शिवसेना में बगावत की बू पहली बार महसूस होने के बाद उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) की तरफ से कहा गया, ज्यादा से ज्यादा क्या होगा - सत्ता चली जाएगी. तभी ये भी समझाने की कोशिश हुई कि हार जीत तो लगी रहती है.
बिलकुल सही बात है, हार या जीत से आगे जहां और भी है. हार के बावजूद जीत का माद्दा बनाये रखना जरूरी होता है. हार के बाद भी जीत का जज्बा नये सिरे से हासिल करना और भी जरूरी होता है - लेकिन हार के बाद मैदान ही छोड़ देना, क्या कहलाता है?
उद्धव ठाकरे के कम से कम हाल के दो फैसलों को हार कर मैदान छोड़ देने जैसा माना जा रहा है - पहला, मुख्यमंत्री का सरकारी आवास वर्षा छोड़ कर ठाकरे परिवार के घर मातोश्री लौट आना और दूसरा, फ्लोर टेस्ट से पहले ही इस्तीफा दे देना. मुख्यमंत्री पद से भी और विधान परिषद की सदस्यता से भी. ऐसा करके उद्धव ठाकरे ये मैसेज देने की कोशिश किये होंगे कि उनके अंदर सत्ता में बने रहने को लेकर किसी तरह का कोई लालच नहीं है.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. समझा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे ने हड़बड़ी, या घबराहट जो भी कहें, में बहुत बड़ा मौका गंवा दिया. कुर्सी छोड़ने से पहले अगर उद्धव ठाकरे लोगों से अपनी बात कहे होते तो सुनी जरूर जाती - ऐसी स्थिति में नेताओं के अपनी बातें कहने के तमाम उदाहरण हैं.
2019 में ही जब 72 घंटे में ही देवेंद्र फडणवीस को लगा कि आगे उनका मुख्यमंत्री बने रहना संभव नहीं है, तो वो प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर लोगों से अपनी बात शेयर किये. ऐसे ही 2020 में कमलनाथ ने भी किया था और जाते जाते ये भी बोल गये कि 'कल के बाद परसों भी आता है'.
ऑपरेशन लोटस के जनक बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा भी देवेंद्र फडणवीस की तरह मिलते जुलते अंदाज में मुख्यमंत्री बने थे. राज्यपाल ने तो बहुमत साबित करने के लिए लंबा वक्त दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मियाद कम कर दी. जब येदियुरप्पा के लिए सब कुछ असंभव लगने लगा तो विधानसभा पहुंचे और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाले अंदाज में अपनी बात कही - और फिर इस्तीफा दे डाला.
बिलकुल...
शिवसेना में बगावत की बू पहली बार महसूस होने के बाद उद्धव ठाकरे (ddhav Thackeray) की तरफ से कहा गया, ज्यादा से ज्यादा क्या होगा - सत्ता चली जाएगी. तभी ये भी समझाने की कोशिश हुई कि हार जीत तो लगी रहती है.
बिलकुल सही बात है, हार या जीत से आगे जहां और भी है. हार के बावजूद जीत का माद्दा बनाये रखना जरूरी होता है. हार के बाद भी जीत का जज्बा नये सिरे से हासिल करना और भी जरूरी होता है - लेकिन हार के बाद मैदान ही छोड़ देना, क्या कहलाता है?
उद्धव ठाकरे के कम से कम हाल के दो फैसलों को हार कर मैदान छोड़ देने जैसा माना जा रहा है - पहला, मुख्यमंत्री का सरकारी आवास वर्षा छोड़ कर ठाकरे परिवार के घर मातोश्री लौट आना और दूसरा, फ्लोर टेस्ट से पहले ही इस्तीफा दे देना. मुख्यमंत्री पद से भी और विधान परिषद की सदस्यता से भी. ऐसा करके उद्धव ठाकरे ये मैसेज देने की कोशिश किये होंगे कि उनके अंदर सत्ता में बने रहने को लेकर किसी तरह का कोई लालच नहीं है.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं. समझा जा रहा है कि उद्धव ठाकरे ने हड़बड़ी, या घबराहट जो भी कहें, में बहुत बड़ा मौका गंवा दिया. कुर्सी छोड़ने से पहले अगर उद्धव ठाकरे लोगों से अपनी बात कहे होते तो सुनी जरूर जाती - ऐसी स्थिति में नेताओं के अपनी बातें कहने के तमाम उदाहरण हैं.
