बरसों से श्री श्री रविशंकर हरदम, हर जगह मुस्कुराते देखे जाते रहे हैं. खुशमिजाज, खुशियां बांटते, खुश रहने के लिए प्रेरित करते - जैसे बिलकुल निष्कपट!
देख कर ऐसा लगता रहा सच में जीने की कला तो कोई ऐसे ही शख्स से सीख सकता है. लोग सीखते भी रहे हैं. मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, इसलिए जीने की कला ही क्यों वैसे सीखी जाये? किसी को ऐतराज भी नहीं हुआ होगा - और होना भी क्यों चाहिये? मुफ्त की चीजों की अहमियत वैसे भी घट ही जाती है.
स्माइली प्रचलन में अब आया है. बात बात पर स्माइली शेयर की जाती है. मन में कुछ भी हो, रिस्पॉन्स या कॉमेंट में एक स्माइली काफी होती है. जब से श्री श्री रविशंकर का सीरिया वाला बयान आया है, एक सवाल बार बार परेशान कर रहा है - दिखने में सहज और सरल शख्सियत आखिर इतनी अजीब कैसे हो सकती है? जीने की कला सिखाने वाला आध्यात्मिक गुरु भला हिंसा जैसे हालात की सरेआम बात भी कैसे कर सकता है?
मुस्कुराते होंठ और ऐसी जबान!
आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर अयोध्या मसले पर मध्यस्थता की पहल में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं. श्री श्री रविशंकर की इस पहल में तेजी तब देखी गयी जब यूपी में नगर निकायों के लिए चुनाव हो रहे थे. उनके दिल्ली से वाया लखनऊ अयोध्या पहुंचने का कार्यक्रम खूब प्रचारित किया गया. फिर दिल्ली का कार्यक्रम अचानक रद्द हो गया क्योंकि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुलाकात में रुचि नहीं दिखायी.
लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलते हुए श्री श्री रविशंकर अयोध्या तो पहुंचे, लेकिन कुल मिलाकर फालतू की कवायद ही नजर आयी. श्री श्री रविशंकर का ये कहना कि बिलकुल वाजिब है कि जब कोई महत्वपूर्ण काम को लेकर आगे बढ़ता है तो सपोर्ट और विरोध होना स्वाभाविक...
बरसों से श्री श्री रविशंकर हरदम, हर जगह मुस्कुराते देखे जाते रहे हैं. खुशमिजाज, खुशियां बांटते, खुश रहने के लिए प्रेरित करते - जैसे बिलकुल निष्कपट!
देख कर ऐसा लगता रहा सच में जीने की कला तो कोई ऐसे ही शख्स से सीख सकता है. लोग सीखते भी रहे हैं. मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, इसलिए जीने की कला ही क्यों वैसे सीखी जाये? किसी को ऐतराज भी नहीं हुआ होगा - और होना भी क्यों चाहिये? मुफ्त की चीजों की अहमियत वैसे भी घट ही जाती है.
स्माइली प्रचलन में अब आया है. बात बात पर स्माइली शेयर की जाती है. मन में कुछ भी हो, रिस्पॉन्स या कॉमेंट में एक स्माइली काफी होती है. जब से श्री श्री रविशंकर का सीरिया वाला बयान आया है, एक सवाल बार बार परेशान कर रहा है - दिखने में सहज और सरल शख्सियत आखिर इतनी अजीब कैसे हो सकती है? जीने की कला सिखाने वाला आध्यात्मिक गुरु भला हिंसा जैसे हालात की सरेआम बात भी कैसे कर सकता है?
मुस्कुराते होंठ और ऐसी जबान!
आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर अयोध्या मसले पर मध्यस्थता की पहल में कोई कसर बाकी नहीं रख रहे हैं. श्री श्री रविशंकर की इस पहल में तेजी तब देखी गयी जब यूपी में नगर निकायों के लिए चुनाव हो रहे थे. उनके दिल्ली से वाया लखनऊ अयोध्या पहुंचने का कार्यक्रम खूब प्रचारित किया गया. फिर दिल्ली का कार्यक्रम अचानक रद्द हो गया क्योंकि गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने मुलाकात में रुचि नहीं दिखायी.
