राजस्थान के राजपूत कभी छुटभैया अपराधी चतुर सिंह, तो कभी इनामी अपराधी आनंदपाल के लिए आंदोलन खड़ा कर दे रहे हैं. कभी जोधा-अकबर के लिए तो अब पद्मावती के विरोध के नाम पर आंदोलन छेड़ रखा है. पूर्व राजघरानों और सामंतवादी ठिकानों को अपनी पहचान बरकार रखने की ये छटपटाहट क्यों है? कभी रियासतों के रहनुमा रहे ये राजपूत अपनी ही रियाया को महज एक फिल्म देखने से क्यों रोकना चाह रहे हैं?
फिल्म पद्मावती के विरोध के बीच करणी सेना का नाम हर तरफ गूंज रहा है. मगर क्या है ये करणी सेना और इसके नेता कौन हैं, ये भी एक दिलचस्प किस्सा है. इस पूरी कहानी को समझने के लिए हमें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय जाना होगा.
राजस्थान की राजनीति में जब तक बीजेपी के कद्दावर राजपूत नेता भैरो सिंह शेखावत सक्रिय रहे, तब तक राजपूतों का बीजेपी से रिश्ता रहा. मगर भैरो सिंह राजस्थान में कभी भी अपने दम पर अकेले बीजेपी की सरकार नहीं बना पाए. शेखावत चारो बार अल्पमत की सरकार के ही मुखिया बने. उस वक्त जाट पूरी तरह से कांग्रेस के साथ थे. बीजेपी को समझ में आ गया कि अपने दम पर सरकार बनानी है तो राजपूतों से आगे सोचना होगा. इसके बाद बीजेपी ने तुरुप का पत्ता चला और सीकर की रैली प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जाटों को आरक्षण देने का एलान कर दिया.
ओबीसी में जाटों को शामिल करते ही गुर्जर आरक्षण समेत कई जातियों के आरक्षण मांगने का पंडोरा बॉक्स खुल गया. राजनीतिक और सामाजिक रुप से आरक्षण मिलने से गांवों में जाट प्रधान, सरपंच जैसे पदों पर काबिज होने लगे और राजपूतों का आधिपत्य कम होने लगा. राजपूतों को तब शैक्षणिक आरक्षण से ज्यादा राजनीतिक आरक्षण अखरा था. बीजेपी ने भैरोसिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बनाकर दिल्ली भेज दिया और...
राजस्थान के राजपूत कभी छुटभैया अपराधी चतुर सिंह, तो कभी इनामी अपराधी आनंदपाल के लिए आंदोलन खड़ा कर दे रहे हैं. कभी जोधा-अकबर के लिए तो अब पद्मावती के विरोध के नाम पर आंदोलन छेड़ रखा है. पूर्व राजघरानों और सामंतवादी ठिकानों को अपनी पहचान बरकार रखने की ये छटपटाहट क्यों है? कभी रियासतों के रहनुमा रहे ये राजपूत अपनी ही रियाया को महज एक फिल्म देखने से क्यों रोकना चाह रहे हैं?
फिल्म पद्मावती के विरोध के बीच करणी सेना का नाम हर तरफ गूंज रहा है. मगर क्या है ये करणी सेना और इसके नेता कौन हैं, ये भी एक दिलचस्प किस्सा है. इस पूरी कहानी को समझने के लिए हमें अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय जाना होगा.
राजस्थान की राजनीति में जब तक बीजेपी के कद्दावर राजपूत नेता भैरो सिंह शेखावत सक्रिय रहे, तब तक राजपूतों का बीजेपी से रिश्ता रहा. मगर भैरो सिंह राजस्थान में कभी भी अपने दम पर अकेले बीजेपी की सरकार नहीं बना पाए. शेखावत चारो बार अल्पमत की सरकार के ही मुखिया बने. उस वक्त जाट पूरी तरह से कांग्रेस के साथ थे. बीजेपी को समझ में आ गया कि अपने दम पर सरकार बनानी है तो राजपूतों से आगे सोचना होगा. इसके बाद बीजेपी ने तुरुप का पत्ता चला और सीकर की रैली प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जाटों को आरक्षण देने का एलान कर दिया.
ओबीसी में जाटों को शामिल करते ही गुर्जर आरक्षण समेत कई जातियों के आरक्षण मांगने का पंडोरा बॉक्स खुल गया. राजनीतिक और सामाजिक रुप से आरक्षण मिलने से गांवों में जाट प्रधान, सरपंच जैसे पदों पर काबिज होने लगे और राजपूतों का आधिपत्य कम होने लगा. राजपूतों को तब शैक्षणिक आरक्षण से ज्यादा राजनीतिक आरक्षण अखरा था. बीजेपी ने भैरोसिंह शेखावत को उपराष्ट्रपति बनाकर दिल्ली भेज दिया और राजस्थान में धौलपुर के जाट राजघराने की महारानी और राजपूत की बेटी के नाम से सियासी नारा देकर वसुंधरा राजे को नेता बना दिया.
इसके बाद बीजेपी के नेता देवी सिंह भाटी और लोकेंद्र सिंह कालवी ने अगड़ों को आरक्षण और पिछड़ों को संरक्षण देने के नाम पर राजस्थान में सामाजिक न्याय मंच की नीव रखी. पिछड़ों के संरक्षण का नारा मूलत: जाट आरक्षण के खिलाफ था. अब सामाजिक न्याय मंच के बैनर तले बड़ी-बड़ी रैलियां होने लगीं. भीड़ इतनी उमड़ने लगी कि सामाजिक न्याय मंच को राजनीतिक पार्टी बनाकर राजपूतों ने चुनाव लड़ा. लेकिन इसके बाद वसुंधरा राजे और प्रमोद महाजन ने ऐसा व्यूह रच डाला की राजपूतों की भीड़ 2003 के विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय मंच को अकेला छोड़ बीजेपी के पाले में चली गयी. इस बीच देवी सिंह भाटी के दोनों बेटों की हादसे में मौत हो गई. इसके बाद अकेले पड़े भाटी बीजेपी के साथ चले गए और राजपूत आंदोलन खत्म हो गया.