2019 में ही जब 72 घंटे में ही देवेंद्र फडणवीस को लगा कि आगे उनका मुख्यमंत्री बने रहना संभव नहीं है, तो वो प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर लोगों से अपनी बात शेयर किये. ऐसे ही 2020 में कमलनाथ ने भी किया था और जाते जाते ये भी बोल गये कि 'कल के बाद परसों भी आता है'.
ऑपरेशन लोटस के जनक बीजेपी नेता बीएस येदियुरप्पा भी देवेंद्र फडणवीस की तरह मिलते जुलते अंदाज में मुख्यमंत्री बने थे. राज्यपाल ने तो बहुमत साबित करने के लिए लंबा वक्त दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मियाद कम कर दी. जब येदियुरप्पा के लिए सब कुछ असंभव लगने लगा तो विधानसभा पहुंचे और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाले अंदाज में अपनी बात कही - और फिर इस्तीफा दे डाला.
बिलकुल वैसा ही मौका उद्धव ठाकरे को भी मिला था. जो बातें आने वाले दिनों या चुनावों में उद्धव ठाकरे कहने की तैयारी कर रहे हों, इस्तीफा देने से पहले कह सकते थे. जो इमोशनल बातें बागी विधायकों के लिए पहले कही जा रही थीं, बेहतर होता उसी अंदाज में शिवसैनिकों से मुखातिब हुए होते. अब जो पीठ में छुरा भोंकने की बात कर रहे हैं, तब शायद और भी असरदार हो सकता था.
लेकिन जो बीत गया उसे लेकर ज्यादा दिन तक ढोना तो और भी खतरनाक होता है. जितना जल्दी उबर पाना संभव हो, बेहतर होगा. देखा जाये तो सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट के पैमाने पर उद्धव ठाकरे काफी पिछड़ चुके हैं - और मैदान में बने रहने के लिए जरूरी है कि पूरे जी जान से अस्तित्व के लिए संघर्ष करें. सवाल ये है कि उद्धव ठाकरे के सर्वाइवल किट में ऐसी चीजें बची भी हैं क्या?
1. हर हाल में चुनाव निशान बचाने की कोशिश करें
उद्धव ठाकरे के लिए शिवसेना की बगावत सत्ता गंवाने से भी कहीं ज्यादा भारी नुकसान है. शिवसेना के दो-तिहाई से ज्यादा विधायक उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ चुके हैं - और महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बन जाने के बाद विधायकों के नेता एकनाथ शिंदे की नजर अब चुनाव निशान (Shiv Sena Symbol) पर ही टिकी होगी.
शिवसेना के चुनाव निशान 'तीर और धनुष' अब एकनाथ शिंदे एंड कंपनी दावा जताने लगी है, ये कहते हुए कि असली शिवसेना वही है जहां वो खड़े हैं. शिंदे और उनके साथी अपने दावे के साथ चुनाव आयोग में उद्धव ठाकरे को चुनौती देने वाले हैं.
महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन के बाद शिवसेना के असली बनाम नकली वाली लड़ाई भी शुरू होने जा रही है. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे खुद को असली शिवसेना बता रहे हैं - और उद्धव ठाकरे के पास जो कुछ बचा खुचा है, नकली बताने की कोशिश हो रही है. बीजेपी तो पहले से ही हवा दे रही है, आगे और भी बवाल मचाने की तैयारी है.
असल में चुनाव निशान को लेकर आयोग का फैसला ही निर्णायक होगा जिसके जरिये असली और नकली का फर्क समझाया जाएगा. ये ठीक है कि शिवसेना के ज्यादातर विधायकों ने बगावत की है, लेकिन सिर्फ विधायक ही शिवसेना समझे जायें, ऐसा भी नहीं है.
मान लेते हैं कि शिवसेना के 19 लोक सभा सांसदों में से एक श्रीकांत शिंदे भी बागी खेमे में चले जाते हैं या कुछ और सांसद पाला बदल लेते हैं, ऐसे में उद्धव ठाकरे को सबसे पहले जो बचा है, उसे बचाये रखने की कोशिश करनी चाहिये. श्रीकांत शिंदे, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के बेटे हैं और माना जाता है कि हाल के घटनाक्रम में वो एक महत्वपूर्ण संवाद सेतु बने हुए थे. ये काम उनके लिए सुविधाजनक भी रहा होगा.
