देश की मौजूदा राजनीति में गठबंधन सभी दलों की जरूरत बन चुका है. ये सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी के लिए ही नहीं, देश भर में राजनीति कर रहे छोटे छोटे राजनीतिक दलों के लिए भी - सपा-बसपा का हाथ मिलाना, शिवसेना का एनडीए से अलग होने की हिम्मत न जुटा पाना तो लगातार मैदान में डटे होने के बावजूद जगनमोहन रेड्डी का अपने बूते खड़े न हो पाने का साहस जैसे कई उदाहरण हैं.
विपक्षी खेमे में हर नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने का दावा कर रहा है - लेकिन हालत ये है कि प्रस्तावित महागठबंधन में अभी मीटिंग का ही दौर चल रहा है. कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की बारी तो तब आएगी जब महागठबंधन कोई शक्ल अख्तियार कर पाये.
राहुल गांधी की मुश्किल ये है कि कांग्रेस बगैर गठबंधन के खड़े होने की स्थिति में नहीं है - और गठबंधन की दिक्कत है कि वो खड़ा होने का ही नाम नहीं ले रहा है.
मोदी को चुनौती देने में जो गठबंधन राहुल गांधी के लिए सीढ़ी बन सकता है - वही कांग्रेस के अड़ियल रूख और क्षेत्रीय दलों के असहयोगी रवैये के कारण सबसे बड़ी बाधा भी साबित हो रहा है.
महागठबंधन की खैरियत ठीक तो है?
एनसीपी नेता शरद पवार के हवाले से खबर आयी है कि महागठबंधन को लेकर 14 और 15 मार्च को दिल्ली में क्षेत्रीय दलों के नेताओं की मुलाकात में आगे की रणनीति बनने जा रही है. इससे पहले 27 फरवरी को भी विपक्षी नेताओं की बैठक हुई थी जिसके प्रस्ताव को लेकर देश तो राजनीति हुई ही, सरहद पार पाकिस्तान में भी टीवी बहसों में 21 दलों का संयुक्त बयान छाया रहा.
चर्चा रही कि कांग्रेस नेतृत्व पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक से बने माहौल को देखते हुए मीटिंग टालने के पक्ष में रहा. वैसे भी कांग्रेस ने तब गुजरात की कार्यकारिणी और लखनऊ में प्रियंका गांधी का प्रोग्राम टाल ही दिया था. कांग्रेस से इतर विपक्षी खेमे के कुछ नेताओं का मीटिंग और उसके एजेंडे पर खास जोर रहा, जिनमें ममता बनर्जी सबसे मुखर रहीं. शरद पवार भले कहें कि चुनाव बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, तब भी...
देश की मौजूदा राजनीति में गठबंधन सभी दलों की जरूरत बन चुका है. ये सिर्फ कांग्रेस और बीजेपी के लिए ही नहीं, देश भर में राजनीति कर रहे छोटे छोटे राजनीतिक दलों के लिए भी - सपा-बसपा का हाथ मिलाना, शिवसेना का एनडीए से अलग होने की हिम्मत न जुटा पाना तो लगातार मैदान में डटे होने के बावजूद जगनमोहन रेड्डी का अपने बूते खड़े न हो पाने का साहस जैसे कई उदाहरण हैं.
विपक्षी खेमे में हर नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने का दावा कर रहा है - लेकिन हालत ये है कि प्रस्तावित महागठबंधन में अभी मीटिंग का ही दौर चल रहा है. कॉमन मिनिमम प्रोग्राम की बारी तो तब आएगी जब महागठबंधन कोई शक्ल अख्तियार कर पाये.
राहुल गांधी की मुश्किल ये है कि कांग्रेस बगैर गठबंधन के खड़े होने की स्थिति में नहीं है - और गठबंधन की दिक्कत है कि वो खड़ा होने का ही नाम नहीं ले रहा है.
मोदी को चुनौती देने में जो गठबंधन राहुल गांधी के लिए सीढ़ी बन सकता है - वही कांग्रेस के अड़ियल रूख और क्षेत्रीय दलों के असहयोगी रवैये के कारण सबसे बड़ी बाधा भी साबित हो रहा है.
महागठबंधन की खैरियत ठीक तो है?
