो यही कहता है. समूचे विपक्ष ने यूसीसी का विरोध किया है. यह कहते हुए कि इससे अल्पसंख्यकों के मजहबी अधिकारों का अतिक्रमण होगा.
जबकि संविधान की आत्मा यूसीसी ही है. जिसमें किसी भी धर्म, जाति, पंथ और लिंग के मानवीय अधिकार सुरक्षित रहते हैं. और यह सबसे ज्यादा फायदेमंद एससी, एसटी और ओबीसी समाज के लिए ही है. खैर, जनादेशों के ठीक बाद राहुल गांधी को लेकर समाज में पनपे गुस्से को भी विपक्ष भुनाने की कोशिश में बहुत तेजी से जुट गया जो कांग्रेस के लिए बड़ा सिरदर्द होंगे. कांग्रेस और मुस्लिम मतों का जोर देखने के बाद जेडीयू ने एक बार फिर नीतीश कुमार को पीएम बनाने का मुद्दा उछाल दिया है. पहले भी था लेकिन वेट एंड वाच की स्थिति बन गई थी. यह परिवर्तन भी असल में चुनावों में राहुल की क्षमता का आंकलन करने के बाद हो रहा है.
कुल मिलाकर विपक्ष एक बड़ी रणनीति बनाते दिख रहा. अखिलेश को भी अब समझ आ रहा कि आजम की बजाए शिवपाल यादव उनके लिए कितना जरूरी हैं. दुर्भाग्य से आजम खानों को अब आगे की बजाए पिछली सीट पर बैठना पड़ेगा या सहअस्तित्व और सामंजस्य की राजनीति के लिए आगे आना होगा. चीजें बिल्कुल साफ हैं.
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