2. शिवसेना के हिंदुत्व की सही लाइन तय करें
बीजेपी हमेशा ही उद्धव ठाकरे को टारगेट करने से बचती रही और फिर हिंदुत्व का मुद्दा (Hindutva Politics) ही उसे सबसे सटीक लगा. अब तो मान लेना होगा कि हिंदुत्व के मुद्दे ने बीजेपी के मिशन को अंजाम तक पहुंचा दिया.
अपनी सरकार के पूरे ढाई साल के दौरान उद्धव ठाकरे हमेशा ही हिंदुत्व की राजनीति को लेकर निशाने पर रहे. शिवसेना को बीजेपी से बड़ा हिंदूवादी तो बार बार बताते ही रहे, सरकार के 100 दिन पूरे होने पर अयोध्या पहुंच कर जश्न मनाये - और अभी 15 जून को ही एकनाथ शिंदे और संजय राउत के साथ आदित्य ठाकरे भी तो अयोध्या के दौरे पर गये ही थे.
पहले जरूर शिवसेना की तरफ से कहा गया था कि अगर विधायक लौट आते हैं तो उद्धव ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी का साथ छोड़ने को तैयार हैं, लेकिन बाद वो खुद साफ कर चुके हैं कि अपना स्टैंड नहीं बदलने वाले.
अब भी अगर कांग्रेस और एनसीपी छोड़ने का मन में कोई ख्याल है तो उस पर गंभीरता से विचार करें और फिर अपनी बात अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को समझायें - ये बात भी संकटकाल में आये संजय राउत के बयानों से ही सामने आयी है. अगर शिवसेना की पुरानी लाइन पर लौटने का कोई इरादा है तो भी उद्धव ठाकरे सोच समझ कर सामने आयें - और लोगों को अपना स्टैंड समझायें. चाहें तो इसके लिए सर्वे या ओपिनियन पोल का सहारा भी ले सकते हैं.
लेकिन ये बेहद जरूरी है कि उद्धव ठाकरे खुद सामने आकर तस्वीर साफ करें कि उनके हिसाब से हिंदुत्व की परिभाषा क्या है. आगे से ऐसी बातों का तब तक कोई मतलब नहीं है कि बीजेपी से शिवसेना का हिंदुत्व ज्यादा शुद्ध है.
3. हार जीत की परवाह किये बगैर म्युनिसिपल चुनाव लड़ें
बीएमसी और बाकी महानगर पालिकाओं के चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है - और उद्धव ठाकरे की पहली अग्नि परीक्षा वे चुनाव ही हैं. बीजेपी तो सत्ता परिवर्तन के साथ ही उद्धव ठाकरे को ललकारने लगी है.
बीएमसी पर तो शिवसेना का कब्जा है ही, कल्याण और डोंबिवली में भी कभी शिवसेना का ही दबदबा हुआ करता था. कई जगह समीकरण बदले हैं और अब तो ये संभावना और भी बढ़ गयी है. एकनाथ शिंदे के जरिये बीजेपी का नया मिशन भी यही है.
उद्धव ठाकरे को चाहिये कि हार जीत की परवाह किये बगैर सीधे मैदान में कूदें और संगठन को इसी बहाने दुरूस्त करने की कोशिश करें. अगर वहां भी लोग साथ छोड़ कर चले गये हैं तो जो हैं उनका ही जोश बढ़ायें और मोर्चे पर डटे रहने के लिए तैयार करें.
लेकिन ये सब ट्विटर और फेसबुक लाइव से नहीं होगा. उद्धव ठाकरे को लोगों के बीच पहुंचना होगा. अगर सेहत की वजह से खुद संभव न हो तो आदित्य ठाकरे को काम पर लगायें या बचे हुए शिवसैनिकों में से नये सिरे से भरोसेमंद लोगों की पहचान करें.
4. नयी और भरोसेमंद टीम बनायें
एकनाथ शिंदे तो उद्धव ठाकरे के संपर्क में रहते थे, लेकिन बाकियों के साथ क्या व्यवहार होता था, इस बात से वो अनजान रहे. बागी विधायकों का यही आरोप है कि उद्धव ठाकरे से संपर्क कर पाना उनके लिए संभव ही नहीं हो पाता था.
राहुल गांधी या ऐसे दूसरे नेताओं की तरह ही उद्धव ठाकरे पर भी आरोप लग रहा है कि वो अपने कुछ चापलूसों और सलाहकारों से ही घिरे होते थे, जो जमीनी कार्यकर्ताओं की बात उन तक पहुंचने ही नहीं देते थे. ऐसा ही एक नाम एक नाम है - मिलिंद नार्वेकर.