एनसीपी नेता शरद पवार के हवाले से खबर आयी है कि महागठबंधन को लेकर 14 और 15 मार्च को दिल्ली में क्षेत्रीय दलों के नेताओं की मुलाकात में आगे की रणनीति बनने जा रही है. इससे पहले 27 फरवरी को भी विपक्षी नेताओं की बैठक हुई थी जिसके प्रस्ताव को लेकर देश तो राजनीति हुई ही, सरहद पार पाकिस्तान में भी टीवी बहसों में 21 दलों का संयुक्त बयान छाया रहा.
चर्चा रही कि कांग्रेस नेतृत्व पुलवामा हमले के बाद बालाकोट एयरस्ट्राइक से बने माहौल को देखते हुए मीटिंग टालने के पक्ष में रहा. वैसे भी कांग्रेस ने तब गुजरात की कार्यकारिणी और लखनऊ में प्रियंका गांधी का प्रोग्राम टाल ही दिया था. कांग्रेस से इतर विपक्षी खेमे के कुछ नेताओं का मीटिंग और उसके एजेंडे पर खास जोर रहा, जिनमें ममता बनर्जी सबसे मुखर रहीं. शरद पवार भले कहें कि चुनाव बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, तब भी अगर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभर आये. महागठबंधन के मतभेदों से तो यही लगता है कि शरद पवार के बयान हौसलाअफजाई के लिए अच्छे हो सकते हैं लेकिन चुनाव जीतने के लिए नहीं.
बताते हैं कि प्रस्ताव में कांग्रेस किसानों की कर्जमाफी और बेरोजगारी जैसे मुद्दे उठाकर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ आगे बढ़ने की बात कर रही थी, लेकिन ममता बनर्जी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर प्रस्ताव के पक्ष में खड़ी हो गयीं. संयुक्त बयान से तो साफ ही है कि महागठबंधन में ममता बनर्जी की ही बात मानी गयी. मतलब राहुल गांधी भी इस बात के लिए राजी हो गये - इतना ही नहीं बल्कि राहुल गांधी ने ही मीडिया के सामने वो बयान भी पढ़ा. क्या यही वो बातें हैं जिनकी वजह से राहुल गांधी कांग्रेस के स्थानीय नेताओं को आगे कर दे रहे हैं - खासतौर पर गठबंधन के मामले में?
क्या ये कांग्रेस का नया पैंतरा है?
मोदी-शाह को उनके घर गुजरात में घेरने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तमिलनाडु का रूख किया. अब तक डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ही ऐसे नेता हैं जो राहुल गांधी के पीछे पूरी तन्मयता के साथ खड़े लगते हैं, वरना बड़े गर्व से लंच का फोटो शेयर करने वाले तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी को पीएम मैटीरियल तो मानते हैं लेकिन अब महागठबंधन के पीएम का चुनाव आम राय से होने की बात करने लगे हैं. स्टालिन ने तो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पैरवी भी शुरू कर दी थी, लेकिन दूसरे दलों से विरोध में बयान आने लगे.
बिहार में कांग्रेस के सामने यूपी जैसे ही हालात पैदा हो गये हैं - तकरीबन 'एकला चलो...' वाली नौबत. ऐसा सीटों पर समझौता न हो पाने की वजह से हो रहा है.
आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी की बातों से तो लगता है कांग्रेस उनकी पार्टी के लिए बहुत मामूली मायने रखती है. शिवानंद तिवारी का कहना है, 'बिहार में राजद का सबसे बड़ा जनाधार है और राजद चुनाव में उतरने के लिए किसी का मोहताज नहीं है.'
कांग्रेस की ओर से भी मौके पर ही मामला निपटाने जैसे पलटवार हो रहे हैं. गठबंधन को लेकर कांग्रेस नेता सदानंद सिंह कहते हैं, 'अगर ऐसा नहीं हुआ तो हमारा नेतृत्व सक्षम है. राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस आगे बढ़ रही है. जिस तरह उत्तर प्रदेश में फैसला लिया गया, दूसरे राज्यों में भी फैसला लिया जाएगा. बिहार में कांग्रेस अगली कतार में खड़े होकर लड़ेगी.'