यहीं से 23 दिसंबर 2006 को राजपूतों को आरक्षण दिलाने के नाम पर करणी सेना का जन्म हुआ. करणी माता राजस्थान में एक लोक देवी हैं, जिन्हें राजपूत पूजते हैं. अजीत सिंह मामडोली इसके प्रदेश अध्यक्ष बने और सामाजिक न्याय मंच के संयोजक रहे लोकेंद्र सिंह कालवी करणी सेना के संयोजक बन गए. आरक्षण के लिए करणी सेना आंदोलन करता रहा. लेकिन कभी किसी ने इसे गंभीरता से नही लिया.
इस बीच 2008 में फिल्म जोधा-अकबर की शूटिंग जयपुर में शुरु हुई और करणी सेना इसका विरोध कर सुर्खियों में आया. तब सभी राजघराने करणी सेना के खिलाफ खड़े हुए. लेकिन तोड़फोड़ और हिंसा के डर से जोधा अकबर कभी राजस्थान में रिलीज नहीं हुई. और करणी सेना ने पहली सफलता हासिल की. इसके बाद बॉलीवुड जब भी राजपूतों पर फिल्म बनाती, पहले करणी सेना के लोगों को दिखाई जाती. सलमान खान की वीरा फिल्म भी इनके पास करने के बाद ही रिलीज हुई थी.
करणी सेना के लोकप्रियता की वजह से 2008 में कांग्रेस ने करणी सेना के संयोजक लोकेंद्र सिंह कालवी को कांग्रेस में शामिल कर लिया. यहीं से करणी सेना में फूट पड़नी शुरु हो गई. 2008 में करणी सेना लोकेंद्र सिंह कालवी ने छोड़ी तो किसी राजनीतिक पार्टी में जाने की वजह से उनका विरोध हुआ. नाराज होकर कालवी ने करणी सेना को ही भंग करने का एलान कर दिया. तब करणी सेना के प्रदेश अध्यक्ष अजीत सिंह मामडोली ने लोकेंद्र सिंह कालवी को संगठन से बाहर निकाल दिया और खुद इसके नेता बन गए.
इस बीच लोकेंद्र सिंह कालवी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया. तब 2010 में उन्होंने "श्री राजपूत करणी सेना" बनाकर श्याम सिंह रुआं को इसका प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. इसके खिलाफ पहले गुट के अजीत सिंह मामडोली कोर्ट गए और कहा कि रजिस्टर्ड करणी सेना उनके ही पास है. मगर कोर्ट का विवाद बढ़ता देख इसके अध्यक्ष श्याम प्रताप सिंह रुआं ने करणी सेना छोड़ दी.
उसके बाद लोकेंद्र सिंह कालवी ने 2012 में "श्री राजपूत करणी सेना" का प्रदेश अध्यक्ष सुखदेव सिंह गोगामेड़ी को बना दिया. गोगामेड़ी पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे थे और दो बार बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुके थे. मगर जल्दी ही सुखदेव सिंह गोगामेड़ी और लोकेंद्र कालवी के बीच भी विवाद हो गया. तो सुखदेव सिंह गोगामेड़ी ने "राष्ट्रीय श्री राजपूत करणी सेना" के नाम से अलग संगठन बना लिया. लोकेंद्र सिंह कालवी ने महिपाल सिंह मकराना को श्री राजपूत करणी सेना का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया.
आरक्षण की मांग तो हाशिए पर चली गई और अब राजपूतों के नेता बनने की लड़ाई तीनों करणी सेना के बीच शुरु हो गई है. इसका पहला नजारा राजस्थान के अपराधी आनंदपाल सिंह के एनकाउंटर के समय देखने को मिला. इस समय तीनों ही संगठन के नेता उग्र बातें करके राजपूत समाज का ध्यान अपनी तरफ लाने का प्रयास कर रहे थे. वसुंधरा सरकार ने आनंदपाल सिंह एनकाउंटर की सीबीआई जांच की मांग मान ली तो, करणी सेना के सभी पक्ष इसे अपनी जीत बताकर राजपूतों के नेता होने का दावा करने लगे.
पद्मावती फिल्म को लेकर जिस तरह से राजपूत अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे हैं, उसे भुनाने के लिए तीनों ही करणी सेना के नेता एक दूसरे को पीछे छोड़ देना चाहते हैं. एक नाक काटने की बात करता है तो दूसरा मीडिया में छाने के लिए सिर काटने की बात करता है.
अब इनके बीच राष्ट्रीय स्तर पर राजपूतों का संगठन बनाने की होड़ है. पद्मावती फिल्म के विरोध के नाम पर सुखदेव सिंह गोगमेड़, मध्यप्रदेश, गुजरात और बैंगलोर के बाद केरल के कोयंबटूर में रैली कर रहे हैं. वहीं लोकेंद्र सिंह कालवी गुजरात, राजस्थान और यूपी के बाद बिहार में सभा कर रहे हैं. दोनों ही पक्ष एक दूसरे पर दलाल बताते हुए पैसे इकट्ठे करने का आरोप लगाते हैं.
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