लखनऊ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिलते हुए श्री श्री रविशंकर अयोध्या तो पहुंचे, लेकिन कुल मिलाकर फालतू की कवायद ही नजर आयी. श्री श्री रविशंकर का ये कहना कि बिलकुल वाजिब है कि जब कोई महत्वपूर्ण काम को लेकर आगे बढ़ता है तो सपोर्ट और विरोध होना स्वाभाविक है.
भला इस बात से किसे आपत्ति हो सकती है. लेकिन ये कहना कि अगर अयोध्या में राम मंदिर बनाने में देरी हुई तो सीरिया जैसे हालात पैदा हो सकते हैं - कहां तक जायज है?
श्री श्री रविशंकर ये कह कर क्या जताना चाहते हैं? श्री श्री रविशंकर कोई मामूली आदमी तो हैं नहीं कि उनकी बातों का कोई फर्क नहीं पड़ेगा. उनके लाखों अनुयायी हैं. देश के तमाम हिस्सों में और दुनिया भर में भी जहां तहां रहते हैं. श्री श्री रविशंकर कुछ भी सफाई दें क्या उन्हें नहीं लगता कि उनकी बातों का लोगों पर कैसा असर होगा? जो लोग अब तक उनसे जीने की कला सीखते रहे और उनकी तमाम बातें आंख मूंद कर मानते रहे वे इस बारे में क्या सोचेंगे? श्री श्री रविशंकर का कहना है कि उनके बयान को ट्विस्ट कर दिया गया. वो समझा रहे हैं उन्होंने धमकी नहीं दी है - ये चेतावनी भर है. अगर ये चेतावनी है तो धमकी कैसी होगी?
श्री श्री रविशंकर कोर्ट के फैसले के भी पक्ष में नहीं नजर आ रहे हैं. तो क्या समझा जाये कि कोर्ट का फैसला आने पर वो नहीं मानेंगे? वो कोर्ट के बाहर समझौते की पहल कर रहे हैं, लेकिन उसकी भी कड़ी शर्तें हैं. अगर ऐसा ही होता तो सुप्रीम कोर्ट ने भी ये ऑफर किया था - और अब तो उस पर सुनवाई भी चल रही है.
श्री श्री आखिर ऐसा बोल कैसे सकते हैं?
जहां जीने की कला जैसी बातें होती हों, वहां हिंसा या हिंसा जैसे हालात की गुंजाइश कैसे हो सकती है? ऐसा कैसे हो सकता है कि जो किसी की आस्था से इत्तेफाक नहीं रखते उनके लिए जीने की किसी कला के कोई मायने नहीं हैं. कट्टरवाली हिंदू नेताओं के बयान अक्सर सुनने को मिलते हैं - "जिन्हें... वे पाकिस्तान चले जायें." आखिर श्री श्री रविशंकर को ऐसे बयानों की जरूरत क्यों पड़ने लगी है. देखा जाये तो विनय कटियार और प्रवीण तोगड़िया जैसे नेताओं के अच्छे दिनों की वैलिडिटी खत्म हो चुकी लगती है. साक्षी महाराज जैसे नेताओँ की बातों को वैसे भी कम ही लोग गंभीरता के साथ लेते हैं. कहीं श्री श्री रविशंकर की नजर उस खाली लगती जगह पर तो नहीं है?
अपने बयानों को लेकर आलोचना के शिकार श्री श्री रविशंकर पहली बार हो रहे हों, ऐसा भी नहीं है. लोगों ने तब भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी जब श्री श्री रविशंकर ने मलाला युसुफजई को नोबल पुरस्कार के नाकाबिल बताया था. तब तो श्री श्री रविशंकर ने यहां तक दावा किया था कि नोबल समिति की ओर से उन्हें भी ये पुरस्कार ऑफर किया गया था, उन्होंने ठुकरा दिया.
श्री श्री रविशंकर मध्यस्थता की पहल भी अक्सर करते रहे हैं. विदेशों के लिए भी और जम्मू कश्मीर के लिए भी. ऐसी हर कोशिश की तारीफ की जानी चाहिये. नतीजा हासिल हो न हो कोई फर्क नहीं पड़ता.