मिलिंद नार्वेकर लंबे अरसे से उद्धव ठाकरे के भरोसेमंद और करीबी रहे हैं. बताते हैं कि 1990 में मिलिंद नार्वेकर शाखा प्रमुख के लिए इंटरव्यू देने मातोश्री पहुंचे थे - और उनकी प्रतिभा से उद्धव ठाकरे इतने प्रभावित हुए कि अपना निजी सहयोगी बनने का ऑफर दे दिया. धीरे धीरे मिलिंद नार्वेकर ही उद्धव ठाकरे से संपर्क का एकमात्र सूत्र बन गये.
हालिया उठा पटक में भी लोगों से उद्धव ठाकरे के दूर हो जाने की बड़ी वजह मिलिंद नार्वेकर ही बताये जा रहे हैं - संजय राउत हों या प्रियंका चतुर्वेदी ये सब लोगों तक अपनी बात पहुंचाने या प्रवक्ता के लिए तो ठीक हैं, लेकिन ऐसे नेताओं को सलाहकार बना लेने का नतीजा उद्धव ठाकरे देख ही रहे हैं.
संजय राउत तो खुद प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के लिए पेश हो रहे हैं, लेकिन उससे पहले वो क्या क्या कह रहे थे लगता नहीं उद्धव ठाकरे उनके बयान सुन रहे थे. अगर सुन कर भी अनसुना कर रहे थे तो कुछ कहना भी बेकार है.
उद्धव ठाकरे को ये भी याद होगा ही कि नवनीत राणा के घर धावा बोलने वाले शिवसैनिकों की अगुवाई प्रियंका चतुर्वेदी ही कर रही थीं - और नवनीत राणा के मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने का कार्यक्रम रद्द कर देने के बाद गिरफ्तारी क्यों हुई वो बेहतर जानती होंगी. उद्धव ठाकरे अपने नफे नुकसान का हिसाब खुद करें तो बेहतर होगा.
5. हेडलाइन में बने रहने की कोशिश जरूर हो
मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद उद्धव ठाकरे पहली बार मीडिया के सामने आये तो बीजेपी का खास तौर पर जिक्र किया. समझदारी ये दिखायी कि अपना मुख्यमंत्री न बना पाने के लिए अमित शाह को ताना भी मारा और देवेंद्र फडणवीस को भी घेरा.
उद्धव ठाकरे ने कहा, 'जिस तरह ये सरकार बनी और शिवसैनिक को सीएम बनाया गया, यही मैं कह रहा था... इस पर ही मेरे और अमित शाह के बीच समझौता हुआ था और ढाई-ढाई साल के प्रतिनिधित्व पर बात हुई थी. अगर ऐसा कर लिया जाता तो महाविकास अघाड़ी गठबंधन बनता ही नहीं.'
साथ ही, उद्धव ठाकरे ने आरे कॉलोनी प्रोजक्ट को लेकर कहा है, 'मेरा गुस्सा लोगों पर मत निकालो.' 2019 में महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन होने के पहले से ही आरे कॉलोनी का मसला उद्धव ठाकरे और देवेंद्र फडणवीस के बीच टकराव की वजह बन गया था.
लोगों से उद्धव ठाकरे की तरफ से कहा गया था कि सरकार बनने पर वही होगा जो लोग चाहते हैं, हालांकि, तब तक ये नहीं साफ था कि उद्धव ठाकरे बीजेपी के साथ सरकार बनने की बात कर रहे था या कुछ और. बहरहाल, महाविकास आघाड़ी की सरकार बनने के बाद उद्धव ठाकरे ने शिवसेना का वादा पूरा किया - डिप्टी सीएम के तौर पर ही सही देवेंद्र फडणवीस की वापसी के बाद सबसे पहले निशाने पर आरे कॉलोनी का मेट्रो कार शेड प्रोजेक्ट ही आया है.
उद्धव ठाकरे ने जिस तरीके से बीजेपी नेतृत्व और देवेंद्र फडणवीस को लपेटते हुए रिएक्ट किया है, काफी है - कोशिश यही होनी चाहिये कि किसी भी सूरत में शिवसेना की वो छोर जो उद्धव ठाकरे से जुड़ी है, सुर्खियों से बाहर न होने पाये.
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