कांग्रेस मैसेज देना चाह रही है कि यूपी की तरह ही बिहार में भी पार्टी फ्रंटफुट पर खेल सकती है. पहले कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी समस्या प्रधानमंत्री पद पर राहुल गांधी की दावेदारी नजर आती रही. अब राहुल गांधी इसके लिए राज्य के कांग्रेस नेताओें को आगे कर दे रहे हैं. पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के बाद यही कहानी दिल्ली में भी सुनायी गयी है.
कांग्रेस का तरीका जो भी हो. चाहे प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी के जरिये या फिर स्थानीय नेताओं के नाम पर सामने तो अड़ियल रवैया ही आ रहा है. दिल्ली में जहां मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहने लगे हैं कि आप को कांग्रेस की जरूरत नहीं है, वहीं पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह भी ऐसी किसी भी संभावना को पहले ही खारिज कर दे रहे हैं.
अब सवाल ये है कि क्या कांग्रेस स्थानीय नेताओं को इतनी तवज्जो देने लगी है? इतनी तवज्जो कि गठबंधन के फैसले में उनकी मन की बात सुनी जाने लगी है? या गठबंधन में मतभेदों के चलते स्थानीय नेताओं का नाम आगे कर दिया जा रहा है. या फिर प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी का मुद्दा न उठे इसलिए कांग्रेस ये पैंतरा अपना रही है?
वैसे स्थानीय नेता तो यही कहा करते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व ही फैसला करेगा. हर छोटी बड़ी बात में ऐसा ही सुनने को मिलता रहा है. दिल्ली में ऐसे ही सवाल के जवाब में शीला दीक्षित ने कहा था - जैसा आलाकमान चाहेगा. तरीका जो भी अख्तियार किया जा रहा हो, असर तो सीधा गठबंधन पर ही पड़ रहा है.
दिल्ली, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश के मामले में तो राहुल गांधी यही बताते आये हैं. जब शरद पवार के घर ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल के साथ मीटिंग हुई तो भी राहुल गांधी कांग्रेस के स्थानीय नेताओं शीला दीक्षित और अजय माकन को अहमियत देते देखे गये. दिल्ली में कांग्रेस और आप के बीच गठबंधन से इंकार पर भी यही बात सामने आयी है. पश्चिम बंगाल में भी सुना गया कि अधीर रंजन चौधरी ममता के खिलाफ अकेले जाने के पक्षधर हैं इसीलिए राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी की कोलकाता रैली से भी दूरी बनायी.
एनडीए के मुकाबले विपक्षी गठबंधन की स्थिति
अब तक तो यही धारणा बनी है कि केंद्र में एक गठबंधन है जो यूपीए कहलाता है. बिहार में एक गठबंधन है जो महागठबंधन कहलाता है. अरसे से जिस गठबंधन की कवायद चल रही है वो बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए के खिलाफ है - कुछ कुछ पहले प्रयासरत तीसरे मोर्चे जैसा. एक कोशिश गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी गठबंधन की भी हुई थी, लेकिन दो चार मुलाकातों से बात आगे नहीं बढ़ सकी.
गठबंधन के मामले में अगर मोदी-शाह और राहुल गांधी की तुलना हो तो बीजेपी नेतृत्व ज्यादा उदार नजर आ रहा है. कांग्रेस के गठबंधन की कहानी से हट कर देखें तो एनडीए के सामने भी चुनौतियां कम नहीं थीं. फिर भी बीजेपी ने सहयोगियों के साथ दोस्ताना रवैया अख्तियार किया. सीटों के मामले में समझौते भी किये. बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक - और दक्षिण में तमिलनाडु तक. बिखराव की कगार पर पहुंच चुका एनडीए मजबूती के साथ खड़ा होता जा रहा है. किस गठबंधन में कितने दल शामिल हैं या किन किन राज्यों तक उनकी पहुंच है, ऐसी बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हर घटक दल के सामने तस्वीर साफ है या नहीं?
राहुल गांधी के मन में गठबंधन को लेकर जो भी पूर्वाग्रह या आशंका हो, सारी तैयारियों के बावजूद अमित शाह ने भी तो कहा ही है - गठबंधन में दो और दो चार नहीं होता!
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