श्री श्री रविशंकर के बयान पर असदुद्दीन ओवैसी कैसे रिएक्ट करते हैं इसे नजरअंदाज किया जा सकता है. ओवैसी को श्री श्री रविशंकर मूर्ख बताते हैं तो इसे भी नजरअंदाज किया जा सकता है. लेकिन ये सब तभी तक जब तक ये शांति की पहल हो. अगर शांति की पहल के दरम्यान हिंसा की बातें घुसपैठ करने लगें तो उसे कैसे स्वीकार किया जाये.
कहीं ऐसा तो नहीं कि स्वामी रामदेव की तरह श्री श्री रविशंकर के मन में भी कुछ राजनीतिक ख्याल आ चुके हैं? स्वामी रामदेव की ऐसी मंशा 2014 के चुनावों से पहले रही. तब तो रामदेव को लगा था कि अन्ना की तरह वो भी रामलीला आंदोलन जैसी मुहिम चला सकते हैं. वो कोई मामूली बात नहीं थी जब एयरपोर्ट पर रिसीव करने केंद्रीय मंत्री पहुंचे थे - लेकिन रामदेव को सियासत और योग में फर्क तब समझ आया जब आधी रात को सलवार पहनकर भूमिगत होना पड़ा.
मौजूदा दौर भी तकरीबन वैसा ही है. सोच रहे हों वक्त रहते आजमा लिये जायें! अयोध्या का मसला तो राजनीति के लिए शुरू से ही दमदार रहा है. बीजेपी से बड़ी मिसाल कौन हो सकता है. अब भी बीजेपी के लिए अयोध्या संकट की हर घड़ी में काम आता है. यूपी के निकाय चुनावों में तो योगी आदित्यनाथ ने एक बार फिर से आजमा लिया.
रामदेव के किस्से भी याद ही होंगे. किस तरह उनके जरिये बीजेपी से टिकट हासिल करने की बातें सामने आयीं. खुद भी रामदेव कह चुके हैं कि वो चाहते तो कोई भी पद पा सकते थे, लेकिन उन्हें पद की कोई लालसा नहीं रही. मालूम नहीं श्री श्री रविशंकर के मन में कैसी लालसा है, वही जानें. वैसे अयोध्या के मठाधीशों में तो कोई उन्हें तवज्जो दे नहीं रहा. कई मंचों से तो ये भी सवाल उठ रहा - 'वो किस परंपरा के संत हैं?'
देखा जाये तो स्वामी रामदेव और श्री श्री रविशंकर में कुछ कुछ कॉमन बातें भी हैं. दोनों को फॉलो करने वालों में एक बड़ा फर्क ये है कि श्री श्री रविशंकर के अनुयायी सिर्फ शहरी तबके के कमाते-खाते लोग हैं, जबकि रामदेव के भक्तों की आबादी शहर से लेकर गांव गांव तक फैली हुई है. रामदेव ने राजनीति में हाथ आजमाया और फिर योग सिखाते सिखाते पूरी तरह बिजनेस में उतर आये. अब पतंजलि का कारोबार कैसा चल रहा है दिन भर टीवी पर वो खुद ही बताते रहते हैं.
पिछले साल नवंबर में श्री श्री रविशंकर ट्रस्ट की ओर से कारोबार में विस्तार के बारे में भी विस्तार से बताया गया. दो साल के भीतर 'श्री श्री तत्व' के एक हजार स्टोर खोलने की स्कीम भी बतायी गयी. कहीं ऐसा तो नहीं कि श्री श्री तत्व की प्रचार मुहिम पतंजलि के रास्ते चल पड़ी है.
असल बात जो भी हो, लेकिन अचानक से श्री श्री की मुस्कुराहट भी अब वर्चुअल वर्ल्ड के स्माइली जैसी फील देने लगी है. समझना मुश्किल हो रहा है कि जमाने को जीने की कला सिखाने वाला शख्स इतनी क्रूर बातें कैसे कर सकता है?
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